Tuesday, December 29, 2009

धोखे की कहानी-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (dhokhe ki kahani-hindi vyangya kavitaen)

यह पेज
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उन्होंने धोखा दिया

इस पर क्यों अब आसू बहाते हो?

अपनों से ही होता है धोखा

दुनियां का यह कायदा क्यों भूल जाते हो।

उनके वादे पर रख दिया

अपना सारा सामान उनके घर,

कोई सबूत नहीं था

उनकी ईमानदारी का

यकीन किया तुमने उन पर मगर,

अपने बेबुनियाद विश्वास को छिपाकर

उनके धोखे की कहानी

पूरे जमाने को क्यों सुनाते हो।

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उनको महल में पहुंचा दिया

इस विश्वास पर कि

वह हमारी झौंपड़ी सजा देंगे।

यह नहीं सोचा

वह भी इंसान है हमारी तरह

याद्दाश्त उनकी भी कमजोर है

वहां मुद्दत बाद  मिले सुख में

अपने भी भूल जायेंगे दुःख के दिन

हमारे कैसे याद करेंगे।

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Wednesday, December 23, 2009

गुलामों पर राज-हिन्दी शायरी (gulam raj-hindi shayri)

हांड़मांस के बुत हैं

इंसान भी कहलाते हैं,

चेहरे तो उनके अपने ही है

पर दूसरे का मुखौटा बनकर

सामने आते हैं।

आजादी के नाम पर

उनके हाथ पांव में जंजीर नहीं है

पर अक्ल पर

दूसरे के इशारों के बंधन

दिखाई दे जाते हैं।

नाम के मालिक हैं वह गुलाम

गुलामों पर ही राज चलाये जाते हैं।


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Saturday, December 19, 2009

खूबसूरती और ताकत-हिन्दी साहित्य कवितायें (khubsurti aur takat-hindi sahitya kavita)

सुंदरता अब सड़क पर नहीं

बस पर्दे पर दिखती है

जुबां की ताकत अब खून में नहीं

केवल जर्दे में दिखती है।

सौंदर्य प्रसाधन पर पड़ती

जैसे ही पसीने की बूंद

सुंदरता बह जाती,

तंबाकू का तेज घटते ही

जुबां खामोश रह जाती,

झूम रहा है वहम के नशे में सारा जहां

औरत की आंखें देखती

दौलत का तमाशा

तो आदमी की नजर बस

कृत्रिम खूबसूरती पर टिकती है।

 


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Wednesday, December 9, 2009

पर्यावरण प्रदूषण देश की बहुत बड़ी समस्या-आलेख (polution is great trouble for india-hindi article)

कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन को लेकर जोरदार सम्मेलन हो रहा है। इसमें गैस उत्सर्जन को लेकर अनेक तरह की बहसें तथा घोषणायें चर्चा में सामने आ रही हैं। ऐसा लगता है कि यह मुद्दा अब इतना राजनीतिक हो गया है कि सभी देश अपने अपने बयानों ने प्रचार में अपना शाब्दिक खेल अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। इधर भारत में भी तमाम तरह की बहस देखने को मिल रही है। यह सच है कि विकसित देशों ने ही पूरी दुनियां का कचड़ा किया है पर इससे विकासशील देश अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते क्योंकि वह भले ही विकास न कर पायें हों पर उनका प्रारूप विकसित देशों जैसा ही है। दूसरी बात यह है कि अपने देश के बुद्धिजीवी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार में अपनी देश की शाब्दिक बढ़त दिखाकर अमेरिका तथा चीन के मुकाबले अपने देश को कम गैस उत्सर्जन करने वाला बताकर एक कृत्रिम देश भक्ति का भाव प्रदर्शन कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन गैस के उत्सर्जन का मुद्दा महत्वपूर्ण हो सकता है पर प्रथ्वी के पर्यावरण से खिलवाड़ केवल इसी वजह से नहीं हो रहा। पर्यावरण से खिलवाड़ करने के लिये तो और भी अनेक कारण सामने उपस्थित हैं जिसमें पेड़ पौद्यों का कटना तथ वन्य जीवों की हत्या शामिल है। इसके अलावा कारखानों द्वारा जमीन के पानी का दोहन तथा उनकी गंदगी का जलाशयों में विसर्जन भी कम गंभीर मुद्दे नहीं है। गंगा और यमुना के पानी का हाल क्या है सभी जानते हैं।
उस दिन टीवी समाचारों में देखने को मिला जिनमें भारत के कुछ जागरुक लोग कोपेनहेगन में विश्व समुदाय का ध्यान आकर्षित करने का अभियान चलाये हुए हैं। अच्छी बात है पर क्या ऐसे जागरुक लोग भी दुनियां भर के विशिष्ट समुदाय द्वारा तय किये ऐजेंडे पर समर्थन या विरोध कर केवल आत्मप्रचार की अपनी भूख शांत करना चाहते हैं? क्या भारत में पर्यावरण संकट से निपटने के लिये कोई बड़ा जागरुकता अभियान नहीं चलाया जा सकता।
एक दो साल पहले दक्षिण भारत का ही एक प्रसंग आया था। वहां एक कोला कंपनी ने अपने कारखाने के लिये जमीन के पानी का इतना दोहन किया कि वहां के आसपास के मीलों दूर तक का भूजल स्तर नीचे चला गया। इसके लिये अमेरिका में प्रदर्शन हुए पर क्या इस देश के कथित जागरुक लोगों ने एक बार भी उस विषय का कहीं विस्तार किया? यह केवल दक्षिण का ही मामला नहीं है। देश के अनेक स्थानों में जलस्तर नीचे चला गया है। वैसे तो लोग यही कहते हैं कि यह निजी क्षेत्र के नागरिकों द्वारा अनेक बोरिंग खुदवाने के कारण ऐसा हुआ है पर इनमें से कुछ ऐसे कारखानेदार भी हैं जो जमकर पानी का दोहन कर पानी का जलस्तर नीचे पहुंचा रहा हैं। यह केवल एक प्रदेश या शहर की नहीं बल्कि देशव्यापी समस्या है। क्या जागरुक लेागों ने कभी इस पर काम किया?
रास्ते में आटो या टैम्पो से जब घासलेट का धुंआ छोड़ा जाता है तब वहां से गुजर रहे आदमी की क्या हालत होती है, यह भी एक चर्चा का विषय हो सकता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जलवायु और पर्यावरण को लेकर भारतीय जनमानस के सामने अन्य देशों को शाब्दिक प्रचार में खलनायक बनाकर शब्दिक बढ़त दिखाकर उसकी देशभक्ति का दोहन करना ठीक नहीं है। अगर गैस उत्सर्जन समझौता हो गया तो भारत पर आगे विकसित राष्ट्र गलत प्रकार से दबाव डालेंगे-ऐसा कहकर खाली पीली डराने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि जलवायु परिवर्तन या पर्यावरण प्रदूषण से अपना देश भी कम त्रस्त है-इसके लिये अंतर्राष्ट्रीय कारणों के साथ घरेलू परिस्थतियां भी जिम्मेदार हैं। सर्दी के मौसम में भ्ीा अनेक प्रकार की गर्मी पड़ रही है-यह गैस उत्सर्जन की वजह से हो सकता है। इसकी वजह से जलस्तर नीचे जायेगा यह भी सच है पर पानी के दोहन करने वाले बड़े कारखाने इसमें अधिक भूमिका अदा करें तो फिर सवाल अपने देश की व्यवस्था पर उठेंगे। यह आश्चर्य की बात है कि अनेक बुद्धिमान लोगों ने इस पर बयान देते हुए केवल विदेशी देशों पर ही सवाल उठाकर यह साबित करने का प्रयास किया कि इस देश की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है। यह सच है कि विकसित राष्ट्रों पर न केवल गैस उत्सर्जन को लेकर दबाव डालना चाहिये बल्कि उनके परमाणु प्रयोगों पर भी सवाल उठाना चाहिये, पर साथ ही अपने देश में आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य व्यवस्थायें हैं उनके दोष भी देखने हों्रगे। विषयों का विभाजन करने की पश्चिमी रणनीति है। वह एक से दूसरा विषय तब तक नहीं मिलाते जब तक उनका हित नहीं होता। वह पर्यावरण की चर्चा करते हुए गैरराजनीतिक होने का दिखावा करते हैं पर अगर बात उनके पाले में हो तो राजनीतिक दबाव डालने से बाज नहीं आते।
अगर विश्व समुदाय एक मंच पर एकत्रित होकर काम न भी करे तो भी देश के जागरुक तथा अनुभवी लोगों को भारत में पर्यावरण सुघार के लिये काम करना चाहिये। इसके लिये विश्व समुदाय या सुझाये गये कार्यक्रमों और दिनों पर औपचारिक बयानबाजी करने से कोई हल नहीं निकलने वाला।

काव्यात्मक पंक्तियां
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मौन को
कोई कायरता तो
कोई ताकत का प्रतीक बताता है।
पर सच यही है कि
मौन ही जिंदगी में अमन लाता है।
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कृत्रिम हरियाली की चाहत ने
शहरों को रेगिस्तान बना दिया
सांस के साथ
अंदर जाते विष का
अहसास इसलिये नहीं होता
हरे नोटों ने इतना संवेदनहीन बना दिया।

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Saturday, December 5, 2009

तमाशा-हिन्दी शायरी (tanasha-hindi shayri)

 अपने दर्द का बयां न

कभी न करना

बन जायेगा तमाशा।

अपनी ही गमों ने लोग हैरान हैं

अपनों की करतूतों से परेशान है

कर नहीं सकते किसी की

पूरी आशा।

किसी को इंसान को

कुदरत हीरे की तरह तराश दे

अलग बात है

इंसानों ने कभी नहीं तराशा।

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सर्वशक्तिमान से मोहब्बत नहीं होती

पर उसकी इबादत की जाती।

पीरों ने बनाये कई कलाम

गाने के लिये

तमाशा जमाने के लिये

पर सच यह है कि

दिल में है जिसकी जगह

उसकी असलियत

जुबान से बयान नहीं की जाती।

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Sunday, November 22, 2009

धर्म बन गयी है शय-हिंदी व्यंग्य कविता (dharam ban gaye hai shay- vynayga kavita)

 
धर्म बन गयी है शय
बेचा जाता है इसे बाज़ार में,
सबसे बड़े सौदागर
पीर कहलाते हैं.
भूख, गरीबी, बेकारी और बीमारी को
सर्वशक्तिमान के  तोहफे बताकर
ज़माने को  भरमाते हैं.
मांगते हैं गरीब के  खाने के लिए पैसा
जिससे खुद खीर खाते हैं.
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धर्म का नाम लेते हुए
बढ़ता जा रहा है ज़माना,
मकसद है बस कमाना.
बेईमानी के राज में
ईमानदारी की सताती हैं याद
अपनी रूह करती है  फ़रियाद 
नहीं कर सकते दिल को साफ़ कभी 
हमाम में नंगे हैं सभी 
ओढ़ते हैं इसलिए धर्म का बाना.
फिर भी मुश्किल है अपने ही  पाप से बचाना..
 
 

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Sunday, November 15, 2009

हिंसा और मानवाधिकार- व्यंग्य चिंत्तन (hindi aur manvadhikar-vyangya chintan)

वर्तमान भौतिकवादी युग में यह मानना ही बेवकूफी है कि कोई बिना मतलब के जनसेवा करता है। अगर लाभ न हो तो आदमी अपने रिश्तेदार को पानी के लिये भी नहीं पूछता। वैसे यह मानवीय प्रवृत्ति पुराने समय से है कि बिना मतलब के कोई किसी का काम नहीं करता पर आजकल के समय में कुछ कथित समाज सेवक देखकर यह साफ लगता है कि वह अप्रत्यक्ष रूप से लाभ लिये बिना काम नहीं कर रहे हैं । यही स्थिति मानवाधिकार के लिये काम करने वाले लोगों और उनके संगठनों के बारे में देखी जा सकती है। हम तो सीधी बात कहें कि जब हम किसी को जनकल्याण, मानवाधिकार या किसी अन्य सार्वजनिक अभियान चलाते हुए देखते हैं तो उसके उद्ददेश्य से अधिक इस बात को जानने का प्रयास करते हैं कि वह उसके पीछे कौनसा अपना हित साध कहा है।
आतंकवाद के बारे में कुछ विशेषज्ञों का स्पष्टतः मानना है कि यह एक उद्योग है जिसके सहारे अनेक दो नंबरी व्यवसाय चलते हैं। आंकड़े इस बात का प्रमाण है कि जहां आतंकवाद दृष्टिगोचर होता है वहीं दो नंबर का व्यापार अधिक रहता है। आतंकवाद को उद्योग इसलिये कहा क्योंकि किसी नवीन वस्तु का निर्माण करने वाला स्थान ही उद्योग कहा जाता है और आतंकवाद में एक इंसान को हैवान बनाने का काम होता है। इसी आतंकवाद या हिंसा का सहायक व्यापार मानवाधिकार कार्यक्रम लगता है। नित अखबार और समाचार पत्र पढ़ते हुए कई प्रश्न कुछ लोगों के दिमाग में घुमड़ते हैं। इसका जवाब इधर उधर ढूंढते हैं पर कहीं नहीं मिलता। जवाब तो तब मिले जब वैसे सवाल कोई उठाये। कहने का तात्पर्य यह है सवाल करने वालों का भी टोटा है।
बहरहाल एक बड़ा उद्योग या व्यवसाय अनेक सहायक व्यवसायों का भी पोषक होता है। मान लीजिये कहीं कपड़े के नये बाजार का निर्माण होता है तो उसके सहारे वहां चाय और नाश्ते की दुकानें खुल जाती हैं। वजह यह है कि कपड़े का बाजार है पर वहां रहने वाले दुकानदार और आगंतुकों के लिये खाने पीने की व्यवस्था जरूरी है। इस तरह कपड़े का मुख्य स्थान होते हुए भी वहां अन्य सहायक व्यवसाय स्थापित हो जाते हैं। कहीं अगर बुनकरी का काम होता है तो उसके पास ही दर्जी और रंगरेज की दुकानें भी खुल जाती हैं। यही स्थिति शायद आतंकवाद के उद्योग के साथ है। जहां इसका प्रभाव बढ़ता है वहीं मानवाधिकार कार्यकर्ता अधिक सक्रिय हो जाते हैं। उनकी यह बात हमें बकवाद लगती है कि वह केवल स्व प्रेरणा की वजह से यह काम कर रहे हैं। यह ऐसे ही जैसे कपड़े की बाजार के पास कोई चाय की दुकान खोले और कहे कि ‘मैं तो यहां आने वाले व्यापारियों की सेवा करने आया हूं।’
ऐसे अनेक निष्पक्ष विशेषज्ञ हैं जो भले ही साफ न कहते हों पर विश्व भर में फैले आतंकवाद के पीछे काम कर रहे आर्थिक तत्वों का रहस्ययोद्घाटन करते हैं पर वह समाचार पत्रों में अंदर के कालम में छपते हैं और फिर उन पर कोई अधिक नहीं लिखता क्योंकि विश्व भर में बुद्धिजीवियों को तो जाति, भाषा, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर फैल रहे आतंकवाद की सच्चाई पर ध्यान देने की बजाय उसके कथित विषयों पर अनवरत बहस करनी होती है। अगर वह इस सच को एक बार मान लेंगे कि इसके पीछे दो नंबर का धंधा चलाने वाले किसी न किसी रूप से अपना आर्थिक सहयोग इसलिये देते हैं ताकि प्रशासन का ध्यान बंटे और उनका काम चलते रहे, तो फिर उनके लिये बहस की गुंजायश ही कहां बचेगी? फिर मानवाधिकार कार्यकताओं का काम भी कहां बचेगा, जिसके सहारे अनेक लोग मुफ्त का खाते हैं बल्कि प्रचार माध्यमों को अपने कार्यक्रमों की जगह भरने के लिये अपने शब्द और चेहरा भी प्रस्तुत करते हैं।
शक की पूरी गुंजायश है और यह टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में छपी सामग्री पर थोड़ा भी चिंतन करें तो वह पुख्ता भी हो जाता है। यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। ऐसा कोई भी गांव या शहर नहीं है जो इससे मुक्त हो। अलबत्ता घटना केवल उन्हीं जगहों की सामने आती हैं जिनको प्रचार माध्यम इन्हीं मानवाधिकार कार्यकताओं के सहारे प्राप्त करते हैं।
आप जरा ध्यान से अखबार पढ़ें कि भारत के मध्य क्षेत्र में ऐसे अनेक एनकांउटर होते हैं जिनमें किसी कुख्यात अपराधी को मार दिया जाता है। उस पर उसके परिवार वाले विरोध भी जताते हैं पर वहां कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता या संगठन सक्रिय नहीं होता क्योंकि इसके लिये उनको कोई प्रायोजक नहीं मिलता। प्रायोजक तो वहीं मिलेगा जहां से आय अच्छी होती हो। सीमावर्ती क्षेत्रों से तस्करी और घुसपैठ को लेकर अनेक संगठन कमाई करते हैं और इसलिये वहां आतंकवादियों की सक्रियता भी रहती है। इसलिये वहां सुरक्षाबलों से उनकी मुठभेड भी होती है जिसमें लोग मारे जाते हैं। मानवाधिकर कार्यकर्ता वहां एकदम सक्रिय रहते हैं। उनकी सक्रियता पर कोई आपत्ति नहीं है पर मध्य क्षेत्र में उनकी निष्क्रियता संदेह पैदा करती है। पूर्वी क्षेत्र को लेकर इस समय हलचल मची हुई है। हिंसक तत्व वहां की प्राकृत्तिक संपदा का दोहन करने का आरोप लगाते हुए सक्रिय हैं। वह अनेक बार अनेक सामान्य सशस्त्र कर्मियों को मार देते हैं पर इन हिंसक तत्वों में कोई मरता है तो मानवाधिकार कार्यकर्ता उसका नाम लेकर चिल्लाते हैं। सवाल यह है कि क्या यह मानवाधिकार कार्यकर्ता यह मानते हैं कि सामान्य सुरक्षा अधिकारी या कर्मचारी का तो काम ही मरना है। उसका तो कोई परिवार ही नहीं है। उसके लिये यह कभी आंसु नहीं बहाते।
कुछ निष्पक्ष विशेषज्ञ साफ कहते हैं कि अगर कहीं संसाधनों के वितरण को लेकर हिंसा हो रही है तो वह इसलिये नहीं कि आम आदमी तक उसका हिस्सा नहीं पहुंच रहा बल्कि यह कि उसका कुछ हिस्सा हिंसक तत्व स्वयं अपने लिये चाहते हैं। इसके अलावा यह हिंसक तत्व आर्थिक क्षेत्र की आपसी प्रतिस्पर्धा में एक दूसरे को निपटाने के काम भी आते हैं
इसके बाद भी एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कुछ लोगों ने तो बड़ी बेशर्मी से खास जाति, भाषा और धर्म के समूह पकड़ कर उनके मानवाधिकारों के हनन का प्रचार कर रखा है। इसमें भी उनका स्वार्थ दिखाई देता है। इनमें अगर जातीय या भाषाई समूह हैं तो उनका धरती क्षेत्र ऐसा है जो धन की दृष्टि से उपजाऊ और धार्मिक है तो उसके लिये कहीं किसी संस्था से उनको अप्रत्यक्ष रूप से पैसा मिलता है-उनकी गतिविधियां यही संदेह पैदा करती हैं। इधर फिर कुछ ऐसे देश अधिक धनवान हैं जो धर्म पर आधारित शासन चलाते हैं और उनके शासनध्यक्षों से कृपा पाने के लिये कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता उनके धर्म की पूरे विश्व में बजा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह मानवाधिकार कार्यक्रम चलाने वाले जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र की दृष्टि से बंटे समाज में ऐसे छिद्र ढूंढते हैं जिनको बंद करने का प्रयास सुधारक करते हैं।
अखबार में एक नहीं अनेक ऐसी खबरें छपती हैं जिनमें मानवाधिकार हनन का मामला साफ बनता है पर वहां कार्यकर्ता लापता होते हैं। कल एक ब्लाग में पढ़ने को मिला जिसमें बताया कि सरकार ने धारा 498-ए के तहत मामले छानबीन के बाद दर्ज करने का आदेश जारी किया है क्योंकि पाया गया कि इसमें फर्जी मामले दर्ज हुए और शिकायत में ढेर सारे नाम थे पर छानबीन के बाद जांच एजेंसियों ने पैसा खाकर कुछ लोगों को छोड़ा। इतना ही नहीं कई में तो शिकायत ही झूठी पायी गयी। इससे अनेक लोगों को परेशानी हुई। इस तरह के कानून से हमारे भारतीय समाज के कितने लोगों को परेशानी झेलनी पड़ी है इस पर कथित रूप से कोई मानवाधिकार संगठन कभी कुछ नहीं बोला। सरकार ने स्वयं ही यह काम किया। यह कैसे मान लें कि सरकार समाज का दर्द नहीं जानती। मानवाधिकार कार्यकर्ता तो केवल चिल्लाते हैं पर सरकार अपना काम करती है,यह इसका प्रमाण है
सच तो हम नहीं जानते। अखबार और टीवी के समाचारों के पीछे अपने चिंत्तन के घोड़े दौड़ाते है-हमारे गुरु जी का भी यही संदेश है- तब यही सवाल हमारे दिमाग में आते हैं। दूसरा हमारा फार्मूला यह है कि आज कल कोई भी आदमी बिना स्वार्थ के समाज सेवा नहीं करता। फिर उनके चेहरे भी बताते हैं कि वह कितने निस्वार्थी होंगे। हम ब्रह्मा तो हैं नहीं कि सब जानते हों। हो सकता है कि हमारी सोच में ही कमी हो। एक आम लेखक के रूप में यही अभिव्यक्ति दिखी, व्यक्त कर दी।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Thursday, November 12, 2009

गड़े मुर्दे ताजा हो जाते-हिन्दी क्षणिकाएं (murde taza ho jate-hindi short poem)

गड़े मुर्दे उखड़ कर भी
इसलिये ताजा हो जाते हैं।
क्योंकि जिसे मुद्दे पर
चला चर्चा का दौर एक बार
फिर वह कभी मर नहीं पाते हैं।
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नायकत्व का आकर्षण इतना
कि लोग मरों की राख से
अपना चेहरा सजाते।
एक नारा खोजकर
अपनी जुबान से वाद की तरह बजाते।
दिखावे की जिंदगी जीने की आदत
इस कदर हो गयी लोगों में
अपनी ही सच से मुंह स्वयं ही मुंह छिपाते।

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, November 2, 2009

मनुष्यता-त्रिपदम (mansushyata-tripadam)

यह लघुता
चाहती है प्रभुता
छुरे के साथ।

वह क्रूरता
नाम रखे साधुता
खूनी हैं हाथ।

बड़ी शत्रुता
मांगती है मित्रता
सोच अनाथ।

मनुष्यता
बरतती पशुता
बनती नाथ।

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Thursday, October 29, 2009

अभद्र और अश्लील शब्दों पर नज़र-व्यंग्य आलेख (hindi bhasha-vyangya lekh)

एक टीवी चैनल को उसके मनोरंजक कार्यक्रम में अभद्र और अश्लील शब्दों के प्रयोग पर आखिर नोटिस थमा दिया गया है। हो सकता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुछ समर्थक इस पर नाराज हों पर यह एक जरूरी कदम है। दरअसल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई रोक नहीं होना चाहिये पर अभद्र और अश्लील शब्दों के सार्वजनिक प्रयोग पर रोक तो लगानी होगी। स्वतंत्रता समर्थक पश्चिम की तरफ देख कर यहां की बात करते हैं पर उनको भाषाओं के जमीनी स्वरूप का अधिक ज्ञान नहीं है। अंग्रेजी में मंकी शब्द नस्लवाद का प्रतीक है पर भारतीय भाषाओं में इसे इतना बुरा नहीं समझा जाता। इसके अलावा हिंदी भाषा में कई ऐसे शब्द और संकेत हैं जो बड़े भयावह हैं और संभवतः वह अंग्रेजी में तो हो ही नहीं सकते। ऐसे में भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खुलेपन के वैसे मायने भी नहीं हो सकते जैसे पश्चिम में है।
दूसरी भी एक वजह है। यह पता नहीं पश्चिम के लोगों पर की मनस्थिति पर टीवी और फिल्मों में प्रस्तुत सामग्री का कितना प्रभाव पड़ता है ं पर भारत में बहुत पड़ता है। यहां बच्चे बच्चे को टीवी और फिल्मों में दिखाये गये वाक्य और गीत याद रहते हैं। अनेक बार अखबार भी अनेक बार लिखते हैं कि अमुक अपराध अमुक फिल्म को देखकर किया गया। भले ही टीवी और फिल्म वाले कहते हैं कि जो समाज में चल रहा है उसे हम दिखाते हैं पर हम उसका उल्टा देखते हैं। महिलाओं के प्रति अपराध पहले इतने नहीं थे जितने फिल्मों में दिखाने के बाद बड़े हैं। इसके अलावा आशिकों और सिरफिरों के टंकी पर चढ़ने के किस्से भी पहले नहीं सुने गये थे। इनका प्रचलन शोले के बाद ही शुरु हुआ वह भी बहुत समय बाद! एक तरह से इस फिल्म के प्रदर्शित होते समय जो बच्चे थे बड़े होने के बाद इस तरह की हरकत करते नजर आने लगे।
मनोरंजन में भारतीय समाज अपने लिये अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के संदेश ढूंढता है। सीधे शब्दों में लिखी गयी गीता कौन पढ़ता अगर उसके साथ महाभारत की फंतासी या नाटकीयता जुड़ी नहीं होती। हमारे अध्यात्मिक महर्षियों ने महान अध्यात्मिक ज्ञान के रूप में वेदों में सृजन किया पर उसे पढ़ने वाले कितने रहे। यही ज्ञान श्री रामायण, श्रीमद्भागवत, और महाभारत (श्रीगीता उसी का ही एक हिस्सा है) में भी व्यक्त हुआ। उनके साथ अधिक फंतासी या नाटकीयता जैसी सामग्री जुड़ी है इसलिये उनको खूब सुना और सुनाया जाता है, पर उसमें जो अध्यात्मिक संदेश है उसे कौन ध्यान में रखना चाहता है?
कहते हैं कि कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों में खिलता है अगर हम भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को कमल या गुलाब माने तो हमें अपने समाज को मनोवृत्ति को कीचड़ या कांटे की तरह मानना ही होगा। यह सत्य की खोज की गयी क्योंकि लोग असत्य का शिकार बहुत जल्दी हो जाते हैं। उन्हें चैमासा ही मनोरंजन चाहिये पर इसलिये उनकी अध्यात्मिक शांति की आवश्यकतायें भी अधिक है। जिस तरह ठंडा खाने के बाद गर्म पदार्थ की आवश्यकता अनुभव होती है वही स्थिति मनोरंजन के बाद मन की शांति पाने की इच्छा चाहत के रूप में प्रकट होती है।
अब ऐसे में यह मनोरंजक चैनल अगर इस तरह अभद्र शब्द या अश्लील शब्द सार्वजनिक रूप से सुनाये तो हो सकता है कि बच्चों पर ही क्या बड़ों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़े। यह तो गनीमत है कि सच का सामना जल्दी बंद हो गया वरना अगर एक दो साल चल पड़ता तो जगह जगह लोग एक दूसरे से सच जानते हुए लड़ते नजर आते। मनोरंजक कार्यक्रमों में शुद्ध रूप से मनोरंजन है पर कोई संदेश नहीं है। उनके कार्यक्रमों में अगर गंदे वाक्य शामिल होंगे तो उनका सार्वजनिक प्रचनल बढ़ेगा। ऐसे में उन पर नियंत्रण रखना चाहिये। अगर इन पर नियंत्रण नहीं रखा गया तो हो सकता है कि परिवारों में छोटे बच्चे ऐसे शब्दों का उपयोग करने लगें जिससे बड़े शर्मिंदगी झेलने को बाध्य हों।


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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Tuesday, October 20, 2009

नया सामान और कबाड़-व्यंग्य कविता (naya saman aur kabad-hindi vyangya kavita)

सुनने और पढने वाला
जाल में फंस जाए
विज्ञापन ऐसे ही सजाये जाते हैं.
अगर उनमें सच होता तो
नहीं भर जाते घर उस कबाड़ के सामान से
जिनको खरीदा था कभी चाव से
बड़े महंगे भाव से
आये थे जो सामान नए बनकर ठेले से
वही कभी कबाड़ बनकर फिर उसमें लद जाते हैं.
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बाज़ार अब नगद ही नहीं
उधार पर भी चलते हैं.
चुकाते हुए रोते रहो
नहीं चुकाने पर
चीख पुकार भी मचती है
कभी उधार वाले
पहलवान बनकर गर्दन भी पकड़ते हैं.

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, October 16, 2009

खुशियां और दर्द-हिंदी शायरी (khushiyan aur dard-hindi shayri)

बाहर जलती रौशनी देखकर भी
कब तक खुश रहा जा सकता है
अंदर का अंधेरा कभी न कभी
बाहर आकर दर्द देता
खुशियों का बोझ भी कब तक सहा जा सकता है
....................................
अपनी आवाज बुलंद होने का गुमान
कुछ इस तरह है उनको कि
कहीं मशहूर हम भी न हो जायें
वह अपने लबों सें नाम लेते भी डरते हैं।
हम भी कहां चाहते हैं
रौशनी करने की कीमत
क्योंकि ठहरे वह चिराग जो
अपने तले अंधेरा रखते हैं।


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Monday, October 12, 2009

छोटे ईमान के लोग बड़े बन जाते-हिंदी व्यंग्य कविता (chhote log-hindi vyangya kavita)

जब बहता था दरिया में पानी
तब भला कौन वादा करता था उसे लाने का।
कहीं बांध बनाये
कहीं रास्ता बदला
पानी को बनाकर बेचने की शय
जिन्होंने बिगाड़ दी प्रकृति की लय
अब वही करते हैं सभी जगह वादा
पानी का दरिया बहाने का।
छोटे ईमान के लोग
बड़े बन जाते हैं इस जमाने में
लेकर सहारा ऐसे ही अफसाने का।
.............................

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Saturday, October 3, 2009

दूर उठती लहरें देखकर-हिंदी कविता (zindagi aur samandar-hindi poem)

जिंदगी की इस धारा में
किस किसकी नाव पार लगाओगे।
समंदर से गहरी है इसकी धारा
लहरे इतनी ऊंची कि
आकाश का भी तोड़ दे तारा
अपनी सोच को इस किनारे से
उस किनारे तक ले जाते हुए
स्वयं ही ख्यालों में डूब जाओगे।
दूसरे को मझधार से तभी तो निकाल सकते हो
जब पहले अपनी नाव संभाल पाओगे।
दूर उठती लहरें देखकर
खेलने का मन करता है
पर उनकी ताकत तभी समझ आयेगी
जब उनसे लड़ने जाओगे।

...................................

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Tuesday, September 29, 2009

प्रायोजन की महिमा-व्यंग्य कवितायें

अपना दर्द यूं जमाने को न दिखाओ
दवा देकर इलाज करने वाले
हर जगह नहीं मिलते हैं।
जो अल्फाजों की जादूगरी से
जख्मों का बहता खून चूस लें
इस जहां में
जुबानी हमदर्दी के ऐसे सौदागर भी मिलते हैं।
..............................
चक्षुहीन करते प्रकृति सौंदर्य का बखान
बहरे सिर हिलाते, सुनकर कोई भी गान
पैसे से प्रायोजन की महिमा होती अपरंपार
गूंगे गाते कविता, मूर्ख बताते वेदों का ज्ञान।
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Tuesday, September 22, 2009

अमृत कहाँ धरा है-व्यंग्य कविताएँ (amrut aur zahar-vyangya kavitaen)

फरिश्तों ने छोड़ दिया दौलत का घर
मासूम इंसानों के लिए.
पर शैतानों ने कर लिया उस पर कब्जा,
दिखाया इंसानियत का जज्बा,
करोडों से भर रहे हैं अपने घर
पाई से जला रहे चिराग जमाने के लिए.
वह भी रखे अपने घर की देहरी पर
अपनी मालिकी जताने के लिए.
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जितनी चमक है उनकी शयों में
जहर उससे ज्यादा भरा है.
अमृत तो पी गए फ़रिश्ते किसी तरह बचाकर
छोड़ दिया अपने हाल पर दुनिया को
उसे पचाकर,
शैतानों ने हर शय को सजाकर,
रख दिया बाज़ार में,
कहते भले हों अमृत उसमें भरा है.
पर वह अब इस दुनिया में कहाँ धरा है.
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Saturday, September 19, 2009

मिस काल-हास्य व्यंग्य कविताएँ (miss call on mobile-hinde hasya kavitaen)

माशुका अब आशिक के लिये
हो गयी है मिस काल।
वह घंटी बजाकर बंद करती है
फिर करता है आशिक उसे काल।
वह भी क्या करे
आशिक ने जीवन भर सुनने के लिये
मोबाइल तो दिया
मगर अब नहीं भरवा कर दे रहा वार्तालाप समय
कोई पुरुष ‘मिस काल’ बनकर
इश्क की चोरी न कर ले
उसको भी लगता है भय
जब भी कहती है
वार्तालाप समय भरवाने को माशुका
मंदी का बहाने से आशिक देता है टाल।
.................................
सच मोबाइल से रिश्ते निभाने में
सभी को सुविधा हो गयी है
पर बेशर्म बन करें जो मिस काल
उनको कोई परवाह नहीं है
पर पानीदार को वापस करना ही पड़ता है काल
चाहे अनचाहे बात करना दुविधा हो गयी है।
..............................
मोबाइल से रिश्ते
अधिक प्रगाढ़ हो गये लगते
क्योंकि चाहे जब बात करो
दूर बैठे अपने, बहुत पास लगते।
जब तक मिस कालों का
जवाब देते रहो सभी को लगता है अच्छा
न करो तो
कंजूस कहकर इज्जत का नाश करते।
............................
एक दोस्त ने कहा
‘यार, देखो में कितना तुम्हें याद करता हूं
दिन में कितनी बार तो मिस काल करता हूं
एक तुम हो कि जवाब नहीं देते।’
दूसरे ने कहा
‘हां, मैं भी तुम्हें बहुत याद करता हूं
जब तुम्हारा मिस काल आता है
तुम्हारे लिये आहें भरता हूं
वार्ता समय नहीं मेरे मोबाइल में
वरना हम दोनों ही बात कर लेते।’

.............................
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Wednesday, September 16, 2009

जो बहते पानी की तरह जिये-हिंदी साहित्य कविता (bahata pani aur samaj-hindi sahityak kaviata)

जब तक प्राचीन स्तंभ खड़े रहेंगे
पहचान बताने के लिये
कोई नहीं जलायेगा नये ज्ञान दिये।
जल चुकी कपास की बाती
फिर नहीं रौशनी फैलायेगी
चाहे जितना भी तेल पिये।

सुगंधित फूलों के कितने भी पेड़
किनारे पर लगा लो
रुका पानी अपने अंदर समाये तालाब
गंदगी से लबालब हो ही जाता है
चलता रहे जो जिंदगी
बदलते ख्यालों के साथ
जिंदगी को वही समझ पाता है
जिंदा रहता है इतिहास उन्हीं समाजों का
जो बहते पानी की तरह जिये।

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Thursday, September 10, 2009

नोट पहले क्यों नहीं दिखाया-हास्य व्यंग्य कविता (rupya aur iman-hasya vyangya kavita)

आम आदमी उस कार्यालय पहुंचा तो
सभी के कानों में मोबाइल का तार लगा पाया।
सुन रहे थे सभी गाने
उसके समझ में कुछ नहीं आया।
वह बोलता रहा कुर्सी पर बैठे अधिकारी से
पर उसे अपनी तरफ नहीं देखता पाया।
आखिर उसने जेब से
पांच सौ का नोट दिखाकर उसे दिखाया।
उसे देखते ही अधिकारी ने कान से तार निकाली
और बोला
‘अरे, भई बताओ कौनसा काम है
यह नोट पहले क्यों नहीं दिखाया।’

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Tuesday, September 8, 2009

ईमान का दीपक-हिंदी कविता (iaman ka deepak-hindi sahityak kavita)

आजकल के जमाने में दुश्मन कम नहीं है.
किसकी सोचें, क्या और साथ गम नहीं हैं.
आसान है धोखा देना,इसलिए सब देते
वफादारी निभाने का सब में दम नहीं है.
गंदे अल्फाज़ बोलना, बन गया है रिवाज़
बोलकर दिखाते सब कि वह बेदम नहीं है.
उसूलों के दिखावे में माहिर हैं सब लोग
पैसा लूटना किसी से, अब सितम नहीं है.
उनको सलाम, रोशन करते ईमान का दीपक
जमाने को दिखाते कि सब जैसे हम नहीं है.
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Friday, September 4, 2009

नजरें फेरते ही-हिंदी कविता (nazaren-hindi poem)

सच बोलना कभी कभी
ठीक नहीं लगता
कड़वा जो होता।
सोचता भी नहीं
कोई दिमाग की हलचल को
सुन न ले
दीवारों के भी कान होता।
हां, लाचार हूं
एकदम बेबस हूं
निगाहों के सामने हैं दोस्त बहुत
नजरें फेरते ही
हर कोई मेरी शिकायतें लिये
कोई दुश्मन ढूंढ रहा होता।
....................................



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Tuesday, September 1, 2009

टीवी एंकर और कवि-हिंदी हास्य कविता (tv anchor and hindi poet-hindi hasya kavita)

कवि ने टीवी एंकर से कहा
‘यह मेरे साक्षात्कार का बेकार नाटक रचाया।
तुम सवाल करते हुए
जवाब भी बताकर
उसे दोहराने को मजबूर करती थी,
जब अपनी बात कहता तो
ब्रेक लगाकर दूर कर देती थी,
तुम्हारे सवाल मेरे जवाब से लंबे थे
मैं सवाल समझता तुम
जवाब वैसे ही भर देती थी,
यह कार्यक्रम देखकर लोग तुम्हें ही
याद रखेंगे,
मुझे भूल जायेंगे,
लोग इसे देखकर
मुझ पर हंसने लग जायेंगे
इस कार्यक्रम में तो तुमने
मुझे एक तरह से आइटम कवि बनाया।

यह सुनकर एंकर को गुस्सा आया।
वह बोली
‘काहे के कवि हो
पता है ब्लाग पर तुम्हारी
हास्य कविताऐं फ्लाप हो जाती है
मैंने भी पढ़ी
पर समझ में नहीं आती हैं।
आधी रात को प्रसारित होने वाले
इस कार्यक्रम के लिये
कोई आइटम नहीं मिल रहा था
इसलिये तुमको बड़ा कवि बताया।
यह चैनल कोई तुम्हारा मंच नहीं है
इस पर करोड़ों का खर्च आया।
फिर तुम्हें मालुम नहीं है कि
कमाई से ही होता है सम्मान
मैं अपने कार्यक्रम के लिये
इतना पैसा लेती हूं
तो प्रचार भी मुझे ही मिलेगा
तुम जैसे फोकट के कवि का चेहरा दिखाकर
हमारा नाम कार्यक्रमों की तुलनात्मक दौड़ में गिरेगा
कवि हो इतना भी नहीं जानते
महिलाओं से हिट्स होते हैं कार्यक्रम
तुम जैसे कवियों को लोग फालतू मानते
अब जाकर पी लेना
कैंटीन में काफी
वरना वह भी खत्म हो जायेगी
फिर न कहना पहले नहीं बताया।
तुम्हारे साक्षात्कार से
न तो कोई सनसनी फैलेगी,
न जमेगी हंसी की महफिल,
हमारी पब्लिक इसे कैसे झेलेगी,
पता करूंगी इस चैनल में
कौन उल्लू है
जो तुम्हें यहां ले आया।
......................................

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Saturday, August 29, 2009

कविता की शाम-हास्य कविता (evening of hindi poem-hasya kavita)

एक पुराने कवि ने
अपनी पहली कविता लिखने के दिवस को
साहित्यक पदार्पण दिवस के
रूप में मनाया।
ढेर सारे हिट और फ्लाप कवियों का
जमघट होटल में लगाया।
चला दौर जाम का
कविता के नाम का
सभी ने अपना ग्लास एक दूसरे से टकराया।

अकेले में एक फ्लाप कवि ने
उस कवि से पूछ लिया
‘आप तो पीते हो जाम
बातें करते हो आदर्श की सरेआम
भला या विरोधाभास कैसे दिख रहा है
लोग नहीं देखते यह सब
जबकि अपने नाम खूब कमाया।’

सुनकर वह पुराना कवि हंस पड़ा
और बोला-‘
‘अभी नये आये हो सब पता चल जायेगा
बिना पिये यह जाम
नहीं सज सकती कविता की शाम
जब तक हलक से न उतरे
देश में तरक्की की बात करने का
जज्बा नहीं आ सकता
एकता, अखंडता और जन कल्याण का
नारा कभी नहीं छा सकता
गला जब तर होता है तभी
ख्याल वहां पैदा होते हैं
आम लोग करते हैं वाह वाह
गहराई से चिंतन लिखने वाले
हमेशा ही असफल होकर रोते हैं
अंग्रेज अपनी संस्कृति के साथ
छोड़ गये यह बोतल भी यहां
आजादी की दीवानगी पर लिखने वाले भी
उनके गुलाम होकर विचरते यहां
पढ़ते लिखते नहीं धर्म की किताबें
उन भी हम बरस जाते
सारे धर्म छोड़कर इंसान धर्म मानने की
बात कहकर ऐसे ही नहीं हिट हो जाते
साथ में प्रगति के प्रतीक भी बन जाते
ओढ़े बैठे हैं जो धर्म की किताबों की चादर
उनको अंधविश्वासी बताकर जमाने से दूर हम हटाते
हमने जब भी बिताई अपनी शाम
कविता और साहित्य के नाम छलकाये
बस! इसी तरह जाम
कभी नहीं रखा धर्म से वास्ता
जाम से सराबोर नैतिकता का बनाया अपना ही रास्ता
ऐसे ही नहीं इतिहास में नाम दर्ज कराया।’

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hindi poem, hindi sher, shayri, vyangya kavita, मनोरंजन, शायरी, शेर, संदेश, हिंदी साहित्य

Tuesday, August 25, 2009

मजहब और बदलाव-हिंदी व्यंग्य कविता (dharm aur badlav-hindi shayri

बूढ़ी इमारतों की तरह खड़े हैं
उन्हें ढहाना जरूरी
लगता है
पर नया मजहब मत बनाओ।


प्यार और दया तो  इंसानी खून में होते हैं
तुम
अपने लफ्ज और लकीरें खींचकर
कोई नया पैगाम न लाओ।


भूख और प्यास कुदरत का
दिया तोहफा है
जो
इंसान को दुनियां घुमाता है
तुम उसे अपने कागज पर
तकलीफों की तरह न
सजाओ।


जरुरतों के गुलामों की जंजीरों को
सर्वशक्तिमान
नहीं तोड़ सकता
तुम भी ऐसा दावा न जताओ।


दूसरों से उधार लेकर सोच
तुम अपने ख्यालों के
चिराग जला रहे हो
जिंदगी एक बहता दरिया है
जिस पर कोई काबू नहीं कर
सकता
रास्ते बदल सको जमाने के
तुम अपनी ताकत ऐसी न बताओ।


गुस्से को सजाकर शायरी में सजाकर
वाह वाही
बटोरने वालों
जोश से कभी जिंदगी नहीं बदलती
भले ही दिल में बदलाव की चाहत
मचलती
नया मजहब लाकर
कोई दूसरा पैगाम सजाकर
दुनियां में बदला का ख्याल
अच्छा लगता है
पर हर सोच पर झगड़ा बढ़ता  है
जिदंगी को अपनी राह पर
अपनी गति
से चलने दो
सिखाओ लोगों को आंख से देखना
कान से सुनना
दिमाग से
सोचना
वरना तो सामने बैठे जो बैठे है
कुदरत के ऐसे बुत हैं
जो केवल वाह
वाही कर सकते हैं
या बजा सकते हैं तालियां
कुछ दे सकते हैं गालियां
पर
उनसे बदलाव की उम्मीद न लगाओ।
...........................



 


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Friday, August 21, 2009

विभाजन का यह सच भी हो सकता है-आलेख (truth of independent-hindi article)

1947 में देश के दो भागों-बाद में तीन भाग हो गये-में बंटने का मुद्दा अक्सर चर्चा का विषय बनता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे रटीरटाई बातें फिर दोहराई जा रही हैं। इतिहास के दर्ज तथ्यों का विश्लेषण कागजों में दर्ज और दृश्यव्य पात्रों के आधार सीमित दायरे में करना सभी के लिये आसान है पर अगर उससे अलग हटकर विचार करना हो तो बहुत मुश्किल होता है। इस लेखक के पूर्वजों ने उस विभाजन का दर्द भोगा है और उनसे समय समय पर हुई चर्चा में अनेक ऐसी बातें हैं जो अनेक बार दोहराई जा चुकी हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि कुछ ऐसा है जिस पर किसी विद्वान ने दृष्टिपात करने का प्रयास नहीं किया है। हम यहां थोड़ा दृश्यव्य पात्रों के पीछे जाकर देखने का प्रयास करें तो लगता है कि भारत के विभाजन में इस देश के लोग नहीं बल्कि ब्रिटेन के रणनीतिकारों की कुटिल चालें जिम्मेदार हैं। ऐसा लगता है कि इस देश में महात्मा गांधी के अलावा तो कोई ऐसा व्यक्ति न था जिसमें देश का विभाजन कराने या उसे रोकने का माद्दा था।
हम अपने भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन गाथा को जानते हैं। मगर दुर्भाग्य यह है कि हमने उनके कार्य और प्रभाव का आंकलन केवल स्वतंत्रता संग्राम तक ही सीमित करते हुए देखते हैं और इस बात को भूल जाते हैं कि हमारे देश की स्वतत्रंता के केवल हमें ही मतलब था अन्य किसी को नहीं-शेष विश्व के लिये तो महात्मा गांधी एक विराट व्यक्तित्व थे। महात्मा गांधी जैसे चरित्र विरले होते हैं और इस बात की पूरी संभावना थी कि अगर इस देश की आजादी और स्वरूप वही होता जैसा वह चाहते थे तो संभवतः वह विश्व में भगवान की तरह पुजते और उनके बैरी यही नहीं चाहते थे और विभाजन उनकी इसी कुटिल नीति का परिणाम था।
हम महात्मा गांधी के चरित्र और जीवन के विश्लेषण से पहले स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानियों को नमन करना नहीं भूल सकते। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकल्ला, उधम सिंह, वीर सावरकर सुभाषचंद्र बोस तथा अन्य कितने ही क्रांतिकारियों के नाम इतिहास में दर्ज हैं और उनकी भूमिका को कम आंकना गद्दारी करने जैसा है, मगर इतिहास हो या साहित्य उसे हमेशा ही अपनी रचना और पाठ के लिये एक शीर्षक की आवश्यकता होती है। अगर हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक प्राकृतिक पाठ माने तो उसके शीर्षक में महात्मा गांधी का नाम आता है। यह शीर्षक देने की बाध्यता है कि दक्षिण अफ्रीका में भी अनेक नेताओं ने बलिदान किये पर वहां शीर्षक पर नाम आया नेल्सन मंडेला का। हम भारतीय स्वतत्रंता संग्राम के शीर्ष पुरुष महात्मा गांधी को केवल देश की आजादी के परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं इसलिये हमारा ध्यान उन तथ्यों से हट जाता है जिसकी वजह से देश का विभाजन हुआ।
दक्षिण अफ्रीका में एक ट्रेन से यात्रा करते हुए एक भारतीय बैरिस्टर को इसलिये डिब्बे से उतारा गया क्योंकि वह अंग्रेजों के लिये सुरक्षित था। हां, यह जंग उसी दिन ही शुरु हुई और उसका समापन भारतीय विभाजन पर ही हुआ। वह बैरिस्टर थे महात्मा गांधी जिन्हें वह अपमान सहन नहीं हुआ। उसके बाद तो उन्होंने अफ्रीका में भेदभाव के खिलाफ आंदोलन शुरु किया। लोग इस आंदोलन का अब सही मतलब नहीं समझते। दरअसल सशस्त्र संघर्ष जीतने वाले अंग्रेजों के लिये महात्मा गांधी का अहिंसक संघर्ष कांटे चुभने जैसा था। उस समय अंग्रेज बहुत ताकतवर थे पर वह अपने आपको सभ्य, शिष्ट और नई दुनियां का जनक दिखने की उनकी ख्वाहिश सब जानते थे। हिंसा का प्रतिकार करने में उनका कोई सानी नहीं था पर जस की तस नीति अपनाते हुए इन अंग्रेजों के विरोधी भी हिंसा कर रहे थे। इन हिंसक आदोलनों और युद्धों को कुचलते हुए अंग्रेज विजय राह पर चलते जाते और फिर अपने चेहरे और चरित्र से सभ्य दिखने का प्रयास करते। अनेक देशों के समाजों के अंतद्वंद्वों में प्रवेश कर वह न्यायप्रिय दिखने का प्रयास करते। गोरे चेहरे की वजह से लोगों का उनके प्रति वैसे भी आकर्षण था।
अंग्रेजों को पास से देखने वाले श्री महात्मा गांधी इस बात को समझ गये और उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह का सहारा लिया। अंग्र्रेजों के पास इसका कोई जवाब कभी नहीं रहा। अगर वह महात्मा गांधी से हिंसक तरीके से निपटते तो उनके सभ्य होने की सारी पोल खुल जाती और नहीं निपटते तो उनका रथ बढ़ता ही जा रहा था। यह रथ केवल स्वतंत्रता प्राप्ति तक ही सीमित नहीं रहने वाला था क्योंकि इसके परिणाम एतिहासिक होने थे और संभव है कि वह विश्व के एक ऐसे मसीहा बन जाते जिसके आगे अंग्रेजों के इष्ट देव भी फीके नजर आते।
अंग्रेज हार रहे थे। भारत में राज्य करना उनके लिये आसान नहीं था। इसके अलावा द्वितीय विश्व युद्ध में महात्मा गांधी की सकारात्मक भूमिका ने आम अंगेे्रज के मन में उनके प्रति श्रद्धा भर दी थी। अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय लिया पर उनके रणपनीतिकारों के मन में महात्मा गांधी के प्रति बदले की भावना होने के साथ ही यह चिंता भी थी कि कहीं आगे चलकर उनके देश में महात्मा गांधी जी के स्मारक जगह जगह न बनने लगे।
भारत का विभाजन उनकी एक दूरगामी योजना का हिस्सा था और इसे केवल एक ही आदमी जानता था। वह थे स्वयं महात्मा गांधी। हम अगर उनके विचारों और कार्यों का अवलोकन करें तो यह सच सामने आता है कि इस धरती पर गोरों की चालाकियों का इलाज करने वाला एक ही चिकित्सक था ‘महात्मा गांधी‘।
गांधी जी विभाजन के लिये तैयार नहीं थे पर उनके आसपास अंग्रेज अपना जाल बुन चुके थे। शासन पर उनका बरसों से नियंत्रण था इसलिये उनके लोग हर जगह थे और यह कोई आसान काम नहीं था कि उसके सहारे वह आजादी के तत्काल बाद तक अपना हित पूरे करवा सकें। सच तो यह गुलामी के अंतिम दिनों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल महात्मा विरुद्ध अंग्रेज तक ही सीमित रह गया था और इसे उनके अलावा कोई नहीं जान पाया।
स्वतंत्रता संग्राम अंततः एक आंदोलन था और उसमें महात्मा गांधी के अलावा अन्य सैंकडों लोग थे। शायद उस समय एक नहीं हजारों लोग ऐसे थे जो आजादी पाने के लिये उतावले थे और ऐसे में महात्मा गांधी के लिये अकेले अपना निर्णय थोपना आसान नहीं रह गया था। उन्होंने अनिच्छा से विभाजन होने दिया मगर अंग्रेज इससे संतुष्ट नहीं होने वाले थे। उनका मुख्य ध्येय तो महात्मा गांधी से बदला लेना था। शासन में उनकी पैठ इतनी आसानी से समाप्त नहीं होने वाली थी। यही कारण है कि निचले स्तर पर उनके ही लोगों ने हिंसा का तांडव शुरु किया होगा-यह भी संभव है कि उन्होंने स्वयं हिंसा न कर हिंसक तत्वों को खुलेआम ऐसा करने की छूट दी होगी।
एक बात याद रखिये। अंग्रेजों का इष्ट देव भी गुलामों को आजादी दिलाने के कारण ही पूरे विश्व में पूजा जाता है ऐसे में इस बात की आशंका उनको रही होगी कि कहीं महात्मा गांधी उनकी जगह न लें। यही कारण है कि उन्होंने सोची समझी योजना के तहत इस हिंसा का आयोजन किया होगा। दरअसल उनका उद्देश्य भारत का विभाजन करने से अधिक उसकी आड़ में हिंसा कराना ही रहा होगा।
क्या यह विडंबना नहीं है कि जिन महात्मा गांधी ने अनेक बार अंग्रेजों की हिंसा के विरुद्ध सत्याग्रह किया वही आजादी के तत्काल बाद अपने ही लोगों के कुकृत्य के विरुद्ध उसी हथियार का सहारा ले रहे थे-याद रहे नोआखली में उन्होंने देश में हुई हिंसा के विरुद्ध सत्याग्रह किया था। दरअसल यह हिंसा देश की हार थी और अंग्रेज पूरे विश्व में यह संदेश देने में सफल हो गये थे कि महात्मा गांधी के संदेश को तो उनके लोग ही नहीं मानते। इसके अलावा चर्चिल भी कहा करते थे कि भारतीयों को राज्य करना नहीं आता-अंग्रेज उसे प्रमाणित करते हुए विजयी मुद्रा में इस देश से विदा हुए थे और यहां से जाने का दर्द इसी हिंसा को देखकर भुलाया था।
कुछ लोगों कहते हैं कि इसने विभाजन कराया या उसने जो कि उनका केवल भ्रम है। बाकी सारे पात्र तो केवल जाने अनजाने अंग्रेजों के अनुकूल अभिनय कर रहे थे। उस समय महात्मा गांधी के अलावा कोई ऐसा दमदार शख्स नहीं था जो उनको अपनी औकात दिखा सके।
यह इस पाठ के लेखक की अपनी सोच है और उसका आधार इस देश में समय समय पर योजनाबद्ध रूप से सामूहिक हिंसा हुई अनेक ऐसी घटनायें हैं जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह प्रवृत्ति अंग्रेजों की ही देन है। याद रखिये घटनाओं की तारीख, समय और पात्र बदल सकते हैं पर उनसे झांकती प्रवृत्तियां हमेशा यहां रहती हैं और समय समय पर प्रकट होती हैं।
इस पाठ की प्रेरणा भी एक दो घटना से नहीं मिली बल्कि अनेक अवसरों पर इस विषय पर होने वाली चर्चाओं के समय इस लेखक के मन में यह विचार आते हैं।
कहने को विश्व में अनेक नेता हुए हैं पर महात्मा गांधी जैसे विलक्षण व्यक्तित्व कभी कभी आते हैं। एक मजे की बात यह है कि अंग्रेज वर्तमान सभ्यता को अपनी ही देन समझते हैं और महात्मा गांधी का अहिंसा का मंत्र इसी सभ्यता में ही सर्वाधिक महत्व का है। अंग्रेजों को यह दर्द आज तक सताता है कि उनकी काट हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन जैसे सैन्य बल से संपन्न योद्धा नहीं ढूंढ पाये उसे एक काले बैरिस्टर ने ढूंढ निकाला। वह उस टीटी को कोसते होंगे जिसने उसे ट्रेन के डिब्बे से उतारा था। आखिरी बात यह है कि गांधीजी की अहिंसा और सत्याग्रह का मंत्र किसी भी आंदोलन को ताकत दे सकता है पर बशर्ते है कि उसके नेताओं में सब्र हो।
यह इस पाठ के लेखक की एक सोच है जो कई बरसों से दिमाग में घुमड़ रही थी जिसे आज व्यक्त कर दिया। एक मामूली लेखक के लिये इससे अधिक भूमिका होती भी नहीं है। हो सकता है कि इस सोच में कमी हो पर दृश्यव्य इतिहास के पीछे झांकने का प्रयास करना कोई सरल काम नहीं होता। इसमें मूर्खतायें हो जाना स्वाभाविक हैं।
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Sunday, August 9, 2009

चमड़ी हो या दमड़ी-हास्य कविता (chamdi ho damdi-hasya kavita)

स्वाईन फ्लू की बीमारी ने आते ही देश में प्रसिद्धि आई।
इतने इंतजार के बाद, आखिर शिकार ढूंढते विदेश से आई।।
ढेर सारी देसी बीमारियां पंक्तिबद्ध खड़ी होकर खड़ी थी
पर तब भी विदेश में बीमारी के नृत्य की खबरें यहां पर छाई।
देसी कुत्ता हो या बीमारी उसकी चर्चा में मजा नहीं आता
देसी खाने और दवा के स्वाद से नहीं होती उनको कमाई।।
महीनों से लेते रहे स्वाईन फ्लू का नाम बड़ी शिद्दत से
उससे तो फरिश्ता भी प्रकट हो जाता, यह तो बीमारी है भाई।।
करने लगे हैं लोग, देसी बीमारी का देसी दवा से इलाज
बड़ी मुश्किल से कोई बीमारी धंधा कराने विदेश से आई।।
कहैं दीपक बापू मजाक भी कितनी गंभीरता से होता है
चमड़ी हो या दमड़ी, सम्मान वही पायेगी जो विदेश से आई।।

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Thursday, August 6, 2009

स्वाइन फ्लू का इलाज-लघु हास्य व्यंग्य (swine flu ka ilaj-hasya vyangya)

उसने चैराहे पर मजमा लगा लिया।
‘आईये भद्रजनो, दुनियां की सबसे खतरनाक बीमारी ‘स्वाईन फ्लू’ का सही तरह से दलाज करने वाली दवाई खरीदे। यह विदेश से आयी है और इसकी दवा भी वहीं से खासतौर से मंगवाई है।’
लोगों की भीड़ जमा हो गयी। वह बोलता जा रहा था-‘यह बीमारी आ रही है। सभी एयरपोर्ट पर पहुंच गयी है। इसे रोकने की कितनी भी कोशिश करो। जब यहां पहुंचे जायेगी तब इसका मिलना मुश्किल होगी। पचास रुपये की शीशी खरीद लीजिये और निश्चित हो जाईये।’
एक दर्शक ने पूछा-‘तपेदिक की दवा हो तो मुझे दे दो! मुझे इस बीमारी ने परेशान किया है। बहुत इलाज करवाया पर कोई लाभ नहीं हुआ।’
‘हटो यहां से! क्या देशी बीमारियों का नाम लेते हो। अरे यह स्वाइन फ्लू खतरनाक विदेशी बीमारी है। तुम अभी इसे जानते नहीं हो।’ वह फिर भीड़ की तरह मुखातिब होकर बोला-हां! तो मैं कह रहा था.....................’’
इतने में दूसरा बोला-‘इसका नाम टीवी पर रोज सुन रहे हैं, पर मलेरिया का कोई इलाज हो तो बताओ। मेरे दोस्त को हो गयी है। वह भी इलाज के लिये परेशान है।’
वह बोला-‘हटो यहां से! देसी बीमारियों का मेरे सामने नाम मत लो।’

वह बोलता रहा। आखिर में उसने अपनी पेटी खोली। लोगों ने दवाई खरीदी। कुछ चलते बने। एक आदमी ने उत्सकुता से उससे पूछा-‘पर यह स्वाईन फ्लू बीमारी होती कैसे है और इसके लक्षण क्या हैं?
उसने कहा-‘पहले दवाई खरीद लो तो समझा देता हूं।’
उस आदमी ने पचास रुपये निकाल कर बढ़ाये और दवाई की शीशी हाथ में ली। उसने अपनी पेटी बंद की और चलने लगा। उस आदमी ने कहा-‘भई, मैंने इस बीमारी के बारे में पूछा था कि यह होती कैसे है और इसके लक्षण क्या हैं? उसका उत्तर तो देते जाओ।’
उसने कहा-‘जाकर टीवी पर सुन लेना। मेरा काम स्वाईन फ्लू की दवाई बेचना है। बीमारी का प्रचार करने का काम जिसका है वही करेंगे।’
वह चला गया और सवाल पूछने वाला आदमी कभी शीशी को कभी उसकी ओर देखता रहा।
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Sunday, August 2, 2009

शिकायतों का पुलिंदा-हिंदी मुक्त कविता (shikayat ka pulinda-hindi mukt kavita)

यादों में जो बसता है
उसका नाम जुबां से बयां कहां होता है।

दिलबर नजर से हो कितना भी दूर
उसके पास होने का हमेशा अहसास होता है

आंखों में बसा दिखता है यह पूरा जमाना
पर ख्याल में जो बसा, वही दिल के पास होता है।
..........................
तंगदिल साथी के साथ
जिंदगी का यह सफर
तन्हाई में गुजरता जाता है।

शिकायतों का पुलिंदा ढोते हैं साथ
उम्मीद नहीं है, चाहे पास है उसका हाथ
शिकायतों का बोझ दिल में लिये
कारवां राह पर, खामोशी से गुजरता जाता है।

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Saturday, August 1, 2009

झगड़ा जोरदार, खबर धारदार-हिन्दी लघुकथा (hindi laghu katha)

उससे कहा गया की वह बहुत दिन से कोई खबर नहीं लाया है और आज अगर आज कोई खास नहीं लाया तो उसकी नौकरी भी जा सकती है।
वह दफ्तर से कैमरा लेकर निकला और बाहर खडा हो गया. उसने वहाँ पास से गुजरते एक आदमी से पूछा-ष्तुम आस्तिक हो या नास्तिक? जो भी हो तो क्यों? बताओ मैं तुम्हारा बयान और चेहरा अपने कैमरे से सबको दिखा चाहता हूँ।
उस आदमी ने कहा-मैं आस्तिक हूँ और अभी मंदिर जा रहा हूँ। बाकी वहाँ से लौटकर बताऊंगा।

वह चला गया तो दूसरा आदमी वहाँ से गुजरा तो उसने वही प्रश्न उससे दोहराया। उसने जवाब दिया-श्मैं नास्तिक हूँ और अभी शराब पीने जा रहा हूँ। उसके कुछ पैग पीने के बाद ही बता पाऊंगा। तुम रुको मैं अभी आता हूँ।

वह अपना कैमरा लेकर टीवी टावर पर चढ़ गया। थोडी देर बाद दोनों लौटे। उसको न देखकर दोनों ने एक दूसरे से पूछाश्श्वह कैमरे वाला कहाँ है?
फिर दोनों का परिचय हुआ तो असली मुद्दा भी सामने आया। दोनों के बीच बहस शुरू हो गई और नौबत झगडे तक आ पहुची। दोनों अपनी कमीज की आस्तीन ऊपर कर झगडे की तैयारी कर रहे थे। उनके बीच गाली-गलौच सुनकर भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। उसमें से एक समझदार आदमी ने दोनों से पूछा ‘‘पहले यह बताओ की यह प्रश्न आया कहाँ से? किसने तुम्हें इस बहस में उलझाया।’’

दोनों इधर-उधर देखने लगे तब तक वह कैमरा लेकर नीचे उतर आया। दोनों ने उसकी तरफ इशारा किया। उसने दोनों से कहा-आप दोनों का धन्यवाद! मुझे मिल गयी आज की जोरदार खबर!’’

वह चला गया। दोनों हैरान होकर उसे देखने लगे। समझदार आदमी ने कहा-तुम दोनों भी घर जाओ और उसकी जोरदार खबर देखो। हम सबने यहां देख ली, तुम नहीं देख पाए यह जोरदार खबर, क्योंकि तुम दोनों आस्तिक-नास्तिक के झगडे में व्यस्त थे तो कहाँ से देखते। वैसे हम भी जा रहे हैं क्योंकि यह खबर दोबारा टीवी पर देखकर भी मजा आयेगा।’’
दोनों वहीं हतप्रभ खडे रहे और भीड़ के सब लोग वहाँ से चले गए अपने घर वह आज की जोरदार खबर देखने।
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Wednesday, July 29, 2009

खास आदमी बनने का मोह-हिंदी व्यंग्य (khas admi banne ka moh-hindi vyangya

सच तो यह है कि जिंदगी वही लोग मजे से गुजारते हैं जिनको पता है कि वह कभी खास आदमी नहीं बन पायेंगे। जो लोग खास बनने का ख्वाब पालते हैं वह अपनी पूरी जिंदगी जद्दोजेहद करते हैं। अब यह अलग बात है कि किसी को खास बनना नसीब होता है तो कुछ लोग केवल इस भ्रम में गुजार देते हैं कि वह ‘खास आदमी’ है। निश्चित रूप से यह लोग उस मध्यम वर्गीय परिवारों के होते हैं जो अंग्रेजी की गुलामी से सराबोर शिक्षा के साथ अपने पास उपलब्ध धन को विलासिता में खर्च करने का सामथ्र्य रखते हैं।
वैसे तो इस देश का पूरा शिक्षित समाज ही इसी गुलामी वाली शिक्षा पद्धति से संपन्न है पर इनमें भी कुछ लोग हैं जो यह मानकर चलते हैं कि वह एक आम परिवार में पैदा हुए हैं और उन्हें खास आदमी बनने के अवसर कभी प्राप्त नहीं होगा। ऐसे लोग अगर लेखक, पत्रकार,चित्रकार या किसी अन्य कला में पारंगत होते हैं तो एकदम सहजता से काम करते हुए चले जाते हैं। इसके विपरीत जो गुणीजन अपने अंदर आम परिवार के होने के बावजूद खास होने का सपना पालते हैं उनके लिये यह जिंदगी असहज और खतरनाक हो जाती है।
ऐसे अनेक लोग हैं जो पहले हिंदी फिल्मों में नायक, गायक, शायर बनने के लिये घर से भागे पर वहां जाकर उनको पता लगा कि ‘जीरो से हीरो’ बनने की कहानी तो केवल फिल्मों में दिखाई जाती है वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता। एक टीन का काम करने वाले दुकानदार का लड़का मुंबई भाग गया। कई दिनों के बाद वह घर लौटा और अपने बाप के काम में हाथ बंटाने लगा।
एक ने उसके बाप से पूछा-‘अच्छी बात है, लड़का मुंबई से लौट आया। इसे दुकान का काम सिखाओ। इसे समझाओ फिल्मों में ऐसे काम नहीं मिलता।’
इससे पहले बाप कुछ बोले वह लड़का स्वयं बोला-‘कैसे नहीं मिलता? मैं तो अभी ऐसे ही आया हूूं। वहा फिल्मों में काम करता हूूं। अभी छुट्टी लेकर आया हूं।’
वह आदमी भी फिल्म देखने का आदी था। उसने पूछा‘किस फिल्म में काम किया है? जरा बताओ तो सही।’
उसने फिल्म का नाम बताया तो वह आदमी चैंक गया और बोला-‘उसे तो मैं तीन बार देख चुका हूं। तुम्हारा चेहरा याद नही आ रहा।’
वह लड़का बोला-‘उस फिल्म में जब हीरो स्टेशन पर था तब उसके पास रेल कर्मचारी की नीली ड्रेस पहनकर मैं खड़ा रहा था। उसने मुझसे रास्ता पूछा मैंने उंगली उठाकर उसे बताया था।’
उस आदमी को याद आया। वह बोला-‘हां, पर उसमें तुम्हारा चेहरा शायद सीधे कैमरे की तरफ नहीं था। केवल एक सैकण्ड का दृश्य था। अरे, वह तो एक ऐसे ही रोल है जो मजदूरनुमा लोगों को दिया जाता है। दूसरी किसी फिल्म में भी काम किया है?’
उसने कहा-‘हां, पर वह अभी आनी है।’
वह लड़का कुछ दिन बाद फिर मुंबई गया। फिर लौट आया। वह न धंधे का रहा न फिल्म लाईन का! बचपन में उसे हमने देखा था और उसका यह प्रभाव हम पर पड़ा कि फिर खास आदमी बनने का मोह कभी नहीं रहा।
फिल्मी कहानियों में हीरो से जीरो बनने वाली कहानियां देखकर खूब आनंद उठाया पर कभी यह नहीं सोचा कि हम भी कभी खास आदमी बनेंगे।
समय के साथ हमारा यह विश्वास पक्का होता चला गया। वैसे आजकल की पीढ़ी के सदस्य अधिकतर समझदार हैं। लेखक, फिल्म, संगीत, साहित्य पत्रकारिता और समाज सेवा में भी आजकल वंश परंपरा चल पड़ी है। जड़ता को प्राप्त इस समाज मेें बहुत कम लोग यह मानकर चलते हैं कि उनको खास श्रेणी मिलेगी।
वैसे आम आदमी बने रहने के अलग मजे हैं। खास आदमी की श्रेणी पाना जहां लगभग असंभव है वहां आम आदमी बनकर ही मजे लिये जायें तो एक बहुत अच्छा है। ऐसे में खास लोगों की गंभीर क्रियायें भी हास्य का बोध कराती हैं। अगर आप चित्रकार, पत्रकार, लेखक या कलाकार हैं तो अपना काम करने के बाद आम आदमी की भीड़ में शामिल हो जाईये। अपने से कमतर लोगों की पूजा होते देख दुःखी मत होईये। हंसिये! जो पुज रहा है जो पूज रहा है दोनों के चेहरे पर कृत्रिम प्रसन्नता का भाव देखकर आप हंसे नहीं तो इसका मतलब यह है कि आप पर खास न होने का अफसोस राज्य कर रहा है। यह आपके स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। अपनी रचना-चित्र, साहित्य कृति या संगीत और स्वर से परिपूर्ण गीत-करने के बाद आप उसे भूल जाईये। उसे भीड़ में जाने दीजिये। लोगों को उसका मजाक उड़ाते हुए देखिये। यह मजाक उनके अंदर मौजूद कुंठाओं से पैदा होता है जो उनके स्वयं के असहाय होने को प्रमाण हैं।
जो खास नहीं बने उन पर तरस खायें पर जो खास हो गये उनको भी देखिये वह बिचारे बार बार इस प्रयास में रहते हैं कि लोग उनको खास समझते रहेें। आदमी उनको खास समझ रहा है पर उनको यह खौफ रहता है कि कहीं उनको लोग भूल न जायें। इस चक्कर में उलूलजुलूल हरकतें करते हैं।
उस दिन हमें एक सहधर्मी व्यंग्यकार मिल गये जो कि हमारे आलोचक भी हैं। हम पर फिकरे कसते रहते हैं और हम भी उनका पीछा नहीं छोड़ते क्यांेकि कई व्यंग्य तो उनसे ही उपहार में मिल जाते हैं। उस दिन वह स्कूटर रोककर एक दुकान से कंगा खरीद रहे थे। हम भी उसी बाजार में थे और उनको देख लिया और लपककर पहुंच गये। सोचा कि दो चार सुना लेगा तो क्या एक दो व्यंग्य का विषय भी तो दे जायेगा। हमें देखकर ही उसका मूंूह सूख गया।
‘यार, तुम्हें शर्म भी नहीं आती! चाहे जब सामने आ जाते हो।’ वह बोला।
हमने कहा-‘यार, इधर विषय का अकाल है। सोचा तुमसे एक दो व्यंग्य रचना ही मिल जाये। चलो तुमने एक हास्य कविता का विषय तो दे दिया।’
वह गुस्से में बोला-‘अरे, हास्य कवि! कितने कवि सम्मेलनों में जाता है? कभी तेरा नाम ही नहीं सुना। तू हमसे बराबरी मत कर। अभी रेडियो पर साक्षात्कार के लिये जा रहा हूं। फिर आकर तेरे से बात करूंगा।’
हमने पूछा-‘यह रेडियो पर साक्षात्कार पर जाने के कारण ही यह कंगा क्यों खरीद रहे हो? जेब में रखा करो। वैसे तुम्हारे सिर पर बाल इतने कम है कि हाथ से ही कंगी हो जाती। वैसे कौनसे रेडियो पर तुम्हारा साक्षात्कार आयेगा।’
वह बोला-‘नहीं बताऊंगा! तुम चालाक हो। मैंने उस दिन अखबार में तुम्हारा व्यंग्य पढ़ा था। तुमने मेरी बातों से ही व्यंग्य चुरा लिया था।’
हमने कहा-‘यह साक्षात्कार किस रेडियो पर आयेगा।’
वह बोला-‘नहीं बताऊंगा! तुम मेरे साक्षात्कार में बहुत सारी सामग्री व्यंग्य में परिवर्तित करोगे।’
हमने कहा-‘यार, हमारा भी साक्षात्कार प्रसारित करा दो। तुम हमारे मित्र हो!’
वह बोला-‘पहले तो मित्र कहकर मेरा अपमान मत करो! मैं तुम्हें कभी अपना मित्र नहीं समझता। मेरी बातों से व्यंग्य निकालकर लिखो और मित्र भी कहो-यह संभव नहीं है। फिर साल छह महीने में एकाध बार अखबार में छप जाने से कोई बड़े लेखक नहीं बन जाते।’
वह स्वयं भी कोई अधिक छपने वालों में नहीं है। हमारी तरह ही एक आम आदमी की तरह उसका जीवन है पर खास होने का मोह उससे नहीं छूटता। हालांकि वह कभी कभी ऐसी बात कर जाता है जो दिल को छू जाती है। हमने पूछा-‘तो कैसे बनते हैं बड़े लेखक!’
वह जोर से हंस पड़ा-‘अरे, यार अगर मुझे पता होता तो खुद ही नहीं बन जाता।’
उसके बाद वह सामान्य होकर हाथ मिलाते हुए वहां से चला गया। उसकी आखिरी बात हमें बहुत अच्छी लगी।
खास आदमी बनने का मोह छोड़ने के बाद आदमी स्वयं ही स्वतंत्र हो जाता है। उस पर किसी प्रकार का दबाव नहीं रहता। वरना तो किसी खास आदमी की चाटुकारिता और झूठी प्रशंसा करते रहो वह खास बनाने से रहा। वह तो केवल अपने लिये उपयोग करता है। यह अलग बात है कि कुछ खास लोगों का चमचा होना भी आजकल कोई कम उपलब्धि नहीं है। मगर यह भी सच है कि अपनी आत्मा को मारकर ही चाटुकारिता हो सकती है।
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Saturday, July 25, 2009

अंग्रेजी ब्लाग के बीच हिंदी ब्लाग क्या करेगा-आलेख (inglish and hindi blog-hindi article)

विलियम्स नाम के 43 वर्षीय उस मानवाधिकार कार्यकर्ता ने पता नहीं क्या सोचकर इस लेखक के हिंदी ब्लाग को अपने ब्लाग से लिंक कर लिया? उसने सुबह लिंक दिया था तब सोचा कि शायद जल्दबाजी में गलती कर गया होगा। फिर शाम को देखा तो उसका ईमेल टिप्पणी के रूप में देखा। इसका मतलब वह जानता है कि उस ब्लाग में क्या है! उसकी टिप्पणी से पता लग जाता है उसे इसके अध्यात्मिक ब्लाग होने का पता है। उसके ब्लाग पर अपना पाठ देखकर हैरानी हुई। आखिर उसके अंग्रेजी पाठक हिंदी का ब्लाग कैसे पढ़ेंगे? उसकी टिप्पणी नीचे लिखी हुई जिसका पूरा अर्थ देखने के लिये लेखक को भी डिक्शनरी देखनी होगी।
William मुझे
विवरण दिखाएँ ७:०२ am (1 दिन पहले) उत्तर दें
William has left a new comment on your post "भर्तृहरि नीति शतक-चमचागिरी से कोई लाभ नहीं होता (c...":
by the way, Deepak Bartdeep, I will remember to salt the meat for abdominal digestibility also. Just remember oh spiritual leader, human rights apply to you to!
Posted by William to दीपक भारतदीप की हिंदी एक्सप्रेस पत्रिका at 25 July, 2009


यकीनन उसे स्वयं भी हिंदी नहीं आती होगी। उसने जरूर अनुवाद टूल के सहारे उसे पढ़ा है और उसे लगा कि शायद यह ब्लाग भी उसका आवागमन बढ़ाने में सहायक होगा या संभव है कि वह कोई मानवाधिकारों से संबंधित कोई लक्ष्य लेकर बढ़ रहा हो। यह मानना गलत होगा कि वह अंग्रेजी का ब्लाग लेखक है तो उसके पास पाठकों आवगमन अधिक होगा क्योंकि लगातार यह बातें आती रहती हैं कि अनेक ब्लागों को पढ़ने वाला एक ही आदमी है। बहरहाल यह दिलचस्प है कि अंग्रेजी और अंग्रेजों के बीच हिंदी अपनी जगह बनाने का प्रयास कर रही है। इस विषय में एक हिंदी ब्लाग लेखक ने एक दूसरे लेखक के ब्लाग पर यह टिप्पणी की थी कि ‘हिंदी नई भाषा है इसलिये यह आगे निश्चित रूप से बढ़ेगी’। वह शायद भूल गये होंगे पर इस लेखक को याद है।
एक अंग्रेजी ब्लाग लेखक द्वारा हिंदी ब्लाग को लिंक करना कोई बड़ी बात नहीं है पर इस बात का संकेत तो है कि भाषा और लिपि की दीवारें अब कमजोर हो रही है। इस लेखक का यह चैथा ब्लाग है जिसे किसी अन्य भाषा के ब्लाग ने लिंक किया है। तीन अरेबिक लिपि के हैं पर भाषा का पता नहीं है। अलबत्ता वह सभी वर्डप्रेस के हैं इसलिये अधिक विचारणीय नहीं लगता पर यह ब्लाग स्पाट का पहला ब्लाग है जिसे किसी अंग्रेजी ब्लाग लेखक ने लिंक दिया है। ऐसा लगता है कि उस ब्लाग लेखक ने यह उम्मीद की होगी कि अनुवाद टूलों के सहारे उसके पाठक हिंदी भी पढ़ लेंगे। यह भी संभव है कि वह इसी आशा के सहारे हिंदी में भी पाठक ढूंढना चाहता हो।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भविष्य में ब्लाग लेखन पूरे विश्व में एक महत्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभाने वाले हैं। अनेक सामाजिक और धार्मिक आंदोलनों का जन्म इन्हीं ब्लाग लेखकों के मध्य से होगा। भाषा और लिपि की दीवारें गिरी तो कई ऐसे भ्रमों और मिथकों का ढहना भी तय है कि जो उनके सहारे टिके हुए हैं। ऐसे में हिंदी की अध्यात्मिक शक्ति ही है जो भाषा को बचाये रख सकती है।
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Friday, July 24, 2009

आयु के साथ तय होता है मनोरंजन का स्वरूप-आलेख (age fector and enternment-hindi article)

वह कौनसी संस्कृति और संस्कार है जिसके नष्ट होने का खतरा पैदा हो गया है जिसे बचाने के लिये इतने सारे बुद्धिजीवी लगे हुए हैं। सविता भाभी नाम की वेबसाईट और सच का सामना नाम का एक धारावाहिक इतने खतरनाक नहीं हो सकते कि वह भारतीय संस्कृति को नष्ट कर दें। भारतीयों की ताकत उनका ध्यान है जो वह अध्यात्मिक ज्ञान से अर्जित करते हैं। भारत के प्राचीन ग्रंथों में कहीं इसकी चर्चा नहीं है कि जुआ, अश्लीलता या यौन विषयों पर प्रतिबंध लगाया जाये।
हमारे प्राचीन ग्रंथ आत्मनियंत्रण का संदेश देते हैं पर यह अपेक्षा नहीं करते कि राज्य इसके लिये कार्यवाही करे। इन्हीं ग्रंथों में योग साधन, प्राणायम, ध्यान और मंत्रों की विधियां बतायी गयी हैं जिनसे शरीर और मन पर नियंत्रण रखा जा सकता है। इस देश के अधिकतर लोग आत्मनिंयत्रण के द्वारा ही जीवन व्यतीत करते हैं और इसी कारण ही भारतीय समाज विश्व का सबसे योग्य समाज भी माना जाता है। तीन प्रकार की प्रवृत्तियों के लोग-सात्विक, राजस और तामस-इस धरती पर हमेशा रहेंगे यह बात बिल्कुल स्पष्ट है। आचार विचार, रहन सहन, और खान पान के आधार आदमी की प्रवृत्तियां निर्धारित करती हैं और वह इन्हीं से पहचाना भी जाता है।
आदमी के अपराधों से निपटने का काम राज्य का है और सामान्य आदमी को स्वयं पर ही नियंत्रण रखना चाहिये। दूसरा व्यक्ति क्या कर रहा है या कह रहा है इससे अधिक आदमी अगर स्वयं पर ध्यान दे तो अच्छा है-यह हमारे ग्रंथों का स्पष्ट मत है।

समाज को संभालने का काम गुरु करें यह भी स्पष्ट मत है। फिर फिल्मों, धारावाहिकों, किताबों और वेबसाईटों का प्रभाव हमेशा क्षणिक रहता है उनमें इतनी ताकत नहीं है कि वह पूरा समाज बिगाड़ सकें-कम से कम भारतीय समाज इतना कमजोर नहीं है। यह समाज जीवन के सत्य और रहस्यों को जानता है जो समय समय पर महापुरुष इसे बता गये हैं। इसके बावजूद इस समाज को कमजोर मानने वाले भ्रम में हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह भ्रम उस बौद्धिक समाज को है जो शरीरिक श्रम से परे है। शारीरिक से परे आदमी को भय, आशांकायें और संदेह हमेशा घेरे रहते हैं। यही चंद लोग ऐसी फिल्मों, वेबसाईटों,धारवाहिकों और साहित्य से चिपका रहता है जो आदमी के मन में पहले सुख और बाद में संताप पैदा करता है। जो श्रम करने वाले लोग हैं ऐसा वैसा सब देखकर भूल जाते हैं पर बुद्धिजीवियों के चिंतन की सुई वहीं अटकी रहती है-यह तय करने में कि समाज इससे बिगड़ेगा कि बनेगा!
खासतौर से जिनकी उम्र बढ़ी हो गयी है या फिर जिनको समाज सुधारने का ठेका मिल गया है वह ऐसे सभी स्तोत्रों पर पर प्रतिबंध की मांग करते हैं जिनसे युवा मन विचलित होने की आशंका रहती है।

यह समस्या तो पूरे समाज में है। हर बुढ़े को आजकल के युवा असंयमित दिखते हैं तो हर बुढ़िया को युवती अहंकारी नजर आती है। बुढ़ापे में आदमी का अहंकार अधिक बढ़ जाता है और वह पुजना चाहता है। हम बरसों से सुन रहे हैं कि ‘जमाना बिगड़ गया है।’ हम छोटे थे तो समझते थे कि ‘वास्तव में जमाना बिगड़ गया होगा। अब देखते हैं तो सोचते हैं कि जमाना ठीक कब था। कहते हैं कि घोर कलियुग है पर बताईये सतयुग कब था? रावण त्रेतायुग में हुआ और कंस द्वापर में हुआ। अगर वह युग ठीक था तो फिर उनमें ऐसे दुराचारी कहां से आ गये? कुछ लोग कहते हैं कि उस समय आम आदमी में धर्म की भावना अधिक थी। अब क्या कम है? आम आदमी तो आज भी भला है-उसकी चर्चा अधिक नहीं होती यह अलग बात है। फिर आजकल के प्रचार माध्यम सनसनी फैलाने के लिये खलपात्रों में ही अच्छाई ढूंढते नजर आते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बुढ़ापे में जमाना सभी को भ्रष्ट नजर आता है।
जहां तक यौन और अश्लील साहित्य का सवाल है तो वह चालीस सालों से हम बिकते देख रहे हैं। वह बिकता भी खूब था। अनेक लोग पढ़ते थे पर फिर भी चालीस सालों में ऐसा नहीं लगता कि उससे जमाना बिगड़ गया। उम्र के हिसाब से आदमी चलता है। अनेक युवाओं ने ऐसा साहित्य पढ़ा पर अब उनमें से कई ऐसे भी हैं जो मंदिरों में दर्शन करने के लिये जाते हैं। युवा मन हिलोंरे मारता है। वह ऐसा देखना चाहता है जो नया हो। उस समय हर कोई हर युवा अपने हमउम्र विपरीत लैंगिक संपर्क बढ़ाना चाहता है। युवावस्था में विवाह होने पर जीवन साथी के प्रति दैहिक आकर्षण चरम पर पहुंच जाता है। समय के साथ वह कम होता जाता है पर प्रेम यथावत रहता है क्योंकि मन में तब एक स्वाभाविक प्रेम की ग्रंथि है जो एक दूसरे को बांधे रहती है। यह व्यक्तिगत संपर्क कभी समाज के लिये देखने की चीज नहीं होता बल्कि सभी लोग अपनी बात ढंके रहते हैं पर दूसरे के घर में झांकने की उनके अंदर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो हर मनुष्य मनोरंजन पैदा करती है।
आदमी में मन है तो उसे मनोरंजन की आवश्यकता होती है। मनोरंजन का स्वरूप आयु के अनुसार तय होता है। युवावस्था में यौन विषय नवीनतम और आकर्षक लगता है तो अधेड़ावस्था में दौलत और शौहरत का नशा चढ़ जाता है। बुढ़ापे में जब शरीर के अंग शिथिल होते हैं तब सम्मान पाने का लोभ आदमी में पैदा होता है। ऐसे में आदमी दूसरे की निंदा और आत्मप्रवंचना कर अपने आपको दिलासा देता है कि वह अपना सम्मान बढ़ा रहा है। ऐसे मेें युवाओं के मनोरंजन के साधन उनको भारी तकलीफ देते हैं भले ही अपनी युवावस्था में वह भी उनमें लिप्त रहे हों।

कहने का तात्पर्य यह है कि अगर कोई व्यक्ति या समूह किसी दूसरे को हानि नहीं पहुंचा रहा है तो उसे अपनी आयु के अनुसार मनोरंजन प्राप्त करने का अधिकार है। यह समाज की एक सहज प्रक्रिया होना चाहिये। युवाओं के मन को किस प्रकार का मनोरंजन चाहिये यह तय करने का अधिकार उनको है न कि अधेड़ और बूूढ़े इसका निर्धारण करें। यहां यह भी याद रखने लायक बात है कि बड़ी आयु के लोग ही छोटी आयु के लोगों में संस्कार भरने का प्रयास करते हैं। इसलिये गुरु भी कहलाते हैं। यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह उनकी मन के पर्वत को मजबूत बनायें जिससे निकलने वाली मनोरंजन की नदी विषाक्त न हो भले ही वह यौन साहित्य वाले शहर से निकलती हो। इसकी बजाय उनको जबरन रोकने की चाहत एक मजाक ही है। सच तो यह है कि कभी कभी तो यह लगता है कि कुछ उत्पाद इसलिये ही लोकप्रिय हो जाते हैं कि उनका विरोध अधिक होता है। यह विरोध प्रायोजित लगता है। वेबसाईट पर प्रतिबंध और धारावाहिक के विरोध के बाद उनकी सार्वजनिक चर्चा अधिक होना इस बात का संदेह भी पैदा करती है। इस तरह के विरोध युवाओं की तरफ से नहीं होते जो इस बात का प्रमाण है कि वह उनके लिये मनोरंजन का साधन हैं पर वह इससे विचलित हो जायेंगे यह भी नहीं सोचना चाहिये। चलते रहना इस दुनियां का नियम है।
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Sunday, July 19, 2009

भले होने का प्रमाण पत्र-हिंदी व्यंग्य कविता (certificat of good men-hindi vyangya kavita)

उसने पूछा
‘क्या तुम बुरे आदमी हो‘
जवाब मिला
‘कभी अपने काम से
कुछ सोचने का अवसर ही नहीं मिला
इसलिये कहना मुश्किल है
कभी इस बारे में सोचा ही नहीं।’

फिर उसने पूछा
‘क्या तुम अच्छे आदमी हो?’
जवाब मिला
‘यह आजमाने का भी
अवसर नहीं आया
पूरा जीवन अपने स्वार्थ में बिताया
कभी किसी ने मदद के लिये
आगे हाथ नहीं बढ़ाया
कोई बढ़ाता हाथ
तो पता नहीं मदद करता कि नहीं!’’
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अपने भले होने का प्रमाण
कहां से हम लाते
ऐसी कोई जगह नहीं है
जहां से जुटाते।
शक के दायरे में जमाना है
इसलिये हम भी उसमें आते।
सोचते हैं कि
हवा के रुख की तरफ ही चलते जायें
कोई तारीफ करे या नहीं
जहां कसीदे पढ़ेगा कोई हमारे लिये
वह कोई चिढ़ भी जायेगा
अपने ही अमन में खलल आयेगा
इसलिये खामोशी से चलते जाते।

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Wednesday, July 15, 2009

दिखाने के लिये दोस्त कहा जाता है-हिंदी शायरी (dost-hindi shayri)


बेसुरा वह गाने लगे।
किसी के समझ न आये
ऐसे शब्द गुनगनाने लगे।
फिर भी बजी जोरदार तालियां
मन में लोग बक रहे थे गालियां
आकाओं ने जुटाई थी किराये की भीड़
अपनी महफिल सजाने के लिये
इसलिये लोगों ने अपने मूंह सिल लिये
पहले हाथों से चुकाई ताली बजाकर कीमत
दाम में पाया खाना फिर खाने लगे।
...........................
कमअक्ल दोस्त से
अक्लमंद दुश्मन भला
ऐसे ही नहीं कहा जाता है।
दुश्मन पर रहती है नजर हमेशा
दोस्त का पीठ पर वार करना
ऐसे ही नहीं सहा जाता है।
जमाने में खंजर लिये घूम रहा है हर कोई
अकेले भी तो रहा नहीं जाता है
इसलिये दिखाने के लिये
बहुत से लोगों को दोस्त कहा जाता है।

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Friday, July 10, 2009

गुजरात में जहरीली शराब से हुआ हादसा दर्दनाक-आलेख (gujarat men jaharili sharab-hindi article)

गुजरात भारत के संपन्न प्रदेशों में माना जाता है। वहां की औद्योगिक और सामाजिक प्रगति भारत देश की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली है। गुजरात में शराब पर प्रतिबंध है। यह लेखक कभी गुजरात नहीं गया इसलिये पता नहीं कि शराब बेचने पर ही प्रतिबंध है या खरीदने पर भी। वैसे अगर प्रतिबंध का आशय माना जाये तो यह दोनों पर ही होना चाहिये।
इधर वहां के बारे में दो खबरें टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में देखने को मिली। एक तो ताजा है जिसमेें जहरीली शराब पीने से अनेक लोगों की मृत्यु हो गयी। कुछ दिन पहले एक खबर देखने को मिली थी जिसमें भीड़ ने रेल में शराब की बोतलें तस्करी कर गुजरात लाये जाने का विरोध करते हुए उनको तोड़ डाला। जिस तरह बोतलों का झुंड देखा उससे तो यह देखकर लगता था कि वह छुपाकर नहीं लायी जा रही थी।
गुजरात का समाज आर्थिक, सामाजिक और दृष्टि से अन्य राज्यों से कुछ अधिक शक्तिशाली हो सकता है पर भिन्न नहीं है। पूरे भारत में पश्चिमी सभ्यता ने प्रभाव डाला है और गुजरात उससे अछूता होगा यह कहना कठिन है। फिर हिंदी फिल्मों ने आदतों, रहन सहन, चाल चलन और चिंतन के विषय में पूरे देश मेें एक साम्यता ला दी है और यह संभव नहीं है कि गुजरात पर उसका प्रभाव न पड़ा हो। कहने कहा तात्पर्य यह है कि शादी और पर्वों पर जिस तरह अन्य प्रदेशों में लोग शराब पीकर जश्न मनाते हैं गुजरात के लोग सूखे रहें यह संभव नहीं लगता। इसका आशय यह है कि शराब पर प्रतिबंध केवल नाम का ही रहा होगा। शराब पर प्रतिबंध से सीधा आशय तो यही होना चाहिये कि वहां इसका व्यवसाय ही न हो-न खरीदना न बेचना-पर जिस तरह यह दोनों घटनायें देखने को मिली उससे तो नहीं लगता कि वहां शराब अन्य प्रदेशों से अनुपात में कम उपलब्ध होगी।
शायद गुजरात देश का पहला एकमात्र प्रदेश है जहां शराब पर प्रतिबंध है। इसका कारण यह है कि भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी वहीं के थे और वह शराब के विरोधी थे। कहने को तो वह पूरे राष्ट्र के पिता थे पर जब शराब की बात आई तो उनका सम्मान केवल गुजरात तक ही सिमट गया।
महात्मा गांधी शराब के विरोधी थे पर क्या वह इस तरह प्रतिबंध के समर्थक भी थे इसकी जानकारी तो इस लेखक को नहीं है। मुद्दे की बात यह है कि शराब पर पूरी तरह प्रतिबंध संभव नहीं है। अगर आप अंग्रेजी शराब पर प्रतिबंध भी लगायें पर देश के कई ऐसे आदिवासी और जनजातीय समुदाय हैं जो शराब का सेवन धार्मिक अवसरों प्रसाद की तरह करते हैं और उनको रोका नहीं जा सकता। आदिवासी और जनजातीय समुदाय को अपनी शराब बनाकर पीने की शायद किसी सीमा तक कानूनी छूट भी है।
महात्मा गांधी ने शराब का विरोध जिस समय प्रारंभ किया था उस समय आधुनिक धनी और मध्यम वर्गीय लोग शराब का सेवन गंदी आदत की तरह मानते थे। महात्मा गांधी ने दादाभाई नौरोजी के आग्रह पर तत्काल स्वाधीनता संग्राम प्रारंभ करने से पहले दो वर्ष तक देश का दौरा किया तो यह पाया कि जिस तबके के सहारे वह आजादी की जंग लड़ना चाहते हैं वह आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से निम्न स्तर पर खड़ा है और उसके उद्धार के बिना आजादी मिल जाये तो भी वह निरर्थक होगी। गरीब और निम्न वर्ग के संकट का सबसे बड़ा कारण शराब ही है-यह आभास उनको हो गया था। यही कारण है कि उन्होंने शराब का विरोध किया।
अब समय बदल गया है। शराब अब धनी, आधुनिक और सभ्य होने के तौर पर उपयोग की जाने लगी है। ऐसे में गुजरात में लोग पूरी तरह से शराब का सेवन न करे यह संभव नहीं लगता। फिर वहां अन्य प्रदेशों से भी लोग कामकाज की तलाश में गये हैं और उनमें अनेक लोग शराब के मामले में स्वयं पर प्रतिबंध लगायें यह संभव नहीं है। इधर जहरीली शराब की घटना ने वाकई देश को हिलाने के साथ चैंका भी दिया है।
हम यह मानते हैं कि शराब बहुत बुरी चीज है। इससे आर्थिक और शारीरिक हानि तो होती है मानसिक रूप से भी आदमी पंगु हो जाता है। मगर सवाल यह है कि इसके लिये लोगों को समझाने के लिये सामाजिक संगठनों को सक्रिय होना चाहिये कि जबरन प्रतिबंध लगाकर उसे अधिक संकटपूर्ण बनाया जाये। अनेक सामाजिक विद्वानों का मानना है कि जिस किसी समाज को किसी चीज के उपयोग करने से जबरदस्ती रोका जाये तो लोगों के मन में उसके प्रति रुझान अधिक बढ़ने लगता है। जहरीली शराब पीने से जितने लोग मरे हैं उससे तो लगता है कि वहां बड़े पैमाने पर उसका व्यवसाय होता है। शराब और खाना जहरीला होने से लोगों के मरने और बीमार पड़ने की घटनायें अत्यंत दारुण होती है। यह घटना अगर कहीं अन्य होती तो शायद इसको लोग अधिक महत्व नहीं देते क्योंकि अन्यत्र शराब पर प्रतिबंध नहीं है। इस घटना से पीड़ित लोगों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए हम यही आशा करते हैं कि वह जल्दी इस हादसे से उबर कर आयें।
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Monday, July 6, 2009

समाजों का अंतर्द्वंद्व और अंतर्जाल-आलेख (hindi article)

यहां हम इस मुद्दे पर चर्चा नहीं करने जा रहे कि किसी अश्लील वेबसाईट पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये या नहीं और न ही इसके देखने या न देखने के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं बल्कि हमारा मुख्य ध्येय है यह है कि हम समाज के उस अंतद्वंद्व को देखें जिस पर किसी अन्य की नजर नहीं जा रही। यहां हम चीन और भारतीय समाजों को केंद्र बिंदु में रखकर यह चर्चा कर रहे हैं जहां इस तरह की अश्लील वेबसाईटों पर प्रतिबंध लगाने की चर्चा है। भारत में तो केवल एक ही वेबसाईट पर रोक लगी है-जिसके बारे में अंतर्जाल के लेखक कह रहे हैं कि यह तो समंदर से बूंद निकलाने के बराबर है-पर चीन तो सारी की सारी वेबसाईटों के पीछे पड़ गया है।

कुछ दिनों पहले तक कथित समाज विशेषज्ञ चीन के मुकाबले दो कारणों से पिछड़ा बताते थे। एक तो वहां औसत में कंप्यूटर भारत से अधिक उपलब्ध हैं दूसरा वहां इंटरनेट पर भी लोगों की सक्रियता अधिक है। इन दोनों की उपलब्धता अगर विकास का प्रमाण है तो दूसरा यह भी सच है कि अंतर्जाल पर इन्हीं यौन साहित्य और सामग्री से सुसज्जित वेबसाईटों ने ही अधिक प्रयोक्ता बनाने के लिये इसमें योगदान दिया है। अंतर्जाल ने शिक्षा, साहित्य, व्यापार तथा आपसी संपर्क बढ़ाने मे जो योगदान दिया है उससे कोई इंकार नहीं कर सकता पर सवाल यह भी कि ऐसे सात्विक उद्देश्य की पूर्ति कितने प्रयोक्ता कर रहे हैं? यह लेखक ढाई वर्ष से इस अंतर्जाल को निकटता से देख रहा है और उसका यह अनुभव रहा है कि भारत में प्रयोक्ताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग केवल मनोरंजन के लिये इसे ले रहा है। इससे भी आगे यह कहें कि वह असाधारण मनोरंजन की चाहत इससे पूरी करना चाहता है। जिस तरह चीन सरकार आक्रामक हो उठी है तो उससे तो यही लगता है कि वहां भी इसी तरह का ही समाज है।
अनेक ब्लाग लेखकों ने यह बताया है कि यौन सामग्री वाली वेबसाईटों में ढेर सारी कमाई है और यह इतनी है कि गूगल और याहू जैसी कंपनियों के लिये भी कल्पनातीत है। कोई वेबसाईट दस माह में ही इतनी प्रसिद्ध हो जाती है कि उस पर प्रतिबंध लग जाता है। इसमें समाज के बिगड़ने की चिंता के साथ आर्थिक पक्ष भी हो सकता है। एक आश्चर्य की बात यह है कि दस माह में कोई वेबसाईट इतनी लोकप्रिय कैसे हो जाती है? निश्चित रूप से चीन ने अपने देश की बहुत बड़ी राशि बाहर जाने से रोकने के लिये ही ऐसा किया होगा। उसे रोकने के लिये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास हो रहे हैं जो कि इस बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं इन प्रतिबंधों के पीछे आर्थिक कारण भी है।
भारत और चीनी समाज में बहुत सारी समानतायें हैं। अंतर है बस इतना कि यहां वेबसाईट पर प्रतिबंधों का विरोध मुखर ढंग से किया जा सकता है पर वहां यह संभव नहीं है। वैसे दोनों ही समाजों में बूढ़ों को सम्मान से देखा जाता है और यही कारण है कि समाज पर नियंत्रण के लिये उनकी राय ली जाती है। समस्या यह है आदमी जब युवा होता है तब वह यौन साहित्य छिपकर पढ़ाा है पर बूढ़ा होने पर युवाओं को पढ़ने से रोकना चाहता है। यही दोनों समाजों की समस्या भी है। इसके अलावा सभी चाहते हैं कि वह पश्चिम द्वारा बनाये आधुनिक साधनों का उपयोग तो करें पर उसके रहन सहन की शैली और नियम न अपनायें। सभी लोग भौतिक परिलब्धियों के पीछे अंधाधुंध भाग रहे पर चाहते हैं कि देश की संस्कृति और स्वरूप की रक्षा सरकार करे।
इसमें एक मजेदार विरोधाभास दिखाई देता है। भारत और चीन के समाजों में माता, पिता, गुरु और धर्म चारों ही हमेशा संस्कृति और संस्कार का आधार स्तंभ माना जाते हैं। माता को तो प्रथम गुरु माना जाता है जो बच्चे में संस्कार और संस्कृति के बीच बोती है। गुरुपूर्णिमा हमारे यहां मनायी जाती है पर अब पश्चिमी प्रभाव से माता पिता दिवस भी मनाने लगे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब हम संस्कृति के लड़खड़ाने की बात करते हैं तो क्या हमारा यह आशय है कि हमारे यह चारों स्तंभ अब काम नहीं करे रहे? अगर कर रहे हैं तो फिर युवाओं के बिगड़ने का भय क्यों सता रहा है? अगर नहीं कर रहे हैं तो फिर संस्कृति को बचाने की जरूरत ही क्या है?
सीधी बात तो यह है कि हम पश्चिमी साधनों को तो हासिल कर लेते हैं पर उसके उपयोग के नियमों को नहीं अपनाना चाहते। कंप्यूटर सभी जगह अपनाना जा रहा है पर उस पर काम करने के कायदे कहीं लागू नहीं है। कंप्यूटर अधिक काम करता है पर चलाता तो आदमी ही है न! मगर उसे भी कंप्यूटर मानकर उससे कैसे काम लिया जाता है? यह कौन देख रहा है? यही हालत हवाई जहाज की है। उसे उड़ाने वाले पायलटों का नियम से कितना चलाया जाता है? यह अलग से बहस का विषय है।
हम चलना तो चाहते हैं कि पश्चिम की खुले समाज की अवधारणा की राह पर अपनी शर्तों के साथ। हम कंप्यूटर और अंतर्जाल प्रयोक्ताओं की अधिक संख्या को विकास का प्रतीक मानकर चर्चा करते हैं पर क्या यह सच नहीं है कि लोगों के यौन साहित्य पढ़ने और देखने की ललक ही इसके लिये अधिक जिम्मेदार है। सही आंकड़े तो इस लेखक के पास नहीं है पर अनुमान से यह कह सकता है कि चीन ने यौन सामग्री की वेबसाईटों को अगर प्रभावपूर्ण ढंग से लागू किया तो यकीनन उसका इन दोनों मामलों में ग्राफ नीचे गिर सकता है। शिक्षा, साहित्य सृजन, रचनात्मक कार्य, आपसी संपर्क और व्यापार में इंटरनेट की अहम भूमिका है पर क्या उसके प्रयोक्ताओं के दम पर ही इतना बड़ा अंतर्जाल चल सकता है? यह विशेषज्ञों को देखना होगा।
हम अंतर्जाल के प्रयोक्ताओं को यह समझा सकते हैं कि टीवी, अखबार, बाहर मिलने वाली किताबों और सीडी आदि से जो काम चल सकता है उसके लिये यहंा आंखें न फोड़कर अपनी सात्विक जिज्ञासाओं के लिये इसका उपयोग करे। इसके लिये इंटरनेट और टेलीफोन कंपनियों को प्रयास कर ऐसे लोगों को सहायता करनी होगी जो अपने रचनात्मक भूमिका से समाज के युवकों के मन में सात्विक जिज्ञासायें जगाये रख सकते हैं। यह काम कम से कम समाजों के वर्तमान शिखर पुरुषों का बूते का तो नहीं लगता जो उनके नेतृत्व करने का दावा तो करते हैं पर जब नियंत्रण की बात आती है तो वह लट्ठ और नियम के आसरे बैठ कर अपने मूंह से शब्दों की जुगाली करते हैं। समाज के नये संत तो अब वही बन सकते हैं जो इंटरनेट पर रचनात्मक काम करते हुए युवा पीढ़ी में सात्विक जिज्ञासा और इच्छा उत्पन्न कर सकते हैं-वह कोई पुराना धार्मिक या सामाजिक चोला पहनने वालों हों यह जरूरी नहीं है। हो सकता है कि यौन सामग्री और साहित्य प्रस्तुत करने वाली वेबसाईटों से इंटरनेट और टेलीफोन कंपनियां इसलिये भी खुश हों कि वह उनके लिये प्रयोक्ता जुटा रही हैं पर इससे उनका भविष्य सुरक्षित नहीं हो जायेगा। जिस तरह आदमी समाचार पत्र पत्रिकाओं, किताबों, टीवी चैनलों और फिल्मों की यौन सामग्री से बोर होकर अंतर्जाल पर सक्रिय हो रहा है तो आगे उसमें वैसी विरक्ति भी आ सकती है। संभव है अन्य प्रचार माध्यम अपने यहां कुछ नया करें कि अंतर्जाल को प्रयोक्ता इसे छोड़कर वहां चला जाये। क्या यह दिलचस्प नहीं है कि हर मुद्दे को उठाकर सनसनी फैलाने और आजादी की दुहाई देने वाले टीवी चैनल और अखबार एक वेबसाईट पर प्रतिबंध लगने की तरफ से उदासीन हो गये हैं। उन्हें डर रहा होगा कि कहीं उस वेबसाईट का नाम लें तो उनका उपभोक्ता उसकी तरफ न चला जाये।
इंटरनेट में रचनात्मक काम, संवाद प्रेषण, साहित्य सृजन और व्यापार की संभावनायें और इस पर ही अधिक काम किया जाये तो इसमें निरंतरता बनी रहेगी। वेबसाईटों पर प्रतिबंध के क्या परिणाम है यह तो पता नहीं मगर यह बात निश्चित है कि पश्चिम में भी अंतर्जाल के विकास में इन्हीं यौन साहित्य और सामग्री से सुसज्तित वेबसाईटों को योगदान रहा है। कुछ लोग कह रहे हैं कि पश्चिम में लोग अब अंतर्जाल यौन साहित्य से ऊब कर सात्विक विषयों की तरफ बढ़ रहे हैं। संभव है कि भारत और चीन में भी आगे यह हो पर तब इंटरनेट और टेलीफोन कंपनियां रचनात्मक कर्म करने वाले लोगों को ढूंढती रह जायेंगी पर उनको वह मिलेंगे नहीं। रचनात्मक काम करना एक आदत होती है जिसे बनाये रखने के लिय सामान्य आदमी श्रम करता है तो धनी आदमी को उसमें विनिवेश करना चाहिये। हो सकता है कि लेखक की यह सोच औार धारणायें गलत हों पर अंतर्जाल पर जो अनुभव पाया है उसके आधार पर लिख रहा है। यह लेखक कोई ब्रह्मा तो है नहीं कि उसका सत्य अंतिम मान लिया जाये।
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Friday, July 3, 2009

आशिक, माशुका और महबूब-हास्य कविता (ashiq, mashuka & mahboob-hasya kavita)

श्रृंगार रस का कवि
पहुंचा हास्य कवि के पास
लगाये अच्छी सलाह की आस
और बोला
‘यार, अब यह कैसा जमाना आया
समलैंगिकता ने अपना जाल बिछाया।
अभी तक तो लिखी जाती थी
स्त्री पुरुष पर प्रेम से परिपूर्ण कवितायें
अब तो समलिंग में भी प्रेम का अलख जगायें
वरना जमाने से पिछड़ जायेंगे
लोग हमारी कविता को पिछड़ी बतायेंगे
कोई रास्ता नहीं सूझा
इसलिये सलाह के लिये तुम्हारे पास आया।’

सुनकर हास्य कवि घबड़ाया
फिर बोला-’‘बस इतनी बात
क्यों दे रहे हो अपने को ताप
एकदम शुद्ध हिंदी छोड़कर
कुछ फिल्मी शैली भी अपनाओ
फिर अपनी रचनायें लिखकर भुनाओ
एक फिल्म में
तुमने सुना और देखा होगा
नायक को महबूबा के आने पर यह गाते
‘मेरा महबूब आया है’
तुम प्रियतम और प्रियतमा छोड़कर
महबूब पर फिदा हो जाओ
चिंता की कोई बात नहीं
आजकल पहनावे और चाल चलन में
कोई अंतर नहीं लगता
इसलिये अदाओं का बयान
महबूब और महबूबा के लिये एक जैसा फबता
कुछ लड़के भी रखने लगे हैं बाल
अब लड़कियों की तरह बड़े
पहनने लगे हैं कान में बाली और हाथ में कड़े
तुम तो श्रृंगार रस में डूबकर
वैसे ही लिखो समलैंगिक गीत कवितायें
जिसे प्राकृतिक और समलैंगिक प्रेम वाले
एक स्वर में गायें
छोड़े दो सारी चिंतायें
मुश्किल तो हमारे सामने है
जो हास्य कविता में आशिक और माशुका पर
लिखकर खूब रंग जमाया
पर महबूब तो एकदम ठंडा शब्द है
जिस पर हास्य लिखा नहीं जा सकता
हम तो ठहरे हास्य कवि
साहित्य और भाषा की जितनी समझ है
दोस्त हो इसलिये उतना तुमको बताया।

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Wednesday, July 1, 2009

सच का संकट-हास्य व्यंग्य कविता (trouble of truth-hindi hasya poem)

उन्होंने निजी और सरकारी सेवकों का
एक ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ सम्मेलन बुलाया
जब पहुंचे उस जगह तो
वहां कोई नहीं आया।
अपने आमंत्रितों को फोन कर
उन्होंने कारण पता लगाया
किसी ने एक तो किसी ने
न आने का दूसरा बहाना बताया।
‘’यार, तुम भी कैसे समाज सेवक हो
किस विषय पर यह सम्मेलन बुलाया
सच यह है कि आज छुट्टी का दिन है
भूलना चाहते हैं वह सब
जो पूरे हफ्ते बिताया
दफ्तरों में गुजारे पलों को
तुम याद क्यों दिलाना चाहते हो
अपनी ऊपरी कमाई सभी को पवित्र लगती है
दूसरे की भ्रष्टाचार
सभी दौलत के पीछे हैं
ईमानदार का तो बस नकाब लगाया।
फिर वहां बरसेंगी भ्रष्टाचारियों पर गालियां
सभी की बीबी बच्चे बचायेंगे तालियां
आखिर सच कुरेदेगा लोगों का दिमाग
जिसकी अगले हफते पड़ेगी छाया
इसलिये सभी ने इस सच के संकट से
स्वयं को बचाया।’
एक हमदर्द ने उनको बताया।

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