Tuesday, July 24, 2007

अपनी सुरक्षा अपने हाथ

धन, पद और प्रतिष्ठा की शक्ति
हो जाती है जी मेहरबान
क्यों न करे वह उस पर अभिमान
इस जहां में सभी सो यही चाहते हैं
जिनसे दूर है यह सब
वह रहते हैं परेशान
गर्दन ऊपर उठाएँ देखते हैं
होकर हैरान

उनके लड़के मोटर साइकिलों
और कारों में चलते गरियाते हैं
अभावों से है वास्ता जिनका
वह उन्हें देखकर सहम जाते हैं
अपने वाहन को चलाते है ऐसे
जैसे करते हौं फिल्मी स्टंट
कोई नहीं कर पाता उनको शंट
जो रोकने की कोशिश करे
उस पर टूट पड़ें बनकर हैवान

गरीब अगर अमीर की चौखट पर
जाना बंद कर दे
जाये तो तैयार रहे
झेलने के लिए अपमान
सड़क पर चले तो
किसी से डरे या नहीं
नव-धनाढ्यों की सवारी से
बचकर चले
न हार्न दें
चाहे जहां और जब रूक जाएँ
मन में आये वहीं रूक जाएँ
यही उनकी पहचान


कहैं दीपक बापू
तेज गति से मति होती वैसे ही मन्द
फिर बाप के पैसे, पद और प्रतिष्ठा का
नशा हो जिनको
वह क्यों होंगे किसी नियम के पाबन्द
वह पडा है उनकी तिजोरी में बंद
अपने जीवन की सुरक्षा
अपने ही हाथ में रखो
बाकी करेंगे अपने भगवान

दिल का सौदा न करना

भगवान् के घर का पता लोग
शैतान से पूछते हैं
वफा की उम्मीद
हैवान से करते हैं
जुबान पर कुछ
दिल में कुछ
नजर कहीं ओर
हारते है अपनी गलतियों से
दोष मैदान और मौसम
धरते हैं

जोश में हो जाएँ
खो देते हैं होश
दौलत का नशा ऐसा कि
हमेशा सदा रहें मदहोश
उनसे जो करें दोस्तीं
ऐसे मेहरबान मुफ़्त में कटते हैं

सब खायें मुफ़्त
पहने उतरन जैसे कपडे
पैसा नहीं जेब में
पर सुविधाओं की चाहत बहुत
कहीं माँग कर लें
कहीं जबरन लूटें
दुनिया में ऐसे मिले लोग
हैरान करते हैं

कहैं दीपक बापू
दुनिया रंग-रंगीली
अमीरों में भी देखी मुफ्तखोरी
गरीब में भी देखी दरियादिली
करो भरोसा समय पर
आज उसके साथ है
कल तुम्हारा भी होगा
अपना धर्म मत छोड़ना
अपने कर्तव्य पथ से
विचलित न होना
किसी के भुलावे में आकर
आकर्षित होकर
दिल का सौदा न करना
सबके दिल में भगवान बसते हैं

आगे भी ऐसे दृश्य आएंगे

शिष्य के हाथ से हुई पिटाई
गुरुजी को मलाल हो गया
जिसको पढ़ाया था दिल से
वह यमराज का दलाल हो गया
गुरुजी को मरते देख
हैरान क्यों हैं लोग
गुरू दक्षिणा के रुप में
लात-घूसों की बरसात होते देख
परेशान क्यों है लोग

यह होना था
आगे भी होगा
चाहत थी फल की बोया बबूल
अब वह पेड युवा हो गया
राम को पूजा दिल से
मंदिर बहुत बनाए
पर कभी दिल में बसाया नहीं
कृष्ण भक्ति की
पर उसे फिर ढूँढा नहीं
गांधी की मूर्ति पर चढाते रहे माला
पर चरित्र अंग्रेजों का
हमारा आदर्श हो गया
कदम-कदम पर रावण है
नारी के हर पग पर है
मृग मारीचिका के रूप में
स्वर्णमयी लंका उसे लुभाती है
अब कोई स्त्री हरी नहीं जाती
ख़ुशी से वहां जाती है
सोने का मृग उसका
उसका हीरो हो गया
जहाँ देखे कंस बैठा है
अब कोइ नहीं चाहता कान्हा का जन्म
कंस अब उनका इष्ट हो गया
रिश्तों को तोलते रूपये के मोल
ईमान और इंसानियत की
सब तारीफ करते हैं
पर उस राह पर चलने से डरते हैं
बैईमानी और हैवानियत दिखाने का
कोई अवसर नहीं छोड़ते लोग

आदमी ही अब आदमखोर हो गया
घर के चिराग से नहीं लगती आग
हर आदमी शार्ट सर्किट हो गया
किसी अवतार के इन्तजार में हैं सब
जब होगा उसकी फ़ौज के
ईमानदार सिपाही बन जायेंगे
पर तब तक पाप से नाता निभाएंगे
धीरे धीरे ख़ून के आंसू बहाओ
जल्दी में सब न गंवाओ
अभी और भी मौक़े आएंगे
धरती के कण-कण में
घोर कलियुग जो हो गया
धीरे-धीरे आंसू बहाओ
आग भी ऐसे दृश्य शायद
होंगे वह इससे भी अधिक बीभत्स
देख्नेगे हम लोग

Monday, July 23, 2007

वाह रे बाज़ार तेरा खेल

वाह रे बाज़ार तेरा खेल
मैदान में पिटे हीरो को
कागज और फिल्म पर
चमकाकर और सजाकर
जनता के बीच देता है ठेल

क्रिकेट में कोई विश्वकप नही
जीत सके जो तथाकथित महान
ऐसे प्रचार का जाल बिछाते हैं
कि लोग फिर
उनके दीवाने बन जाते हैं
अपने पुराने विज्ञापन इस
तरह सबके बीच लाते हैं कि
लोग हीरो की नाकामी से
हो जाते हैं अनजान
और बिक जाता है बाजार में
उनका रखा और सडा-गडा तेल


न ताज कभी चला न चल सकता है
उस पर हुए करोड़ों के वारे-न्यारे
और वह चला भी ख़ूब
प्रचार ऐसा हुआ कि
पैसेंजर में नही लदा
खुद ही बन गया मेल

कहै दीपक बापू
शिक्षा तो लोगों में बहुत बढ़ी है
पर घट गया है ज्ञान
शब्दों का भण्डार बढ़ गया है
आदमी की अक्ल में
पर अर्थ की कम हो गयी पहचान
बाजार में वह नहीं चलता
चलाता है बाजार उसे
सामान खरीदने नहीं जाता
बल्कि घर लूटकर आता
और कभी सामान तो दूर
हवा में पैसे गँवा आता
विज्ञापन और बाजार का या खेल
जिसने कमाया वही सिकंदर
जिसने गँवाया वह बंदर
इससे कोई मतलब नही कि
कौन है पास कौन है फेल

तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है

आँखें देखतीं हैं
कान सुनते हैं
और जीभ का काम है बोलना
पर जो पहचान करे
सुनकर जो गुने
और जो श्रीमुख से
शब्द व्यक्त करे
वह कौन है
हाथ करते हैं अपना काम
टांगों का काम है चलना
और कंधे उठाएं बोझ
पर जो पहुँचाता है लक्ष्य तक
जो देता है दान
और जो दर्द को सहलाता है
वह कौन है

कहैं दीपक बापू
कहाँ उसे बाहर ढूंढते हो
क्यों व्यर्थ में त्रस्त होते हो
बैठा तुम्हारे मन में
तुम उससे बात नहीं करते
इसलिये वह मौन है
जब तक तुम हो
तब तक वह भी है
तुम्हारा अस्तित्व है उससे
उसका जीवन है तुमसे
तुम सीमा में बंधे रहते हो
उसकी शक्ति अनंत है
तुम पहचानने की कोशिश करके देखो
वह तुम्हारा अंतर्मन नहीं तो और कौन है
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Sunday, July 22, 2007

अपने साथ हमदमों को कर लो

समझौता ग़मों से कर लो
दोस्ती नगमों से कर लो
महफ़िलों में जाकर
इज्जत की उम्मीद छोड़ दो
जहां सब सज-धज की आएं
वह तुम्हें देखने की फुर्सत है
सभी बोलें कम अपने लबादे
ज्यादा दिखाएँ
सोचें कुछ और
बोलें कुछ और
सुनकर अनुसना कर सकें तो
सबसे बतियाएं
अगर कोई अपने शब्दों से
घाव कर दे
तो तसल्ली और यकीन की
मरहमों से कर लो

कहैं दीपक बापू
अपनी शान दिखाने में
तुम कभी न पडना
दूसरों की चमक मैं
अपने को अंधा न करना
जिनके चेहरे पर जितनी रोशनी है
उतना ही उनके मन में है अँधेरा
तुम अपने यकीन और हिम्मत के
साथ सबके सामने डटे रहो
किसी और में कुछ भी न ढूँढो
साथ अपने हमदमों को कर लो
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बच गया हेरी पॉटर

बच गया हेरी पॉटर
लोग जश्न मनाते हुए
किताब खरीदने के लिए
दुकानों पर लाईन में खडे हैं
अपनी हकीकतों से ऊबे लोग
तकलीफों से जूझते हुए
किताब से उपजे पहाड़ पर खडे हैं

किताबें पढना अच्छी बात है
पर उसके कल्पित पात्रो में
स्नेह बिखेरना इस बात
को साबित करता है कि
असली जीवन में
लोगों को नायक नहीं दिखते
सब छद्म रुप धरे हैं
अभिनय, जनहित और
धर्म का कम करते बहुत लोग
स्तुति और झूठी प्रशंसा से
भरती होगी भले झोली उनकी
पर वह जनमानस के
नायक नहीं दिखते
इसलिये नहीं पिलाते एक घूँट भी
जबकि लोगों के हृदय में
प्रेम और स्नेह से लबालब
घडे पडे हैं

कहैं दीपक बापू
हेरी पॉटर के जिन्दा
रहने पर इतने लोगों ने
मनाया जश्न
अपने के खुश होने पर भी
कितने लोग गदगद होते हैं
उठ रहा है प्रश्न
कल्पित पात्र के लिए
दीवानगी है इतनी
ज़िन्दगी की सच्ची से
भागने की चाह है जितनी
राम, कृष्ण और हनुमान के
बारे में पढ़ाया होता
तो असली नायकों का भान होता
खाली दिमाग में हेरी पॉटर
जैसे कल्पित पात्र इसलिये चढे हैं
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Saturday, July 21, 2007

फिर करना अभिमान

विदेशों में जाकर करें
जो भारतीय अपना नाम
क्यों करते हैं उनकी
कामयाबी पर
यहाँ पर हम बैठे अभिमान
ग़ैर देश की सेवा से
कैसे बढ सकता है
अपने देश का मान

पैदा हुए इस देश में
पढे-लिखे और ज्ञान
का संचय किया
अपने गणवेश और परिवेश में
मिला नहीं मन का स्थान
पहुंचे गये परदेश में
वहीं बनाया निवास
आ गये उनके ही वेश में
उस देश का ही बढाते सम्मान

कहैं दीपक बापू
उनके निज गर्व पर
मत करो अभिमान
पहले अपने देश की प्रतिभा की
पलायन क्यों हुआ
इस सवाल का जवाब दो
अपने घर का चिराग
कहीं और रोशन होता है
अपने यहां रहता हैं क्यों अँधेरा
पहले इसका जवाब दो
फिर करना अप्रवासियों की
उपलब्धियों पर अभिमान
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Friday, July 20, 2007

फ्री के जाल से बचना

विचार खुले होना अच्छा है
पर आंख्ने भी खुली रखना
यकीन करना अच्छा है
पर कदम-कदम पर है
धोखे भीं हजार हैं
अपना हर कदम
सतर्कता से रखना


सुन्दर शब्दों का जाल
फैलाया जाता है चहूं ओर
अर्थहीन लाभों का दिखाया जाता है
जिनका नहीं होता कहीं ठौर
शिकारी अब ऐसा जाल बिछाते हैं
पंक्षी बिना दाना डाले फंस जाते हैं
तुम शिकार होने से बचना


कहीं एक के साथ एक फ्री का नारा
कहीं भारी भरकम गिफ्ट का नज़ारा
कोई करता हैं भारी छूट का वादा
कोई बताता अपने ही लुटने का इरादा
खरीदने निकलो बाजार में तो तुम भी
एक सौदागर बन जाना
अपनी नज़र पैनी रखना

कहैं दीपक बापू
अब आसमान से नहीं आते
ऐसे फ़रिश्ते
जो दुसरे को मालामाल कर दें
लोगों के झुंड के झुंड जुटे हैं
अमीर बनने के लिए
वह ऐसे नही है
किसी दुसरे के लिए कमाल क्र दें
तुम अपना ईमान नहीं छोड़ना
अपने ख्वाबों को सच करने की
जंग खुद ही जीतने की बात जोहना
किसी दुसरे के दिखाए सपने में
अपनी जिन्दगी फंसाने से बचना
यहां कोई ख़्याल से फ्री दिखता है
किसी का माल फ्री बिकता है
कोई फ्री में लिखता है
पर यहां कुछ फ्री नहीं है
सिवाय तुम्हारी जिन्दगी के
इसे फ्री में बेकार करने से बचना
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Thursday, July 19, 2007

हिन्दी सम्मेलन-हिन्दी कन्वेंशन

दूरदराज कहीं होता है
विश्व हिन्दी सम्मेलन
कहीं पास ही होता है
ब्लोगर ऑफ़ हिन्दी कन्वेंशन
चहूं ओर फैली रोशनी
राह में बिछे कालीन
बजती हैं अंगरेजी धुन
हिन्दी के मसीहा
चलते बिल्कुल अटेंशन
कुछ हिन्दी के शब्द
कुछ अंगरेजी के वर्ड
अच्छी पर बोलें थैंक्स
खराब पर बोलें नो मेशन

हिन्दी-हिन्दी कर कई
लोग हिट हो जाते हैं
फिर हिन्दी को ही
गरीबों की भाषा बताते हैं
अंग्रेजी के फ्लॉप को भी
हिन्दी के हिट से बेहतर जताते हैं
हिन्दी में अंगरेजी के शब्द जोड़कर
जताते हैं लोगों में इम्प्रेशन

हिन्दी को असहाय भाषा बताने वाले
रोटी कि जुगत में ही
हिन्दी के विकास के लिए
अंगरेजी के शब्द जोडे जाते हैं
अंग्रेज चले गये
पर अंग्रेजियत छोड़ गये
हिन्दी के तथाकथित सेवक
अभी भी अंगरेजी के गुन गाये जाते हैं
करते हैं उनके घर सम्मेलन

कहैं दीपक बापू हम हैं
असली हिन्दी वाले
कहते कुछ नहीं समझ सब जाते हैं
हिन्दी में लिखते बरसों हो गये
अपनी खाने और शराब के लिए
कई लोगों को हिन्दी प्रेम ओढ़ते देखा है
सम्मेलनों के लिए
असली हिन्दी लेखकों को
भ्रमित कर भीड़ में झोंकते देखा है
पहुंच का देख बोर्ड पर लिखा
मिलता है
हिन्दी कन्वेंशन
वह मुस्कराते हैं
यह सोचकर कि
देखो कैसा उल्लू बनाया
हम खुश होते हैं कि
कैसे एक व्यंग्य जुटाया
पहला देता सम्मान
दूसरा लेता ससम्मान
फिर दूसरा यही करता
पहले वाले के लिए
फिर व्यक्त होता के लिए
शब्दों में एक दुसरे के लिए अभिमान

कार्यक्रम के रंगीन फोटो
छप जाते हैं अखबार में
हम पढ़-पढ़ कर मुस्कराते हैं
यही है हिन्दी कन्वेंशन
हिन्दी हम गरीबों की भाषा है
पर बन रही हैं कई लोगों की
बन गयी है रोटी कमाने की भाषा
उसका विकास करना बन गया है फेशन

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Tuesday, July 17, 2007

जहाँ बैठेंगे चार सच्चे साधू

(यह व्यंग्य कविता काल्पनिक है तथा किसी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है )

साधुवाद का युग बीत गया
सुनकर सब गये है हिल
अभी अभी तो हम आये हैं
वह कैसे चला गया
हमसे बिना मिल

नमकीन और मिठाई की
भरी प्लेटों से सजी टेबल के
इर्द-गिर्द जमा बुद्धिजीवियों की
जमी थी एक महफ़िल
कोई केसरिया तो कोई लाल
तो बहुरंगी झंडा हाथ में लिए था
चर्चा के लिए एजेंडे के तलाश थी
बाहर खडी भीड़ को
किसी अच्छी चीज सुनने की आस थी
अन्दर खोजबीन जारी थी
बाहर बेताब थे दिल


साधू-साधू कर सब
एक दुसरे से मिल रहे थे
अचानक कहीं से आवाज आयी
बीत गया साधुवाद का जमाना
मच गया सब जगह हंगामा
कोई ढूंढें साधू को
कोई गढ़ता नए नारे और कोई
वाद की किताब पढता
साधुवाद के छोड़ जाने की
चिंता में हो गये है शामिल
आज नहीं तो कल जाएगा मिल

कहैं दीपक बापू वाद तो
नारे तक ही सिमट जाते हैं
कहीं क्या रचना और विकास की
धारा बहायेंगे
खुद एक लाईन तो कभी-कभी
एक शब्द से आगे नहीं बढ़ पाते हैं
सुनने कहने में
अच्छे लगते हैं
भीड़ जुटाने में
मदद भी करते हैं
पर बदलाव की धारा में
नहीं होते शामिल

सब साधू की तरह हो जाओ
तो ज़माना साधू नजर आयेगा
साधुवाद कभी न था न आयेगा
मन में नहीं साधुत्व तो
फिर कहीं नहीं रहा है मिल
जो मन में हो वही जुबान पर हो
जैसा शब्द हो वैसा ही ज्ञान हो
जैसी कथनी हो वैसी ही करनी
उजड़ा चमन भी खिल उठेगा
सन्नाटे में पक्षियों का
कलरव गूँज उठेगा
और खूंखार शेर के सामने
हरिण सहज बैठा मिलेगा
जहां चार सच्चे साधू बैठेंगे मिल
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Sunday, July 15, 2007

हम तो ढाई आखर की लिखेंगे

कहते हैं रवि भैया
ढाई सौ अक्षर तो
कम से कम जरूर लिखो
नहीं तो पाठकों की दृष्टि में
एकदम गिर जायेंगे
एक बार पढेंगे पाठक फिर
नहीं झाँकने भी आएंगे


हम तब से हैरान हैं
बहुत परेशान है
हम तो आये थे
ढाई आखर प्रेम के लिखने
यह ढाई सौ का पहाड़
कहाँ चढ़ पायेंगे
ऐसे तो हमेशा फ्लापों की
जमात में ही बैठे रह जायेंगे


हम इसके लिए भी तैयार
पर क्या गफलत से
बने हैं जो हिट उनके चेले
इसे समझ पायेंगे
अभी तक ढाई बार
लिखते थे हिट शब्द
चढ़ जाते थे शिखर पर
अब ढाई सौ बार चमकाएंगे
हिन्दी वालों से उनका वास्ता क्या
वह अंग्रेजों से हिट ले आएंगे

कहैं दीपक बापू हम तो
फ्लॉप के लिए भी तैयार
अपनी रचना को ढाई आखर में ही
सार्थक बना जायेंगे
ढाई सौ में तो
ग्रंथ का मर्म ही रचा जायेंगे
अपनी मातृभाषा के लिए
अंगरेजी के घर की घंटी
कभी नहीं बजायेंगे
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