Monday, May 30, 2011

आनंद उठाना भी एक कला है-हिन्दी अध्यात्मिक चिंत्तन लेख (anand uthana bhee ek kala hai-hindi adhyamik chittan)

     सुख की तलाश सभी लोग करते रहते हैं पर उसकी अनुभूति कभी नहीं कर पाते। सुख या आनंद उठाना भी एक कला है जो हरेक सभी को नहीं आती। किसी चीज के मिल जाने से सुख मिल जायेगा यह सोचकर उसके पीछे लोग चल पड़ते है पर जब वह मिल जाती है तब उसके उपभोग से होने वाले सुख की अनुभूति उनको नहीं हो पाती । इसका कारण यह है कि जब मनुष्य किसी वस्तु को पाने या खरीदने का उपक्रम करता है तब उसकी समस्त इंद्रियां सक्रिय हो जाती हैं और इससे होने वाले उसके कर्म से उसे सुख मिलता है वही मनुष्य में सक्रियता और उत्साह बनाये रखता है। जब अभीष्ट वस्तु मिलती है उसके उपभोग में सक्रियता नहीं के बराबर रह जाती है। दूसरी बात यह कि उपभोग से हम अपने अंदर जो तत्व ग्रहण करते हैं वह अंततः विकार बन जाता है। जब हम अपने कर्म में सक्रिय होते हैं तब हमारी देह से विकार निकलते हैं। मन में कर्म करने के उत्साह का संचार होता है। इससे देह और मन में हल्कापन आता है वस्तु के उपभोग से तत्व अंदर जाता है जिससे देह पर बोझ बढ़ता है। उससे निवृत्त होने की कला को समझना जरूरी है।
     हम फ्रिज घर में लाना चाहते हैं। इसके लिये पैसा लेकर उसे खरीदने बाज़ार जाते हैं। इससे देह में और मन में सक्रियता आ जाती है जो कि आंनद प्रदान करने वाली होती है। पैसे नहीं हों तो फ्रिज खरीदने लायक पैसा कमाने के लिये हम प्रयास करते हैं। अपने खर्च में कटौती कर धन का संचय करने पर भी विचार करते हैं। इसमें एक आनंद है मगर जब फ्रिज घर में आ जाता है तो उससे कितना आनंद मिल पाता है? ठंडा पानी पीने के लिये सभी लालायित होते हैं पर यह काम तो मटका भी करता है। सब्जी आदि ताजा रखने का अच्छा यह विकल्प भी है कि प्रतिदिन खरीदी जायें।

     उसी तरह कार खरीदने में आनंद है पर जब देह का चलना फिरना कम होता है तो वह विकारों का शिकार होती है। ऐसी और कूलर से ठंडी हवा लेना अच्छा लगता है पर इससे देह की गर्मी से लड़ने की प्रतिरोकधक क्षमता कम होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि वस्तुओं के पाने के लिये किये गये उपक्रम में क्षणिक आनंद मिलता है पर अभीष्ट वस्तुओं का उपभोग ऐसा आंनद नहीं प्रदान करता क्योंकि अंततः उपभोग कभी भी आनंद का तत्व नहीं बन सकता। अधिक से अधिक इतना कि हम उसके होने की निरर्थक चर्चा दूसरों से करते है।
       उपभोग की प्रवृत्ति में आनंद अधिक नहीं है या कहें की बिलकुल नहीं है। उसका आनंद हम तभी उठा सकते हैं जब उपभोग से पैदा विकार से बचने के लिये निवृत्ति करना जानते हों। निवृत्ति तत्व से आशय उस ज्ञान से है जिससे से बात समझ में आती है कि उपभोग में लाई वस्तु का उपयोग हम भौतिक सुविधा के लिये करते हैं पर वह आध्यात्मिक सुख का कारण नहीं बन सकती। जबकि वास्तविक सुख अध्यत्मिक शांति से है।
     यह ज्ञान विरलों को ही होता है। वरना तो लोग शोर में शांति, भीड़ में आत्मीय साथी और व्यवसाय के वफादार मित्र ढूंढते हैं। जब मौन रहना हो तब वार्तालाप करते हैं। आंखें बंद कर ध्यान लगाना हो तब खोलकर चिल्लाते आनंद ढूंढते हैं। जब नहीं मिलता तो निराशा में हाथ पांव पटकने लगते हैं। लोग जानते ही नहीं कि शरीर की सक्रियता का आनंद तभी लिया जा सकता है जब हमें उसे शिथिल करना आता हो। यह शिथिलता ध्यान से अनुभव की जा सकती है। इसके अलावा जब हम सोते हैं तो पहले अपने अंगों को शिथिल होते देखें। जब तनाव में हों चिल्लायें नहीं बल्कि आंखें बंद कर ध्यान लगायें। चलने का आनंद तभी उठाया जा सकता है जब हम रुकना जानते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि सुख या आनंद उठाना एक कला है और इसे केवल ज्ञानी ही जानते हैं।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप" 
poet,writter and editor-Deepak "BharatDeep"
http://rajlekh-hindi.blogspot.com
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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Tuesday, May 17, 2011

असली दर्द-हिन्दी हाइकु (real pain-hindi hiq or poem)

भ्रष्टाचार
जिंदगी का हिस्सा
बन गया है,

उठता दर्द
जब मौका न होता
अपने पास,

दुख यह है
कोई धनी होकर
तन गया है।
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गैरों ने लूटा
परवाह नहीं थी
गुलाम जो थे,

यह आजादी
अपनों ने पाई है
लूट वास्ते

नये कातिल
रचते इतिहास
हाथ खुले हैं,

कब्र में दर्ज
लगते है पुराने
यूं नाम जो थे।

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Thursday, May 12, 2011

कतरनों के चैनल-हिन्दी हास्य कविता (kataranon ke chainal-hindi hasya kavita)

टीवी चैनल के प्रबंधक से कहा संपादक ने
‘‘आप हमारे कर्मचारियों का
मेहनताना बढ़ा दें,
अपना चैनल उनकी दम पर
लोकप्रिय हो रहा है,
सभी जगह अपने विज्ञापनदाताओं के लिये
ग्राहक बो रहा है,,
कभी किसी खास आदमी के यहां शादी की खबर हो
चाहे किसी के मरने की स्टोरी करना कवर हो,
वहां हमारे लोग अपना पराक्रम दिखाते हैं,
लोगों के दिल में अपने चैनल का नाम लिखाते हैं,
सनसनी फैलाते वक खुद अभिनय कर सन्न रह जाते हैं,
देशभक्ति का भाव बेचते हुए
भावुक भी हो जाते हैं,
समाचारों के चलते फिरते उनके साथ
अभिनय का का कौशल सभी दिखाते हैं।

सुनकर बोले संपादक जी
‘क्या खाक पराक्रम दिखाते हैं,
हम तो जानते हैं असलियत
हमें क्या आप
सिखाते हैं,
किसी की शादी हो तो
उसके घर पर लगे कैमरों से ही
हो जाता है सीधा प्रसारण
अपने कैमर रखे रहते हैं आफिस में
तो संवाददाता आमंत्रण पत्र मिलने से
कर लेते हैं बाराती का वेश धारण,
उसमें भी बस एक ही दिन
विज्ञापन चलता है
दर्शक होते हैं दूसरे दिन निराश
क्योंकि नये जोड़े की सुहागरात देखने का मन
मचलता है
फायदे तो खास आदमी के मरने पर होता है,
जब चैनल चार दिन विज्ञापन ढोता है
एक दिन मरने का
दूसरे दिन अर्थी सजने का
तीसरे होता है रोने का
तो चौथा दिन मृतक के चरित्र की चर्चा होने का
देश में हो तो स्थानीच चैनलों से काम चलाते हैं
विदेश में तो वहीं के चैलनों के चलते कैमरों को
अपने नाम से बताते हैं।
नहीं बढ़ेगा एक पैसा भी
हम तो सोच रहे हैं कि कुछ कर्मचारी ही कर दें
क्योंकि हमारे स्वामी व्यस्त रहते हैं
बाहर घूमने में
बढ़ती महंगाई में उनके बैंक खाते में
रकम कम जमा होती दिख रही है,
कहीं चैनल न बंद कर दें,
या फिर प्रबंधक ही नया धर लें,
हम अपने खर्च कम कर
उनकी आय बड़ी करने की कोशिश कर दिखाते हैं।
अपनी तनख्वाह बढ़ने का विचार छोड़ दो
वरना हम नये प्रशिक्षु लाकर
कतरनों से चैनल चलाना उनको सिखाते हैं।
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