Friday, February 24, 2017

काबिल इश्तहार नहीं करते-हिन्दी व्यंग्य कविता (Qabil ishtaha nahin karate-Hindi Satire Poem)

मुखौट लगे चेहरे
पहचाने नहीं जाते।
‘दीपकबापू’ सस्ते चरित्र
महंगा दाम लेकर भी
चैन नहीं पाते।
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काबिल इंसान
अपनी कामयाबी के
इश्तहार नहीं दिया करते।

दिल से ज़माने में
भलाई बांटने वाले
लफ्जो में बयान नहीं किया करते।

कहें दीपकबापू नाकाबिलों से
सज गये सिंहासन
नाकामी के ढूंढते बहाने
कमअक्ली जाहिर होने के डर में
सयानों से राय नहीं लिया करते।
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Saturday, February 4, 2017

बेशरमी हमेशा बेहद होती है-हिन्दी कविता (Besharmi hmesha Behad hoti hai-Hindi Poem)


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हद होती शर्म की
बेशरमी हमेशा बेहद होती है।

याचक खड़ा द्वार पर
हाथ फैलाये
वाणी उसकी कातर
शब्द के पद ढोती है।

कहें दीपकबापू सेवक से
तब तक वफा की आशा करें
जब तक स्वामी न बना
फिर तो सोने की पालकी
उसमें मद बोती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
ग्वालियर मध्यप्रदेश

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