Wednesday, April 28, 2010

पर इसे रहस्य रखना है-हिन्दी शायरी (rahasya-hindi shayari)

चारों तरफ से बरस रहा है पैसा
पर इसे रहस्य रखना है,
उंगली के इशारे पर कत्ल कराना
पर इसे रहस्य रखना है,
लुट लो खज़ाना जमाने का
पर इसे रहस्य रखना है,
लोगों से वफा का दिखावा, मतलब अपना निकालना
पर इसे रहस्य रखना है,
दुश्मन ने कमजोरी देख ली
पर इसे रहस्य रखना है,
रहस्य एक हथियार की तरह है
पर इसे रहस्य रखना है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, April 25, 2010

ढाई कौड़ी की सोच-हिन्दी हास्य व्यंग्य

एक सरकारी अधिकारी के यहां छापा मारकर ढाई हजार करोड़ की अवैध संपत्ति का पता लगाया गया। डेढ़ टन सोना बरामद किया। यह खबर अखबार में पढ़कर अपने तो होश ही उड़ गये-आजकल अक्सर ऐसा होने लगा है।
हम सोचने लगे कि इतने सारी संपत्ति वह अधिकारी संभालता कैसै होगा। अपने से तो ढाई हजार रुपये की रकम हीं नहीं संभलती। पहले तो इतनी बड़ी रकम साथ लेकर निकलते ही नहीं-कुछ तो लेकर निकलते ही हैं क्योंकि इतने बड़े आदमी नहंी है कि साथ में सचिव वगैरह हो खर्च करने के लिये या लोग मुफ्त सेवा के लिये आतुर रहते हों-अगर साथ लेकर निकलते ही हैं तो कुछ पर्स में रखेंगे, कुछ पेंट की अंदरूनी जेब में तो कुछ शर्ट की जेब में और बाकी पेंट की दायीं जेब में।
इसके चलते एक बार हमें अपमानित भी होना पड़ा जब हमारा पर्स खो गया तो एक टूसीटर चालक वापस करने आया। उसमें एटीएम कार्ड था जो गरीब होने की छबि से बचाता है, इसलिये शर्मिंदा होने से बचे और और उस टूसीटर चालक ने कहा भी था कि ‘आपका एटीएम देखकर वापस करने का मन हुआ था वरना तो उसमें एक भी पैसा भी नहीं था जिससे वापस करने का विचार करता।’
कभी एक साथ ढाई लाख की रकम नहीं देखी इसलिये ढाई करोड़ जैसा शब्द ही डरा देता है। ऐसे में उसके साथ सौ का शब्द तो अंदर तक हिला देता है। देश की विकासदर बढ़ रही है पर अपनी विकास दर स्थिर है इसलिये यह सौ करोड़ या हजार करोड़ शब्द ही मातृभाषा हिन्दी से पृथक किसी दूसरी भाषा के शब्द प्रतीत होते हैं। उस समय सोच के दरवाजे ही बंद हो जाते हैं।
एक समय तक इस देश में करोड़ की रकम भ्रष्टाचार में पकड़े जाने तक सम्मानजनक मानी जाती थी। उसके बाद सौ करोड़ अब तो हजार करोड़ों से नीचे बात ही कहां होती है। वैसे आजकल अधिकारियों के पकड़े जाने की चर्चा खूब होती है। इसमें कुछ गरीब अधिकारी भी फंसे हैं जिनके पास सौ करोड़ के मानक में संपत्ति थी।
जब ऐसी खबरे आती हैं तो हमें कुछ देर लगता है कि जैसे वह इस धरती की चर्चा नहीं होगी कहीं स्वर्ग वगैरह का मामला होगा वरना यहां हजार करोड़ रखने की किसके पास ताकत होगी-यह तो ऊपर वाले देवताओं की कृपा हो सकती है जो स्वर्ग में ही रहते हैं। फिर शहर और प्रदेश देखते हैं तो यकीन करना ही पड़ता है कि इस धरती पर भी दूसरी दुनियां है जिसमें केवल पैसे वाले रहते हैं और भले ही उन सड़कों पर घूमते हों जहां से हम भी निकलते हैं पर उनको न हम जैसे लोग दिखाई देते हैं और न वह इनको देख पाते हैं। इतने हजार करोड़ों रुपये के मालिक भला खुले में निकल कहां सकते हैं? उनको तो चाहिये लोहे लंगर के बने हुए चलते फिरते किले।
प्रेम के ढाई आखर पढ़ ले वही पंडित बन जाये, पर जिससे पंडित नहीं बनना हो वह ढाई में सौ का गुणा करते हुए इस मायावी दुनियां में बढ़ता जाये। मुश्किल हम जैसे लोगों की है जिनके पास यह गुणा करने की ताकत नहीं है।
डेढ़ टन सोना। कर लो बात! यहां अपने घर में डेढ़ तोले सोने पर ही बात अटक जाती है। हमारे मित्र को अपने पत्नी के लिये सोने की चूड़ियां बनवानी थी। एक दिन हम से उसने कहा-‘अभी तय नहीं कर पा रहा कि एक तोले की चार चूड़ियां बनवाऊं या डेढ़ डेढ़ तोले की दो।’
हमने कहा-‘क्या यार। अभी भी एक ड़ेढ तोले पर ही अटके हुए हो। सोना तो विनिवेश करने एक अच्छा साधन है। दो दो तोले की चार बनवा लो।’
वह बोला-‘यार, औरतों को पहननी भी तो पड़ती हैं। भारी हो जाती हैं।’
सोना पहनने में भारी होता है पर रखने में नहीं। आम औरतें सोना पहनने के लिये लेती हैं ताकि समाज में उनकी अमीरी का अहसास बना रहे। विशिष्ट लोगों की औरतों में तो अब सोना पहनने का शौक नहीं रहा। शायद इसका कारण यह है कि किसी वस्तु अधिकता से बोरियत हो जाती है-यह अर्थशास्त्र के उपयोगिता नियम के अनुसार विचार है- अपने घर में टनों सोना देखकर उनका मन वैसे ही भर जाता है तब उसके गहने बनवाने का विचार उनको नहंी आता। वैसे ही उनका रौब इतना रहता है कि अगर गहने न भी पहने तब भी आम लोग उनकी अमीरी का लोहा मानते हैं। ऐसी औरतों के पति अगर बड़े पद पर हों तो वह सोने की बरफी-बिस्कुट भी कह सकते हैं-बनाने वाले हलवाई हो जाते हैं जो अपना माल खुद उपभोग में नहीं लाते। उनके घर की नारियां भी ऐसे ही हो जाती हैं कि क्या अपने पति का बना माल खाना’।
हद है यार! क्या लिखें और क्या कहें! ढाई हजार करोड़ रुपये की संपत्ति और डेढ़ टन सोने की मात्रा देखते हुए अपनी औकात नहीं लगती कि उस पर कुछ लिखें। मुश्किल यह है कि जिनकी औकात है वह लिखेंगे नहीं क्योंकि उनको तो अपने गुणा भाग से ही फुरसत नहीं होती। यह लिखने का काम तो ढाई कौड़ी के लेखक ही करते हैं-यकीनन इतनी औकात तो अपनी है ही। अपनी आंखें ढाई हजार पर ही बंद हो जाती हैं पर ऐसे महानुभाव तो गुण पर गुणा करते हुए बढ़ते जाते हैं। आखिर उनको जिंदा रहने के लिये कितना पैसा चाहिये। यह सोचकर ही हमारी सोच भी जवाब देने लगती है वह भी तो ठहरी आखिर ढाई कौड़ी की।
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Wednesday, April 21, 2010

मशहूर-हिन्दी शायरी (mashahur or famous-hindi shayri)

कुछ इंसानों के दौलतमंद बनने के किस्से
ज़माने में मशहूर हो जाते हैं
क्योंकि गरीब दुनियां में हैं ज्यादा
उनमें दिल लगाने को मजबूर हो जाते हैं।
अवाम भटके अक्ल की राह,
देख भरे हस्तियों को आह,
काबू में रखने के लिये भीड़ को
सौदागर बेचते हैं सपने
जिन्हें देखते देखते हुए
लोग अपनी असलियत से दूर हो जाते हैं।
कुछ खामोशी से झेलते हैं तकलीफ
कुछ खंजर लेकर मशहूर हो जाते हैं।
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Thursday, April 15, 2010

किक्रेट में सब चलता है-हिन्दी व्यंग्य (it's cricekt-hindi satire article)

उफ! यह क्रिकेट है! इस समय क्रिकेट खेल को देखकर जो विवाद चल रहा है उसे देखते हुए दिल में बस यही बात आती है कि ‘उफ! यह क्रिकेट है!
इस खेल को देखते हुए अपनी जिंदगी के 25 साल बर्बाद कर दिये-शायद कुछ कम होंगे क्योंकि इसमें फिक्सिंग के आरोप समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपने के बाद मन खट्टा हो गया था पर फिर भी कभी कभार देखते थे। इधर जब चार वर्ष पूर्व इंटरनेट का कनेक्शन लगाया तो फिर इससे छूटकारा पा लिया।
2006 के प्रारंभ में जब बीसीसीआई की टीम-तब तक हम इसे भारत की राष्ट्रीय टीम जैसा दर्जा देते हुए राष्ट्रप्रेम े जज्बे के साथ जुड़े रहते थे-विश्व कप खेलने जा रही थी तो सबसे पहला व्यंग्य इसी पर देव फोंट में लिखकर ब्लाग पर प्रकाशित किया था अलबता यूनिकोड में होने के कारण लोग उसे नहीं पढ़ नहीं पाये। शीर्षक उसका था ‘क्रिकेट में सब कुछ चलता है यार!’
टीम की हालत देखकर नहंी लग रहा था कि वह जीत पायेगी पर वह तो बंग्लादेश से भी हारकर लीग मैच से ही बाहर आ गयी। भारत के प्रचार माध्यम पूरी प्रतियोगिता में कमाने की तैयारी कर चुके थे पर उन पर पानी फिर गया। हालत यह हो गयी कि उसकी टीम के खिलाड़ियों द्वारा अभिनीत विज्ञापन दिखना ही बंद हो गये। जिन तीन खिलाड़ियों को महान माना जाता था वह खलनायक बन गये। उसी साल बीस ओवरीय विश्व कप में भारतीय टीम को नंबर एक बनवाया गया-अब जो हालत दिखते हैं उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है क्योंकि क्रिकेट के सबसे अधिक ग्राहक (प्रेमी कहना मजाक लगता है) भारत में ही हैं और यहां बाजार बचाने के लिये यही किया गया होगा। उस टीम में तीनों कथित महान खिलाड़ी नहीं थे पर वह बाजार के विज्ञापनों के नायक तो वही थे। एक बड़ी जीत मिल गयी आम लोग भूल गये। कहा जाता है कि आम लोगों की याद्दाश्त कम होती है और क्रिकेट कंपनी के प्रबंधकों ने इसका लाभ उठाया और अपने तीन कथित नायकों को वापसी दिलवाई। इनमें दो तो सन्यास ले गये पर वह अब उस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में खेलते हैं। अब पता चला है कि यह प्रतियोगिता तो ‘समाज सेवा’ के लिये आयोजित की जाती है। शुद्ध रूप से मनोरंजन कर पैसा बटोरने के धंधा और समाज सेवा वह भी क्रिकेट खेल में! हैरानी होती है यह सब देखकर!
आज इस बात का पछतावा होता है कि जितना समय क्रिकेट खेलने में बिताया उससे तो अच्छा था कि लिखने पढ़ने में लगाते। अब तो हालत यह है कि कोई भी क्रिकेट मैच नहीं देखते। इस विषय पर देशप्रेम जैसी हमारे मन में भी नहीं आती। हम मूर्खों की तरह क्रिकेट देखकर देशप्रेम जोड़े रहे और आज क्रिकेट की संस्थायें हमें समझा रही हैं कि इसकी कोई जरूरत नहीं है। यह अलग बात है कि टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाओं जब भारत का किसी दूसरे देश से मैच होता है तो इस बात का प्रयास करते हैं कि लोगों के अंदर देशप्रेम जागे पर सच यह है कि पुराने क्रिकेट प्रेमी अब इससे दूर हो चुके हैं। क्रिकेट कंपनियों की इसकी परवाह नहीं है वह अब क्लब स्तरीय प्रतियोगिता की आड़ में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव के दर्शक ढूंढ रहे हैं। इसलिये अनेक जगह मुफ्त टिकटें तथा अन्य इनाम देने के नाम कुछ छिटपुट प्रतियोगितायें होने की बातें भी सामने आ रही है। बहुत कम लोग इस बात को समझ पायेंगे कि इसमें जितनी बड़ी राशि का खेल है वह कई अन्य खेलों का जन्म दाता है जिसमें राष्टप्रेम की जगह राष्ट्रनिरपेक्ष भाव उत्पन्न करना भी शामिल है।
कभी कभी हंसी आती है यह देखकर कि जिस क्रिकेट को खेल की तरह देखा वह खेलेत्तर गतिविधियों की वजह से सामने आ रहा है। यह क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में ऊपर क्या चल रहा है यह तो सभी देख रहे हैं पर जिस तरह आज के युवा राष्ट्रनिरपेक्ष भाव से इसे देख रहे हैं वह चिंता की बात है। दूसरी बात जो सबसे बड़ी परेशान करने वाली है वह यह कि इन मैचों पर सट्टे लगने के समाचार भी आते हैं और इस खेल में राष्ट्रनिरपेक्ष भाव पैदा करने वाले प्रचार माध्यम यही बताने से भी नहीं चूकते कि इसमें फिक्सिंग की संभावना है। सब होता रहे पर दाव लगाने वाले युवकों को बर्बाद होने से बचना चाहिेए। इसे मनोंरजन की तरह देखें पर दाव कतई न लगायें। राष्ट्रप्र्रेम न दिखायें तो राष्ट्रनिरपेक्ष भी न रहे। हम तो अब भी यही दोहराते हैं कि ‘क्रिकेट में सब चलता है यार।’
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Friday, April 9, 2010

डर है घर के नादानों से-हिन्दी शायरी (ghar ke nadan-hindi shayri)

घाव थोड़ा हो वह ज्यादा दिखलाते हैं,
भला करने वाले इसलिये कहलाते हैं।
लाल स्याही से लिखते, जमाने का बयान,
जंग का इनाम अमन बताते हैं।
रहबर हो गये कुर्बाल, जमाने के लिये
वह उनके उसूलों
पर उंगली उठाते हैं।
वातानुकूलित कक्षों मे रहते, कारों में जाते हुए
बदनसीबों की बदहाली से अपनी नज़र मिलाते हैं।
जवानी से बुढ़ापे तक, किया पाखंड का सौदा
जमीन पर बिखरे जवां खून में भी वह फर्क दिखाते हैं।
कहें दीपक बापू, दुश्मन इतने खतरनाक नहीं
डर है घर के नादानों
से, जो अपनी नीयत छिपाते हैं।
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कैमरा था जब उनके सामने
बेबसों के कत्लेआम पर वह आंसु बहा रहे थे।
जो उससे हुए दूर तो
शराब खाने में मुस्कराते हुए जाम में नहा रहे थे।
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Sunday, April 4, 2010

मोहब्बत के जज़्बात-हिन्दी शायरी (mohbbat ke jazbat-hindi shayri)

इश्क के चर्चे जमाने में बहुत हुए,
जो एक हुए दो बदन
लोगों ने बीता कल मान लिया।
जो उतरा हवस का भूत
तो घर का बोझ
दिमाग पर बढ़ने लगा
जिंदगी में फिर कभी इश्क का नाम न लिया।
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जो पत्नी को प्रियतमा न समझे
भटके हैं प्यार पाने के लिये इस दर से उस दर।
दिल में पल रहे जज़्बात
जमीन पर चलते नहीं देखे जाते,
इश्क है या हवस
इसकी पहचान नहीं कर पाते,
सर्वशक्तिमान समझे जो इंसानी जिस्म को
मोहब्बत नहीं टिकती कभी उनके घर।
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Thursday, April 1, 2010

अपने दर्द पर हंसना सीख लो-हिन्दी शायरी (apne dard par hansna seekh lo-hindi shayri)

अपने दर्द का बोझ कब तक सहेंगे।
हल्का लगेगा जब दिल से हंसेंगे।
अपने ख्वाब पूरे होने की सौदागरों से चाहत
कब तक ईमान बेचकर पूरी करेंगे।
बाजार में बिकती है ढेर सारी शयें
उनके कबाड़ होने पर, घर कब तक भरेंगे।
दिखा रहे हैं बड़े और छोटे पर्दे पर नकली दृश्य
झूठे जज़्बातों से कब तक अपना दिल भरेंगे।
अपने दर्द पर हंसना सीख लो यारों
रोते हुए जिंदगी के दरिया में कब तक बहेंगे।
दिल को दे सुकून, भुला दे सारे गम
वह दवा तभी बनेगी, जब खुद अपनी बात पर हंसेंगे।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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