Monday, March 31, 2014

आदर्श के लिये युद्ध-हिन्दी व्यंग्य कविता(adarssh ke liye yuddh)



जिनसे उम्मीद होती मौके पर सहारे की
वही ताना देकर हैरान करने लगें,
क्या कहें उनको
ढांढस देना चाहिये जिनको जिंदगी की जंग में
वही हमारी हालातों को देखकर डरने लगें।
कहें दीपक बापू ऊंचे महलों में जो रहते हैं,
महंगे वाहनों में सड़क पर साहबों की तरह बहते हैं,
दौलतमंद है,
मगर देह से मंद है,
मन उनके बंद हैं,
आदर्श के लिये युद्ध वह क्या लड़ेंगे
अपना घर बचाने के लिये
जो अपने से ताकतवर के यहां पानी भरने लगें।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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Thursday, March 27, 2014

सिंहासन का स्वाद-हिन्दी क्षणिका(sinhasan ka swad-hindi short poem)



सिंहासन का स्वाद जिसने एक बार चखा
वह विलासिता का आदी हो जाता है,
दिन दरबार में बजाता चैन की बंसी
रात को राजमहल में निद्रा वासी हो जाता है।
कहें दीपक बापू दुनियां चल रही भगवान भरोसे
बादशाह अपने फरिश्ते होने की गलतफहमी मे रहते
आम आदमी अपने कड़वे सच में भी
भगवान दरबार में जाकर भक्ति का आनंद उठाता है।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
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Sunday, March 23, 2014

मजेदार खेल-हिन्दी व्यंग्य कविता(mazedar khel-hindi vyangya kavita or satire poem)





एक बार सिरमौर बने वह
स्वय को सदाबहार नायक समझने लगे,
पीछे भीड़ में खड़े लोगों को अपनी पालतु भेड़ कहने लगे।
ऊंचे ओहदे पर बैठकर जिन्होंने छोटे इंसानों के सिर पर हाथ फेरा,
वहां से गिरने के भय से उनके दिल में पड़ जाता चिंता का घेरा,
जहान  की भलाई का देकर नारा जिन्होंने अपने महल बनाये,
सोचते हैं कि ऊंचे पद सर्वशक्तिमान ने उनके लिये ही रचाये,
जिनके साथ किया जिंदगी का सफर उनको बेवफा नज़र आते हैं,
अपनी जुबान संजीदा होकर अपनी नेकनीयती में देवत्व जताते हैं,
कहें दीपक बापू लोकतंत्र का यह खेल होता है तब  मजेदार
ऊंचे ओहदे के अहम में सोते लोग खतरा देखकर जब नींद से जगे।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
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Saturday, March 15, 2014

होली के अवसर पर हृदय की सफाई-हिन्दी हास्य कविता(holi ke awasar par hridya ki safai-hindi hasya kavita)



घर पर आया फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू इस बार देश में
बढ़ गयी है बहुत महंगाई,
गरीब तो टूटा है
मध्यम वर्ग वाला भी हो गया गरीब
हमें रंग न खेलकर
समाज सेवा का व्रत लेना है
यही सोच मेरे मन में आई,
आप तो फ्लाप कवि हो
पिटती हैं आपकी अंतर्जाल पर कविता
इसलिये कुछ नया करो
समाज सेवा के लिये बनाओ संस्था
करो आमजन की भलाई।’’
सुनकर हंसे और बोले दीपक बापू
‘‘लगता है होली का मजाक करने आये हो,
हमारे फ्लाप होने का सच
हमारे सामने धरने आये हो,
हमारी पुरानी टोपी
फटी धोती
और पैबंद लगा कुर्ता देखकर
तुम्हें परेशानी होती है,
की नहीं कभी कविता से कमाई
यह देखकर तुम्हारी नीयत पानी पानी होती है,
तुम जानते हो अच्छी तरह
नये ज़माने में समाज सेवा भी
एक तरह से हो गयी धंधा,
लाचारों के नाम पर सजाओ दुकान
कभी हवाई जहाज में करो दौरा
कभी कार में करो खरीददारी
बांट सको तो ठीक
नही हैं अपने काम में लाओ चंदा,
पहले प्रचार में प्रसिद्धि,
फिर उसके नकदीकरण में दिखाओ अपनी सिद्धि,
हमसे यह नहीं हो पायेगा,
पराये धन पर मजे करना हमें ही सतायेगा,
वैसे भी होली हम क्या मनायेंगे,
हालातों कर दिये सभी रंग लगते हैं फीके
किसी पर क्या लगायेंगे,
करेंगे कुछ चिंत्तन
कुछ रचेंगे हास्य कवितायें
देश की तो नहीं कर सकते
अपनी हृदय की ही करेंगे सफाई।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
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Monday, March 10, 2014

रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख-धनी समाज में समरसता का भाव स्थापित करने का प्रयास करें(rahim darshan par aadhari chinntan lekh-dhani smaj mein samrasta ka bhav sthapit karna ka prayas kaen)



      हमारे देश में कुछ उत्साही बुद्धिमान तथा समाज सेवक विदेशी विचारधाराओं के सिद्धांत उधार लेकर देश में गरीबों के उद्धार के लिये अभियान छेड़ने का स्वांग रचते हैं।  आमतौर से यह माना जाता है कि भारत में केवल भक्ति करने वाले उन विद्वानों की प्रसिद्ध मिली है जिन्होंने परमात्मा का स्मरण करने का लोगों का संदेश दिया है। उन्होंने अपने समाज की स्थिति से कोई मतलब नहीं रखा। यह सोच गलत है।  हमारे अध्यात्मिक विद्वानों ने हमेशा ही समाज में कमजोर, गरीब तथा बेबस की सहायता के लिये लोगों को प्रेरित किया है।  कार्ल मार्क्स को मजदूरी का मसीहा बताकर भारत में प्रचार करने वाले कुछ उत्साही विद्वान यह मानते है कि पूंजीवाद नामक दैत्य की खोज उन्होंने ही की थी जिसे नष्ट करने के सूत्र भी बताये।  ऐसा नहीं है क्योंकि  हमारे देश में तो अध्यात्मिक विद्वान न केवल तत्वज्ञान का संदेश देने के साथ ही  समाज में समरसता का भाव बनाये रखने का विचार तथा योजना भी बताते रहे हैं। उनका मानना रहा है कि जब तक आप अपने आसपास सहजता का वातावरण नहीं बनाये रखते तब तक स्वयं भी खुश नहीं रह सकते।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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बढ़त रहीम धनाढय धन, धनौ धनी को जाई।
घटैं बढ़े वाको कहा, भीख मांगि जो खाई।
     हिन्दी में भावार्थ-धनी का धन बढ़ता ही जाता है और जो श्रमिक उसका स्वामी है वह उसे पा नहीं सकता।  जो व्यक्ति भीख मांग कर जीवन गुजारता है उसके लिये धन घटने या बढ़ने का कोई अर्थ नहीं है।
      हमारे अध्यात्मिक विद्वान मानते हैं कि धन का असली स्वामी तो उसका सृजक श्रमिक ही है।  वह यह भी मानते हैं कि धनी बीच में अपना हाथ डालकर धन की नदी से गरीब के घर जाती धारा से अपना अधिक हिस्सा मार लेता है। इतना ही नहीं हमारे अध्यात्मिक चिंत्तकों ने धर्म के नाम पर रचे जा रहे उस पाखंड पर भी अपनी वक्र दृष्टि डाली है जिससे गरीबों में मसीहाई छवि बनाने वाले कथित संत और महात्मा धनिकों की रक्षा का काम करते हैं। वह गरीबों और मजदूरों को धार्मिक कथाओं में व्यस्त रखकर उन्हें अपने उपदेशों से भटकाते हैं।  स्वयं मोह और माया के चक्कर में रहते हैं और लोगों से कहते हैं कि दूर रहो।  इस तरह वह समाज में धनिकों के लिये संभावित विद्रोह को रोके रहते हैं।
      कहने का अभिप्राय यह है कि गरीब, बेबस, लाचार और अस्वस्थ लोगों की सहायता करने का विचार हमारे देश के अध्यात्मिक विद्वानों का भी रहा है।  यह कहना व्यर्थ है कि भारत में बाहर से आये कथित सभ्य लोगों ने यहा कोई वैचारिक क्रांति की है। हमें समाज में समरसता का भाव अपने पंरपरागत ढंग से दान, सहायता अथवा उपहार देकर करने का प्रयास करना चाहिये न कि विदेशी विचारधाराओं का मुंह ताकना चाहिये।

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Monday, March 3, 2014

सामान और दिल के रिश्ते-हिन्दी व्यंग्य कविता(saman aur dil ke rishtey-hindi vyangya kavita)



देश के विकास का हमने अब रिश्ता महंगाई से जोड़ लिया है,
घर के रिश्तों के दाम का आंकलन भी बाज़ार पर छोड़ दिया है।
ईंधन के दाम हर रोज बढ़ने का समाचार  आता है
मन में चिंताओं का उठता धुंआ ख्याल पर अंधेरा छा जाता है,
शादी हो या गमी अपनी इज्जत बढ़ाने के लिये लोग खाना बांटते,
कुछ लेते कर्जा कुछ अपनी तिजोरियों में रुपये छांटते,
तत्वज्ञान बघारने वाले बहुत है मगर पाखंड कोई नहीं छोड़ता,
रस्म निभाने के लिये जिंदगी गंवाकर हर कोई दौलत जोड़ता,
कहें दीपक बापू दिन-ब-दिन समाज सिकुड़ रहा है
सामानों की चाहतों ने इंसान के दिल के रिश्तों को तोड़ दिया है।
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