Saturday, August 29, 2009

कविता की शाम-हास्य कविता (evening of hindi poem-hasya kavita)

एक पुराने कवि ने
अपनी पहली कविता लिखने के दिवस को
साहित्यक पदार्पण दिवस के
रूप में मनाया।
ढेर सारे हिट और फ्लाप कवियों का
जमघट होटल में लगाया।
चला दौर जाम का
कविता के नाम का
सभी ने अपना ग्लास एक दूसरे से टकराया।

अकेले में एक फ्लाप कवि ने
उस कवि से पूछ लिया
‘आप तो पीते हो जाम
बातें करते हो आदर्श की सरेआम
भला या विरोधाभास कैसे दिख रहा है
लोग नहीं देखते यह सब
जबकि अपने नाम खूब कमाया।’

सुनकर वह पुराना कवि हंस पड़ा
और बोला-‘
‘अभी नये आये हो सब पता चल जायेगा
बिना पिये यह जाम
नहीं सज सकती कविता की शाम
जब तक हलक से न उतरे
देश में तरक्की की बात करने का
जज्बा नहीं आ सकता
एकता, अखंडता और जन कल्याण का
नारा कभी नहीं छा सकता
गला जब तर होता है तभी
ख्याल वहां पैदा होते हैं
आम लोग करते हैं वाह वाह
गहराई से चिंतन लिखने वाले
हमेशा ही असफल होकर रोते हैं
अंग्रेज अपनी संस्कृति के साथ
छोड़ गये यह बोतल भी यहां
आजादी की दीवानगी पर लिखने वाले भी
उनके गुलाम होकर विचरते यहां
पढ़ते लिखते नहीं धर्म की किताबें
उन भी हम बरस जाते
सारे धर्म छोड़कर इंसान धर्म मानने की
बात कहकर ऐसे ही नहीं हिट हो जाते
साथ में प्रगति के प्रतीक भी बन जाते
ओढ़े बैठे हैं जो धर्म की किताबों की चादर
उनको अंधविश्वासी बताकर जमाने से दूर हम हटाते
हमने जब भी बिताई अपनी शाम
कविता और साहित्य के नाम छलकाये
बस! इसी तरह जाम
कभी नहीं रखा धर्म से वास्ता
जाम से सराबोर नैतिकता का बनाया अपना ही रास्ता
ऐसे ही नहीं इतिहास में नाम दर्ज कराया।’

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Tuesday, August 25, 2009

मजहब और बदलाव-हिंदी व्यंग्य कविता (dharm aur badlav-hindi shayri

बूढ़ी इमारतों की तरह खड़े हैं
उन्हें ढहाना जरूरी
लगता है
पर नया मजहब मत बनाओ।


प्यार और दया तो  इंसानी खून में होते हैं
तुम
अपने लफ्ज और लकीरें खींचकर
कोई नया पैगाम न लाओ।


भूख और प्यास कुदरत का
दिया तोहफा है
जो
इंसान को दुनियां घुमाता है
तुम उसे अपने कागज पर
तकलीफों की तरह न
सजाओ।


जरुरतों के गुलामों की जंजीरों को
सर्वशक्तिमान
नहीं तोड़ सकता
तुम भी ऐसा दावा न जताओ।


दूसरों से उधार लेकर सोच
तुम अपने ख्यालों के
चिराग जला रहे हो
जिंदगी एक बहता दरिया है
जिस पर कोई काबू नहीं कर
सकता
रास्ते बदल सको जमाने के
तुम अपनी ताकत ऐसी न बताओ।


गुस्से को सजाकर शायरी में सजाकर
वाह वाही
बटोरने वालों
जोश से कभी जिंदगी नहीं बदलती
भले ही दिल में बदलाव की चाहत
मचलती
नया मजहब लाकर
कोई दूसरा पैगाम सजाकर
दुनियां में बदला का ख्याल
अच्छा लगता है
पर हर सोच पर झगड़ा बढ़ता  है
जिदंगी को अपनी राह पर
अपनी गति
से चलने दो
सिखाओ लोगों को आंख से देखना
कान से सुनना
दिमाग से
सोचना
वरना तो सामने बैठे जो बैठे है
कुदरत के ऐसे बुत हैं
जो केवल वाह
वाही कर सकते हैं
या बजा सकते हैं तालियां
कुछ दे सकते हैं गालियां
पर
उनसे बदलाव की उम्मीद न लगाओ।
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Friday, August 21, 2009

विभाजन का यह सच भी हो सकता है-आलेख (truth of independent-hindi article)

1947 में देश के दो भागों-बाद में तीन भाग हो गये-में बंटने का मुद्दा अक्सर चर्चा का विषय बनता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि जैसे रटीरटाई बातें फिर दोहराई जा रही हैं। इतिहास के दर्ज तथ्यों का विश्लेषण कागजों में दर्ज और दृश्यव्य पात्रों के आधार सीमित दायरे में करना सभी के लिये आसान है पर अगर उससे अलग हटकर विचार करना हो तो बहुत मुश्किल होता है। इस लेखक के पूर्वजों ने उस विभाजन का दर्द भोगा है और उनसे समय समय पर हुई चर्चा में अनेक ऐसी बातें हैं जो अनेक बार दोहराई जा चुकी हैं। फिर भी ऐसा लगता है कि कुछ ऐसा है जिस पर किसी विद्वान ने दृष्टिपात करने का प्रयास नहीं किया है। हम यहां थोड़ा दृश्यव्य पात्रों के पीछे जाकर देखने का प्रयास करें तो लगता है कि भारत के विभाजन में इस देश के लोग नहीं बल्कि ब्रिटेन के रणनीतिकारों की कुटिल चालें जिम्मेदार हैं। ऐसा लगता है कि इस देश में महात्मा गांधी के अलावा तो कोई ऐसा व्यक्ति न था जिसमें देश का विभाजन कराने या उसे रोकने का माद्दा था।
हम अपने भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन गाथा को जानते हैं। मगर दुर्भाग्य यह है कि हमने उनके कार्य और प्रभाव का आंकलन केवल स्वतंत्रता संग्राम तक ही सीमित करते हुए देखते हैं और इस बात को भूल जाते हैं कि हमारे देश की स्वतत्रंता के केवल हमें ही मतलब था अन्य किसी को नहीं-शेष विश्व के लिये तो महात्मा गांधी एक विराट व्यक्तित्व थे। महात्मा गांधी जैसे चरित्र विरले होते हैं और इस बात की पूरी संभावना थी कि अगर इस देश की आजादी और स्वरूप वही होता जैसा वह चाहते थे तो संभवतः वह विश्व में भगवान की तरह पुजते और उनके बैरी यही नहीं चाहते थे और विभाजन उनकी इसी कुटिल नीति का परिणाम था।
हम महात्मा गांधी के चरित्र और जीवन के विश्लेषण से पहले स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानियों को नमन करना नहीं भूल सकते। शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकल्ला, उधम सिंह, वीर सावरकर सुभाषचंद्र बोस तथा अन्य कितने ही क्रांतिकारियों के नाम इतिहास में दर्ज हैं और उनकी भूमिका को कम आंकना गद्दारी करने जैसा है, मगर इतिहास हो या साहित्य उसे हमेशा ही अपनी रचना और पाठ के लिये एक शीर्षक की आवश्यकता होती है। अगर हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक प्राकृतिक पाठ माने तो उसके शीर्षक में महात्मा गांधी का नाम आता है। यह शीर्षक देने की बाध्यता है कि दक्षिण अफ्रीका में भी अनेक नेताओं ने बलिदान किये पर वहां शीर्षक पर नाम आया नेल्सन मंडेला का। हम भारतीय स्वतत्रंता संग्राम के शीर्ष पुरुष महात्मा गांधी को केवल देश की आजादी के परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं इसलिये हमारा ध्यान उन तथ्यों से हट जाता है जिसकी वजह से देश का विभाजन हुआ।
दक्षिण अफ्रीका में एक ट्रेन से यात्रा करते हुए एक भारतीय बैरिस्टर को इसलिये डिब्बे से उतारा गया क्योंकि वह अंग्रेजों के लिये सुरक्षित था। हां, यह जंग उसी दिन ही शुरु हुई और उसका समापन भारतीय विभाजन पर ही हुआ। वह बैरिस्टर थे महात्मा गांधी जिन्हें वह अपमान सहन नहीं हुआ। उसके बाद तो उन्होंने अफ्रीका में भेदभाव के खिलाफ आंदोलन शुरु किया। लोग इस आंदोलन का अब सही मतलब नहीं समझते। दरअसल सशस्त्र संघर्ष जीतने वाले अंग्रेजों के लिये महात्मा गांधी का अहिंसक संघर्ष कांटे चुभने जैसा था। उस समय अंग्रेज बहुत ताकतवर थे पर वह अपने आपको सभ्य, शिष्ट और नई दुनियां का जनक दिखने की उनकी ख्वाहिश सब जानते थे। हिंसा का प्रतिकार करने में उनका कोई सानी नहीं था पर जस की तस नीति अपनाते हुए इन अंग्रेजों के विरोधी भी हिंसा कर रहे थे। इन हिंसक आदोलनों और युद्धों को कुचलते हुए अंग्रेज विजय राह पर चलते जाते और फिर अपने चेहरे और चरित्र से सभ्य दिखने का प्रयास करते। अनेक देशों के समाजों के अंतद्वंद्वों में प्रवेश कर वह न्यायप्रिय दिखने का प्रयास करते। गोरे चेहरे की वजह से लोगों का उनके प्रति वैसे भी आकर्षण था।
अंग्रेजों को पास से देखने वाले श्री महात्मा गांधी इस बात को समझ गये और उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह का सहारा लिया। अंग्र्रेजों के पास इसका कोई जवाब कभी नहीं रहा। अगर वह महात्मा गांधी से हिंसक तरीके से निपटते तो उनके सभ्य होने की सारी पोल खुल जाती और नहीं निपटते तो उनका रथ बढ़ता ही जा रहा था। यह रथ केवल स्वतंत्रता प्राप्ति तक ही सीमित नहीं रहने वाला था क्योंकि इसके परिणाम एतिहासिक होने थे और संभव है कि वह विश्व के एक ऐसे मसीहा बन जाते जिसके आगे अंग्रेजों के इष्ट देव भी फीके नजर आते।
अंग्रेज हार रहे थे। भारत में राज्य करना उनके लिये आसान नहीं था। इसके अलावा द्वितीय विश्व युद्ध में महात्मा गांधी की सकारात्मक भूमिका ने आम अंगेे्रज के मन में उनके प्रति श्रद्धा भर दी थी। अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय लिया पर उनके रणपनीतिकारों के मन में महात्मा गांधी के प्रति बदले की भावना होने के साथ ही यह चिंता भी थी कि कहीं आगे चलकर उनके देश में महात्मा गांधी जी के स्मारक जगह जगह न बनने लगे।
भारत का विभाजन उनकी एक दूरगामी योजना का हिस्सा था और इसे केवल एक ही आदमी जानता था। वह थे स्वयं महात्मा गांधी। हम अगर उनके विचारों और कार्यों का अवलोकन करें तो यह सच सामने आता है कि इस धरती पर गोरों की चालाकियों का इलाज करने वाला एक ही चिकित्सक था ‘महात्मा गांधी‘।
गांधी जी विभाजन के लिये तैयार नहीं थे पर उनके आसपास अंग्रेज अपना जाल बुन चुके थे। शासन पर उनका बरसों से नियंत्रण था इसलिये उनके लोग हर जगह थे और यह कोई आसान काम नहीं था कि उसके सहारे वह आजादी के तत्काल बाद तक अपना हित पूरे करवा सकें। सच तो यह गुलामी के अंतिम दिनों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम केवल महात्मा विरुद्ध अंग्रेज तक ही सीमित रह गया था और इसे उनके अलावा कोई नहीं जान पाया।
स्वतंत्रता संग्राम अंततः एक आंदोलन था और उसमें महात्मा गांधी के अलावा अन्य सैंकडों लोग थे। शायद उस समय एक नहीं हजारों लोग ऐसे थे जो आजादी पाने के लिये उतावले थे और ऐसे में महात्मा गांधी के लिये अकेले अपना निर्णय थोपना आसान नहीं रह गया था। उन्होंने अनिच्छा से विभाजन होने दिया मगर अंग्रेज इससे संतुष्ट नहीं होने वाले थे। उनका मुख्य ध्येय तो महात्मा गांधी से बदला लेना था। शासन में उनकी पैठ इतनी आसानी से समाप्त नहीं होने वाली थी। यही कारण है कि निचले स्तर पर उनके ही लोगों ने हिंसा का तांडव शुरु किया होगा-यह भी संभव है कि उन्होंने स्वयं हिंसा न कर हिंसक तत्वों को खुलेआम ऐसा करने की छूट दी होगी।
एक बात याद रखिये। अंग्रेजों का इष्ट देव भी गुलामों को आजादी दिलाने के कारण ही पूरे विश्व में पूजा जाता है ऐसे में इस बात की आशंका उनको रही होगी कि कहीं महात्मा गांधी उनकी जगह न लें। यही कारण है कि उन्होंने सोची समझी योजना के तहत इस हिंसा का आयोजन किया होगा। दरअसल उनका उद्देश्य भारत का विभाजन करने से अधिक उसकी आड़ में हिंसा कराना ही रहा होगा।
क्या यह विडंबना नहीं है कि जिन महात्मा गांधी ने अनेक बार अंग्रेजों की हिंसा के विरुद्ध सत्याग्रह किया वही आजादी के तत्काल बाद अपने ही लोगों के कुकृत्य के विरुद्ध उसी हथियार का सहारा ले रहे थे-याद रहे नोआखली में उन्होंने देश में हुई हिंसा के विरुद्ध सत्याग्रह किया था। दरअसल यह हिंसा देश की हार थी और अंग्रेज पूरे विश्व में यह संदेश देने में सफल हो गये थे कि महात्मा गांधी के संदेश को तो उनके लोग ही नहीं मानते। इसके अलावा चर्चिल भी कहा करते थे कि भारतीयों को राज्य करना नहीं आता-अंग्रेज उसे प्रमाणित करते हुए विजयी मुद्रा में इस देश से विदा हुए थे और यहां से जाने का दर्द इसी हिंसा को देखकर भुलाया था।
कुछ लोगों कहते हैं कि इसने विभाजन कराया या उसने जो कि उनका केवल भ्रम है। बाकी सारे पात्र तो केवल जाने अनजाने अंग्रेजों के अनुकूल अभिनय कर रहे थे। उस समय महात्मा गांधी के अलावा कोई ऐसा दमदार शख्स नहीं था जो उनको अपनी औकात दिखा सके।
यह इस पाठ के लेखक की अपनी सोच है और उसका आधार इस देश में समय समय पर योजनाबद्ध रूप से सामूहिक हिंसा हुई अनेक ऐसी घटनायें हैं जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह प्रवृत्ति अंग्रेजों की ही देन है। याद रखिये घटनाओं की तारीख, समय और पात्र बदल सकते हैं पर उनसे झांकती प्रवृत्तियां हमेशा यहां रहती हैं और समय समय पर प्रकट होती हैं।
इस पाठ की प्रेरणा भी एक दो घटना से नहीं मिली बल्कि अनेक अवसरों पर इस विषय पर होने वाली चर्चाओं के समय इस लेखक के मन में यह विचार आते हैं।
कहने को विश्व में अनेक नेता हुए हैं पर महात्मा गांधी जैसे विलक्षण व्यक्तित्व कभी कभी आते हैं। एक मजे की बात यह है कि अंग्रेज वर्तमान सभ्यता को अपनी ही देन समझते हैं और महात्मा गांधी का अहिंसा का मंत्र इसी सभ्यता में ही सर्वाधिक महत्व का है। अंग्रेजों को यह दर्द आज तक सताता है कि उनकी काट हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन जैसे सैन्य बल से संपन्न योद्धा नहीं ढूंढ पाये उसे एक काले बैरिस्टर ने ढूंढ निकाला। वह उस टीटी को कोसते होंगे जिसने उसे ट्रेन के डिब्बे से उतारा था। आखिरी बात यह है कि गांधीजी की अहिंसा और सत्याग्रह का मंत्र किसी भी आंदोलन को ताकत दे सकता है पर बशर्ते है कि उसके नेताओं में सब्र हो।
यह इस पाठ के लेखक की एक सोच है जो कई बरसों से दिमाग में घुमड़ रही थी जिसे आज व्यक्त कर दिया। एक मामूली लेखक के लिये इससे अधिक भूमिका होती भी नहीं है। हो सकता है कि इस सोच में कमी हो पर दृश्यव्य इतिहास के पीछे झांकने का प्रयास करना कोई सरल काम नहीं होता। इसमें मूर्खतायें हो जाना स्वाभाविक हैं।
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Sunday, August 9, 2009

चमड़ी हो या दमड़ी-हास्य कविता (chamdi ho damdi-hasya kavita)

स्वाईन फ्लू की बीमारी ने आते ही देश में प्रसिद्धि आई।
इतने इंतजार के बाद, आखिर शिकार ढूंढते विदेश से आई।।
ढेर सारी देसी बीमारियां पंक्तिबद्ध खड़ी होकर खड़ी थी
पर तब भी विदेश में बीमारी के नृत्य की खबरें यहां पर छाई।
देसी कुत्ता हो या बीमारी उसकी चर्चा में मजा नहीं आता
देसी खाने और दवा के स्वाद से नहीं होती उनको कमाई।।
महीनों से लेते रहे स्वाईन फ्लू का नाम बड़ी शिद्दत से
उससे तो फरिश्ता भी प्रकट हो जाता, यह तो बीमारी है भाई।।
करने लगे हैं लोग, देसी बीमारी का देसी दवा से इलाज
बड़ी मुश्किल से कोई बीमारी धंधा कराने विदेश से आई।।
कहैं दीपक बापू मजाक भी कितनी गंभीरता से होता है
चमड़ी हो या दमड़ी, सम्मान वही पायेगी जो विदेश से आई।।

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Thursday, August 6, 2009

स्वाइन फ्लू का इलाज-लघु हास्य व्यंग्य (swine flu ka ilaj-hasya vyangya)

उसने चैराहे पर मजमा लगा लिया।
‘आईये भद्रजनो, दुनियां की सबसे खतरनाक बीमारी ‘स्वाईन फ्लू’ का सही तरह से दलाज करने वाली दवाई खरीदे। यह विदेश से आयी है और इसकी दवा भी वहीं से खासतौर से मंगवाई है।’
लोगों की भीड़ जमा हो गयी। वह बोलता जा रहा था-‘यह बीमारी आ रही है। सभी एयरपोर्ट पर पहुंच गयी है। इसे रोकने की कितनी भी कोशिश करो। जब यहां पहुंचे जायेगी तब इसका मिलना मुश्किल होगी। पचास रुपये की शीशी खरीद लीजिये और निश्चित हो जाईये।’
एक दर्शक ने पूछा-‘तपेदिक की दवा हो तो मुझे दे दो! मुझे इस बीमारी ने परेशान किया है। बहुत इलाज करवाया पर कोई लाभ नहीं हुआ।’
‘हटो यहां से! क्या देशी बीमारियों का नाम लेते हो। अरे यह स्वाइन फ्लू खतरनाक विदेशी बीमारी है। तुम अभी इसे जानते नहीं हो।’ वह फिर भीड़ की तरह मुखातिब होकर बोला-हां! तो मैं कह रहा था.....................’’
इतने में दूसरा बोला-‘इसका नाम टीवी पर रोज सुन रहे हैं, पर मलेरिया का कोई इलाज हो तो बताओ। मेरे दोस्त को हो गयी है। वह भी इलाज के लिये परेशान है।’
वह बोला-‘हटो यहां से! देसी बीमारियों का मेरे सामने नाम मत लो।’

वह बोलता रहा। आखिर में उसने अपनी पेटी खोली। लोगों ने दवाई खरीदी। कुछ चलते बने। एक आदमी ने उत्सकुता से उससे पूछा-‘पर यह स्वाईन फ्लू बीमारी होती कैसे है और इसके लक्षण क्या हैं?
उसने कहा-‘पहले दवाई खरीद लो तो समझा देता हूं।’
उस आदमी ने पचास रुपये निकाल कर बढ़ाये और दवाई की शीशी हाथ में ली। उसने अपनी पेटी बंद की और चलने लगा। उस आदमी ने कहा-‘भई, मैंने इस बीमारी के बारे में पूछा था कि यह होती कैसे है और इसके लक्षण क्या हैं? उसका उत्तर तो देते जाओ।’
उसने कहा-‘जाकर टीवी पर सुन लेना। मेरा काम स्वाईन फ्लू की दवाई बेचना है। बीमारी का प्रचार करने का काम जिसका है वही करेंगे।’
वह चला गया और सवाल पूछने वाला आदमी कभी शीशी को कभी उसकी ओर देखता रहा।
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Sunday, August 2, 2009

शिकायतों का पुलिंदा-हिंदी मुक्त कविता (shikayat ka pulinda-hindi mukt kavita)

यादों में जो बसता है
उसका नाम जुबां से बयां कहां होता है।

दिलबर नजर से हो कितना भी दूर
उसके पास होने का हमेशा अहसास होता है

आंखों में बसा दिखता है यह पूरा जमाना
पर ख्याल में जो बसा, वही दिल के पास होता है।
..........................
तंगदिल साथी के साथ
जिंदगी का यह सफर
तन्हाई में गुजरता जाता है।

शिकायतों का पुलिंदा ढोते हैं साथ
उम्मीद नहीं है, चाहे पास है उसका हाथ
शिकायतों का बोझ दिल में लिये
कारवां राह पर, खामोशी से गुजरता जाता है।

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Saturday, August 1, 2009

झगड़ा जोरदार, खबर धारदार-हिन्दी लघुकथा (hindi laghu katha)

उससे कहा गया की वह बहुत दिन से कोई खबर नहीं लाया है और आज अगर आज कोई खास नहीं लाया तो उसकी नौकरी भी जा सकती है।
वह दफ्तर से कैमरा लेकर निकला और बाहर खडा हो गया. उसने वहाँ पास से गुजरते एक आदमी से पूछा-ष्तुम आस्तिक हो या नास्तिक? जो भी हो तो क्यों? बताओ मैं तुम्हारा बयान और चेहरा अपने कैमरे से सबको दिखा चाहता हूँ।
उस आदमी ने कहा-मैं आस्तिक हूँ और अभी मंदिर जा रहा हूँ। बाकी वहाँ से लौटकर बताऊंगा।

वह चला गया तो दूसरा आदमी वहाँ से गुजरा तो उसने वही प्रश्न उससे दोहराया। उसने जवाब दिया-श्मैं नास्तिक हूँ और अभी शराब पीने जा रहा हूँ। उसके कुछ पैग पीने के बाद ही बता पाऊंगा। तुम रुको मैं अभी आता हूँ।

वह अपना कैमरा लेकर टीवी टावर पर चढ़ गया। थोडी देर बाद दोनों लौटे। उसको न देखकर दोनों ने एक दूसरे से पूछाश्श्वह कैमरे वाला कहाँ है?
फिर दोनों का परिचय हुआ तो असली मुद्दा भी सामने आया। दोनों के बीच बहस शुरू हो गई और नौबत झगडे तक आ पहुची। दोनों अपनी कमीज की आस्तीन ऊपर कर झगडे की तैयारी कर रहे थे। उनके बीच गाली-गलौच सुनकर भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। उसमें से एक समझदार आदमी ने दोनों से पूछा ‘‘पहले यह बताओ की यह प्रश्न आया कहाँ से? किसने तुम्हें इस बहस में उलझाया।’’

दोनों इधर-उधर देखने लगे तब तक वह कैमरा लेकर नीचे उतर आया। दोनों ने उसकी तरफ इशारा किया। उसने दोनों से कहा-आप दोनों का धन्यवाद! मुझे मिल गयी आज की जोरदार खबर!’’

वह चला गया। दोनों हैरान होकर उसे देखने लगे। समझदार आदमी ने कहा-तुम दोनों भी घर जाओ और उसकी जोरदार खबर देखो। हम सबने यहां देख ली, तुम नहीं देख पाए यह जोरदार खबर, क्योंकि तुम दोनों आस्तिक-नास्तिक के झगडे में व्यस्त थे तो कहाँ से देखते। वैसे हम भी जा रहे हैं क्योंकि यह खबर दोबारा टीवी पर देखकर भी मजा आयेगा।’’
दोनों वहीं हतप्रभ खडे रहे और भीड़ के सब लोग वहाँ से चले गए अपने घर वह आज की जोरदार खबर देखने।
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