Tuesday, November 25, 2008

अपने जुर्म को अपनी जुबान से इन्साफ कहें-हिन्दी शायरी

रखें हैं उन्होंने जमाने भर का हिसाब
पर अपने पापों का बहता घडा
सब की नज़र से छिपाने के लिए
लोगों के दिल में खौफ करते हैं पैदा
ताकि वह उनका लोहा मानते रहे
दूसरे के जुल्म का भय का शैतान
एक बुत बनाकर रख देते हैं
जिससे डरे लोग
उनकी दगाओं को प्यार समझते रहें

लोगों के जज़्बातों के सहारे चलते हैं
जिनके व्यापार
उनके दिल में कोई जज़्बा नहीं होता
दौलत और शौहरत कमाने वालों के
लिए इन्सान एक शय भर होता
मर जाए या जिन्दा बचे
उनके लिए बीच बाज़ार बिकता रहे
छोटा हो या बड़ा हो इंसान
आँखें हों पर देखे नहीं
कान है पर सुने नहीं
जुबान हैं पर एक शब्द भी बोले नहीं
हाड़मांस का बुत बनकर चलता रहे
इन सौदागरों के ख़ुद के ईमान का पता नहीं
दूसरे का खरीद लेते हैं
जो न बेचे जान उसकी छीन लेते हैं
उन सौदागरों के पेट हैं मोटे
जुबान पर है वफ़ा का नाम
पर नीयत के हैं खोटे
हर आदमी को गुलाम बनाने के लिए
हर तरह के हथियार जमा कर लेते हैं
ज़माने की भलाई का तो नाम है बस
अपने जुर्म को अपनी जुबान से वह इन्साफ कहें
भले लोग उन्हें बताते जो
उनके जुर्म बड़े प्यार से सहें

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Thursday, November 20, 2008

इसलिये उभारते दूसरे के गम-व्यंग्य शायरी

कुछ ख्वाब कुछ हकीकतें
जिंदगी का कारवां
हम बढ़ाये जा रहे यूं ही हम
कभी खुशी तो कभी गम
न किसी की शिकायत करते
न ही किसी की शान में
कभी झूठे कसीदे पढ़ते
खामोशी से चलते जाते अपनी राह हम

फिर भी लोग बैचेन हैं
लगता है कि
इसके घर में कहीं चैन है
दखलांदाजी कर जाते
चाहे जब ताने कस जाते
नहीं रोते शायद किसी के आगे
पी जाते हैंं अपने गम
लोग समझते हैं कि
इसके दुःख दर्द क्यों हैं कम
एक भी आंसू नहीं देखते
क्योंकि जंग लड़ने की आदत है
इसलिये कभी घुटने नहीं टेकते
अपनी आदतों और ख्वाबों के गुलाम
देख नहीं पाते
ढेर सारी कमियों के बाद भी
शायद हमारी आजादी
इसलिये मुफ्त सलाहों की
दवायें यूं ही घर ले आते
यह सोचकर कि बीमारों की
भीड़ में क्यों नहीं शामिल होते हम
हम खामोशी से देखते हैं सब
लोग अपने हालात छिपाने के लिये
मशक्कत तमाम करते हैं
इसलिये उभारते दूसरों के गम

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Sunday, November 9, 2008

जमाने में उसका नाम लेने वाला नहीं बचेगा-हिंदी कविता

वह इतराता रहेगा
बस अपनी बात कहेगा
पर तुम खामोश रहना
अपने शब्द सहजता से रचना
खड़ी रहेगी वह इतिहास में इमारत की तरह
उसका छद्म किला अपने आप ढहेगा

वह आतंक के शब्द रचेगा
बहने लगे खून कहीं
ऐसी उम्मीद करेगा
अपने काले कारनामों के लिये
सफेदपोश मुखौटे तलाश करेगा
तुम सहज और सरल शब्द लिखना
नहीं जरूरत होगी तुम्हें
किसी दूसरे के उधार चेहरे की
कभी न कभी उसके चेहरे पर ही
पुत जायेगी कालिख
कब तक वह चेहरे बदलेगा

वह लगायेगा शांति के नारे
पर चीख मचाता शोर करेगा
अमन और तसल्ली देने का दावा करता
बिखेर देगा अशांति इस जहां में
इसलिये उसका नाम भी चमकेगा
क्योंकि शोर की ताकत होती है ज्यादा
पर उम्र उसकी कम होती है
इसलिये भूल जायेगा जमाना नाम उसका
फिर कौन उसकी कद्र करेगा
तुम लिखना शांति के शब्द
प्रेम का प्रचार करना
जीवन जिससे महकता हो
उसे फूल जैसी रचना का सृजन करना
बनी बनाई इमारतों को ढहाना
बहुत आसान होता है
उसकी आवाज गूंजती है जोर से
इसलिये जमाने की नजर बहुत जल्दी जाती है
फिर फेर भी लेते हैं नजरे लोग उतनी ही जल्दी
जब इमारत का टूटा ढेर नजर आता है
तुम रखना एक एक ईंट अपने हाथ से
बनाना अपनी नयी इमारत
तुम्हारे बदने से निकलते पसीने पर
नहीं जायेगी किसी की नजर
कभी लगेगी भूख तो कभी होगा प्यास का कहर
पर बन जायेगी इमारत रचना की
कीर्ति स्तंभ पर तुम्हारा ही नाम गढ़ेगा

जिसे चमकते देखकर हैरान हुए थे तुम
जिस पर जमीं थी नजर जमाने की
चमकता था नाम जिसका आकाश में
उस विध्वंस और अशांति पैदा करने वाले
शख्स को याद कर तुम सोचोगे
पर जमाने में उसका नाम लेने वाला नहीं बचेगा

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Thursday, November 6, 2008

अपने आप को ही गरीब पाओगे-व्यंग्य कविता


खूब खेलो और नृत्य करो
अभिनय करते हुए लोगों का दिल बहलाओ
जमकर कमाओ पैसा तो महान बन जाओगे
लकड़ी और प्लस्टिक के खिलौनो से
बचपन में खेले लोग
बड़े होकर हांड़मांस के खिलौनो से
खेलने के आदी हो जाते हैं
तुम उनके साथ जमकर खेलो
पर अहसास दिलाओ
उनको स्वयं खेलने का
तो तुम इस जिदंगी के खेल में जीत जाओगे

काल्पनिक कहानियों के पात्र बन जाओ
लोगों को भ्रम में सच दिखाओ
तो तुम उनके इष्ट बन जाओगे
लोगों का चाहिये हर पल कुछ नया
दौलत और शौहरत की इस दौड़ में
जुटे हैं सभी लोग
तुम दिल बहलाकर बटोर लो दौलत
बिना दौड़े किसी दौड़ में
पर्दे पर कई बार विजेता बन जाओगे

सच से दूर रहना सीख लो
खुद को ही दो धोखा
तभी दूसरे को भी दे पाओगे
हां, यह जरूरी होगा
क्योंकि सत्य कभी बदल नहीं सकता
भ्रम के रूप तो पल पल बदल सकते हैं
चमकती रौशनी कितनी भी तेज हो
सूर्य जैसी तो नहीं हो सकती
कितना भी सुंदर सूरत हो
चांद जैसी सीरत नहीं हो सकती
दरियादिल तो दिखने के होते
समंदर जैसी गहराई उनमें नहीं हो सकती
कभी इतिहास के नायकों जैसा
बनने का ख्वाब नहीं देखना
उनकी हकीकत भी वैसी बयान नहीं होती
फिर पूरा जमाना करने लगा है नकल मेे ही
असल जैसा विश्वास
तब असली नायक होने की सोची तो पछताओगे

तुम करते रहो स्वांग
खुद को भी यकीन दिला दो कि
तुम ही हो वाकई महान
अगर नहीं कर सकते तो
आम इंसान बन जाओ
देखो सच को अपनी आंखों से
महसूस करो अपनी ताकत को
जमाना तुम्हें चाहे, यह उम्मीद छोड़ दो
हंसना सीख लो अपनी हालातों पर
जमाने को बताना छोड़ दो
वह हंस सकता है मु्फ्त में तुम पर
अगर मौका दिया हंसने का
उसे अपना दर्द बताकर
तब अपने आप को ही गरीब पाओगे

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Monday, November 3, 2008

मुन्ने के बापू ने भी ऐसा ही लिखा था प्रेमपत्र-हास्य कविता

आवारा आशिक देखता था
उसे रोज गाडी में आते जाते
आ गया दिल तो उसने लिख कर प्रेम प्रस्ताव
और रास्ते में थमा दिया
"प्रिये रोज तुम्हें आते जाते देखता हूँ
तुम पहली हो जिस पर दिल आया
कितना सुन्दर तुम्हारा चेहरा है
क्या लहराते काले लम्बे बाल हैं
तुम्हारी चाल है हाथी की तरह मतवाली
मेरा दिल भी है खाली
इसलिए यह प्रेम प्रस्ताव तुमको दिया"

गाडी पर चलती लडकी भौचक्क रह गयी
किसी तरह संभली
पत्र हाथ में लेकर पढा
फिर गाडी पर बैठकर ही लिख जवाब लिख दिया
"गाडी पर हेलमेट पहनकर चलती हूँ
तुमने मेरे चेहरे के बारे में कैसा अनुमान कर लिया
बालों में लगाती हूँ रंग जो है लाल
घर से जाती हूँ इसी गाडी पर
अपने बच्चे को स्कूल से वापस लाने
वरना कभी बाहर पैदल नहीं चलती
गाडी की चाल हो सकती है मतवाली
मेरी कैसे समझ लिया
पर मुझे याद आया मुन्ने के बापू ने भी
भेजा था ऐसे ही प्रेमपत्र
जब मैं कालिज जाती थी
उस समय नहीं समझी थी
तब भी हेलमेट पहनाकर ऐसी ही गाडी पर जाती
आज पूछूंगी घर आते ही
उन्होंने कैसे मेरी सुन्दरता का वर्णन कर दिया
होता है झगडा तो परवाह नहीं
अच्छा हुआ तुमने मुझे याद दिला दिया
अंधी थी उसके प्यार में
मैंने कभी इस तरफ ध्यान नहीं दिया"

लड़के ने उत्तर देखकर अपना सर पीट लिया
फिर जो देखा उसका चेहरा
तो बहुत खुश हो गया
वह उसके उस दोस्त की पत्नी थी
लिखवा गया था ऐसा ही प्रेम पत्र पर
जिसने शादी की बाद उसके लक्षणों को देखते हुए
कभी घर में नहीं घुसने दिया
इस तरह उसने बदला लिया

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