Tuesday, October 29, 2013

लोकतंत्र और गरीब-हिन्दी क्षणिकायें(loktantra aur garib-hindi short poem's)



तंगहाल लोगों को

खूबसूरत सपने दिखाकर

बरगलाना आसान है,

यही सिद्धांत लोकतंत्र की जान है।

कहें दीपक बापू

किसी की निंदा जितना ही खतरा

किसी की तारीफ करने में है

इसलिये मौन रहने से  ही बढ़ती शान है।

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गरीब का स्तर कमतर रहना जरूरी है,

अमीर के नखरे उठाये उसकी मजबूरी हैं।

कहें दीपक बापू

गरीब के पसीने से लोकतंत्र नहीं चलता,

अमीर के पैसे से अंधेरे में खड़ी भेड़ों की भीड़ के लिये

सपनों का  चिराग जलता,

गरीब के भले के लिये

चलते रहेंगे बड़े बड़े अभियान

तख्त पर बैठेगा वही

जिसकी गरीबी से दूरी है।

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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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Thursday, October 17, 2013

एकांतवास की तरफ बढ़ता समाज-हिन्दी चिंत्तन लेख(ekantwas ki taraf badhta samaj-hindi chinttan lekh,thought article)



                                                मनुष्य के मन में किसके प्रति क्या है, यह सहजता से पता नहीं लगाया जा सकता है।  रक्त संबंधों में माता और पिता अपने बेटे और बेटी  का विकास चाहते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है।  वह किसी भी प्रकार से अपनी संतान का अहित होने का विचार तक मन में नहीं लाते, इसके लिये उनको किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। अन्य रिश्तों में यह बात लागू नहीं होती।  अधिकतर लोग मुंह पर तो शुभकामनायें देते हैं पर मन में वाकई उसका स्थान है या नहीं यह कहना कठिन है।  मनुष्यों के बीच रिश्तों  में समय, स्थिति और स्वार्थों के अनुसार उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं। गैर आदमी से असंतुष्ट होने पर उससे दूर रहा जा सकता है पर जिनके साथ पारिवारिक संबंध है उनकी उपेक्षा करना सहज नहीं होता।  यही कारण है कि जब किसी रिश्तेदार से कोई स्वार्थ पूरा नहीं होता तो उसे सामने तो कोई आदमी कुछ नहीं कहता पर मन ही मन अमंगल कामना तो करने ही लगता है। इसलिये जहां तक हो सके अपने लोगों से वाद विवाद करने से बचना चाहिये।
                        दो रिश्तेदारों में झगड़ा हुआ। एक रिश्तेदार ने दूसरे से कहा-‘‘अभी तो तू मेरी उपेक्षा कर रहा है पर जिस दिन कोई बीमारी आदि का संकट आया तो मैं ही तेरी सेवा करने वाला हूं, इसलिये सोच समझकर व्यवहार कर।’’
                        दूसरे ने कहा-‘‘तू मेरी चिंता छोड़ अपनी कर।  तेरा परिवार जिस तरह डांवाडोल है उसके चलते तुझे मेरी ही आवश्यकता पड़नी है।’’
                        बात का बतंगड़ बन गया।  दोनों के बीच संवाद ही समाप्त हो गया।  हमारे देश में जिन रिश्तों की वजह से कथित संस्कारवान् होने का दावा किया जाता रहा है अब वह आधुनिक समय में स्वार्थपूर्ति तक ही सीमित रह गये हैं।  देश में सामान्य परिवारों की आर्थिक स्थितियां ज्यादा मजबूत नहीं रही इसके बावजूद परंपराओं को को केवल रिश्ते के दबावों में ढोया जा रहा है।  रिश्तों में मिठास की बात तो दूर शुष्कता का भाव हो तो ठीक है पर अब तो खटास जैसी प्रवृत्ति उसमें मिश्रित होती दिखने लगी है।  अभी तक हमने सुना था कि चीन में एक बच्चे का नियम कानूनी रूप से लागू होने के कारण वहां का सामाजिक तानाबना गड़बड़ा गया है पर भारत में तो सभ्रांत वर्ग ने कम संतान सुखी इंसान और हम दो हमारे दो की नीति स्वेच्छा से अपनायी इस कारण अब शहरी समाज में बृहद संयुक्त परिवारों का स्वरूप देखने को नहीं मिलता।  यह दावा भी खोखला हो गया है कि कम संतान से इंसान सुखी रहेगा। हमने तो यहां तक देखा है कि माता पिता को इकलौता पुत्र है पर वह बाहर चला गया है तो अब बड़ी आयु के दंपत्ति एकांतवास कर रहे हैं।  उसकी बचपन की यादें उनके सीने में है पर आंखों से जीवन की चमक गायब हैै। उनकी शुष्क आंखों को कोई भी पढ़ सकता है।
                        उस दिन एक सज्जन बता रहे थे कि उनकी कालोनी तो एक तरह से वृद्धाश्रम या कालोनी बन गयी है। अधिकतर दंपत्ति वृद्ध हैं।  बेटा बाहर गया तो बेटी भी पराये शहर चली गयी। नाती और पोते हैं पर उनकी यादें ही उनके पास है मिलने के लिये उनको दो तीन साल का इंतजार करना पड़ता है।  मकान बड़ा है, किरायेदार रखना नहीं चाहते क्योंकि बाहर से बच्चे आयेंगे तो रहेंगे कहां? घर के काम के लिये नौकर पर निर्भर हैं। किसी दिन वह न आये तो वृद्ध दंपति निराश हो जाते हैं। ऐसे दंपत्ति तो प्रतीक्षा करते हैं कि कोई गैर इंसान मिले तो उनसे अपने परिवार की भव्य गाथा सुनाये। कभी पार्क में तो कभी मुहल्ले में दूसरे के घर जाकर वह अपनी वाणी से शब्दों का विसर्जन करने का अवसर ढूंढते हैं। बृहद परिवार में हम आपसी वैमनस्य का भाव देखते थे तो सीमित परिवारों में एकांत का दुःख भी कम नहीं दिखता।
                        जब हम समाज की बात  बात करते हैं तो पुराने स्वरूप का ही विचार रहता है। नये विघटित समाज की समझ अभी स्थाई नहीं बन पायी। हम देखते हैं कि पेशेवर संतों के पास भीड़ बढ़ रही है तो उसका कारण लोगों के मन  में  धर्म के प्रति अधिक झुकाव नहीं वरन् एकांत से भीड़ में जाकर भाव परिवर्तन की चाह पाने के प्रयास से अधिक कुछ नहीं हैै।
                        बात करें हम अध्यात्मिक दर्शन की तो सच्चाई यह है कि जिसमें  यह इसके प्रति रुचि  गुण बचपन से पड़ गया वह कभी एकांत में कष्ट नहीं उठायेगा।  योग साधना, ध्यान, नाम और मंत्र जाप तथा अन्य रचनात्मक प्रवृत्तियों के चलते साधक अपना समय बेहतर व्यतीत करते हैं।  उन्हें यह भय नहीं सताता कि समाज उन्हें एकांत में धकेलकर आनंद उठायेगा। हां, यह भी सच है कि हमारे समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो इसी प्रयास में रहता है कि अपने पास एकत्रित भीड़ में वह अकेले आदमी का मजाक बनाये।  ज्ञान और योग साधकों को ऐसे लोगों की परवाह नहीं रहती।                    
  लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

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Wednesday, October 9, 2013

अपने शुद्ध संकल्प से अनुकूल वातावरण का निर्माण करें-हिन्दी चिंत्तन लेख(apne shuddh sankalp se anukul vatavaran ka niraman karen-hindi chinntan lekh)



                        हम अपने समाज में रामराज्य की कल्पना कर सकते हैं पर उसे धरातल पर लाना लगभग असंभव है।  कम से कम श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन करने पर तो कोई साधक इस तरह का विचार व्यक्त कर सकता है। उसमें कहा गया है कि इस संसार में दैवीय तथा आसुरीय तो प्रकार के मनुष्य होते हैं। इससे हम यूं भी मान सकते हैं कि इस संसार में दोनों प्रकार के लोग सदैव उपस्थित रहेंगे ही चाहे कोई माने या माने।  इतना ही नहीं दैवीय प्रकृत्ति के लोगों में भी सात्विक, राजस तथा तामस प्रकृत्ति के लोग हमेशा ही अपने स्वभाव के अनुसार सक्रिय पाये जायेंगे।  इस आधार हम कह सकते हैं कि समूची मानव जाति एक ही रंग में रंगी जाये यह संभव नहीं है।
                        समाज में कथित लोग समाज में  सुधार लाने के प्रयासों में लगे बुद्धिमान लोग इस विचार को निराशाजनक विचार मान सकते हैं पर ज्ञान साधकों के लिये यही संसार का सत्य है। यह सत्य उनमें स्वयं को ही सुधारने के लिये प्रेरित करता है।  ज्ञान साधकों को जब यह आभास होने लगता है कि इस संसार का निर्माण जिस तरह परामात्मा के संकल्प के आधार पर हुआ है उसी तरह वह भी अपने देहकाल में संकल्प के आधार अपने आसपास शुद्ध वातावरण का निर्माण करें। वह संसार में दूसरे लोगों  को सुधार कर उन्हें अपने अनुकूल लाने की अपेक्षा अपने अंदर ऐसी शक्ति पैदा करते हैं कि प्रतिकूल व्यक्ति और स्थिति उनके अनुकूल हो जाये।  वह किसी के लिये मन में द्वेष, ईर्ष्या और घृणा का भाव नहीं पालते। कोई दूसरा उनके प्रति कुविचार रखता है तो उसे आसुरीय प्रवृत्तियों के वशीभूत मानकर क्षमा कर देते हैं।  किसी का परोपकार करें या नहीं पर किसी का अपकार करने का विचार हृदय में भी नहीं लाते।  किसी के कठोर वचनों के उत्तर में भी मधुर वचन में बात करते हैं।  प्रमाद या आलस्य से परे होकर सदैव सकारात्मक कार्यों में लगे रहते हैं।  इससे उनके व्यक्तित्व की धवल छवि का निर्माण होता है जिससे कालांतर में उनको सम्मान मिलता है।
                        इसके विपरीत जो अज्ञानी हैं वह बिना कुछ किए ही सम्मान पाना चाहते हैं। कुछ लोग धन, मित्र और सहायकों का समुदाय एकत्रित कर यह समझते हैं कि उनका तो स्वतः ही समाज में सम्मान होगा तो यह उनका भ्रम है।  ऐसे लोगों को सम्मान पाने की भावना अंध कर देती है और किसी से प्रतिकूल व्यवहार मिलने पर वह हिंसा पर उतर आते हैं। हम आज समाज में जो हिंसक वातावरण देख रहे हैं वह राजसी लोगों की आक्रामकता और तामसी प्रवृत्ति लोगों के बौद्धिक आलस्य का परिणाम है।  सात्विक लोगों की संख्या कम है पर आज के भौतिकतावादी युग में कोई उन्हें साथ रखना नहीं चाहता।  सात्विक लोगों का ध्येय वैसे भी समाज में हर विषय पर टांग फंसाकर प्रतिष्ठा अर्जित  करना नहीं होता। वह जानते हैं कि हमारे समाज में समस्या विचारों के संकट की नहीं वरन्् उसे धारण करने की प्रवृत्ति का अभाव है।  ज्ञान चर्चा बहुत होती है पर उसे धारण करने की न लोगों में शक्ति है न उनके पास ऐसा संकल्प है। निकट भविष्य में लोग ज्ञान के आचरण की तरफ प्रवृत्त होंगे इसकी संभावना लगती भी नहीं है। समाज अपने साथ विध्वसंक तत्व लेकर चल रहा है और हम मानते हैं कि आगे हालात अधिक खराब होने वाले हैं।  यह अलग बात है कि समाज में पेशेवर समाज सेवक के सुधार का  नाटक भी जमकर चल रहा है।  हमने देखा है कि अनेक कथित सुधारक समाज में व्याप्त अंधविश्वास का विरोध करते हैं पर मनुष्य में मन में कोई विश्वास का बीज कैसे बोया जाये इस विषय पर खामोश रहते हैं। 
                        बहरहाल समाज की समस्याओं को दूर करने की बजाय अपने सुधार पर अधिक ध्यान देना चाहिये। सबसे बड़ी बात यह है कि हमें अपने शुद्ध विचार रखने और  सुखद कल्पनायें करने के साथ ही अपने अंदर एक दृढ़ संकल्प स्थापित करना चाहिये। हम बाहर जैसा वातावरण देखना चाहते हैं उसे पहले अपने अंतर्मन में संकल्प कर स्थापित करना होगा।  आजकल के तनावपूर्ण वातावरण से प्रथक होकर एकांत में शुद्ध स्थान पर ध्यान करते हुए इस बात पर विचार करना चाहिये कि हम किस तरह अपना जीवन सफल करें।


  लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

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Tuesday, October 1, 2013

पाखंड और श्रद्धा-हिन्दी व्यंग्य कविता(pakhand aur shraddha-hindi vyangya kavita)



दौलत के भंडार है उनके घर
पर जिस्म में ताकतवर जान नहीं है,
महापुरुषों की  तस्वीरों पर
चढ़ाते हैं दिखावे के लिये  माला
पर दिल में उनके लिये मान नहीं है,
सारे जहान में फैला है पाखंड
दिखना चाहते हैं शानदार वह लोग
जिनकी आंखों में किसी की शान नहीं है।
कहें दीपक बापू
मजदूर ने तराशा जिस पत्थर को
अपनी पसीने से तराशा
बन गया भगवान,
पड़ा रहा जो रास्ते पर
बना रहा दुनियां में अनजान,
जिनके पेट भरे हैं
उनकी चिंता सभी करते हैं
परिश्रम करने वालों को पूरी रोटी मिले
इससे आंखें फेरते है
स्वर्ग की चिंता में जिंदगी
दाव पर लगाते हैं लोग
जिसका किसी को ज्ञान नहीं है,
दिवंगतों की तस्वीर के  आगे सिर झुकाते लोग
शोकाकुल सुरत से श्रद्धा निभाते
भले ही उनकी बनती  शान नहीं है।
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  लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

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