धर्म बन गयी है शय
बेचा जाता है इसे बाज़ार में,
सबसे बड़े सौदागर
पीर कहलाते हैं.
भूख, गरीबी, बेकारी और बीमारी को
सर्वशक्तिमान के तोहफे बताकर
ज़माने को भरमाते हैं.
मांगते हैं गरीब के खाने के लिए पैसा
जिससे खुद खीर खाते हैं.
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धर्म का नाम लेते हुए
बढ़ता जा रहा है ज़माना,
मकसद है बस कमाना.
बेईमानी के राज में
ईमानदारी की सताती हैं याद
अपनी रूह करती है फ़रियाद
नहीं कर सकते दिल को साफ़ कभी
हमाम में नंगे हैं सभी
ओढ़ते हैं इसलिए धर्म का बाना.
फिर भी मुश्किल है अपने ही पाप से बचाना..
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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