Wednesday, September 29, 2010

भक्तों के लिये भोले हैं राम-हिन्दी कविता (bhakton ke liye bhole hain ram-hindi poem)

दिल में नहीं था कहीं
पर जुबान से लेते रहे राम का नाम,
बनाते रहे अपने काम,
बरसती रही उन पर रोज़ माया,
फिर भी चैन नहीं आया,
कुछ लोग मतलब से पास आते हैं,
निकलते ही दूर चले जाते हैं,
राम का नाम बेचने में
उनको आता है मज़ा,
मगर मिलती है उनको भी बैचेनी की सज़ा,
भक्तों के लिये भोले हैं राम,
जरूरत से बनाते जाते काम
पर जो भक्तों को भुलाते हैं,
झूठे दर्द का वास्ता देकर रुलाते हैं,
नाम लेने से भर जाती उनकी भी झोली,
मगर हृदय में नहीं होते राम,
नहीं पाते इसलिये वह कभी आराम।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Friday, September 24, 2010

आस्था का व्यापार-हिन्दी कविताऐं (aastha ka vyapar-hindi kavitaen)

अपनी आस्थाओं को दिखाने के लिये
वह चीखते और चिल्लाते हैं,
भीड़ में प्रचार पाने के लिये
लेकर सर्वशक्तिमान का इठलाते हैं,
उनके लिये अपना विश्वास
दिल में रखकर चलने की चीज नहीं
दुनियां जीतने के इरादे से
भक्ति भी नारों की तरह गाते हैं।
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जिनको अपनी आस्थाओं के साथ
जंदा रहना नहीं आता है,
दूसरों की भावनाओं पर
अपने विचारों का व्यापार करने में ही
उनको आस्था का प्रश्न नज़र आता है।
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अपनी आस्था दिल से निकालकर
किसी को दिखलायें
यह हमें करना नहीं आता है,
मुश्किल यह है कि जो नहीं रखते दिल में
आस्था का व्यापार उनको ही करना आता है।
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Wednesday, September 15, 2010

कहीं हिन्दी दिवस तो कहीं हिन्दी सप्ताह-हिन्दी लेख (hindi divas aur hindi saptah-hindi lekh)

12 सितंबर को सर्च इंजिनों से हिन्दी दिवस से खोज करते हुए पाठकों की संख्या कुछ अधिक दिखी तो आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि इसका अनुमान था कि 14 सितंबर को मनाये जाने वाले कार्यक्रमों के लिये लोग कुछ खोज रहे हैं। आखिर कौन लोग हो सकते हैं यह खोज करने वाले।
शायद वह लोग जो इन कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि या संचालक के रूप में सम्मिलित होते होंगे। उनको वहां बोलने के लिये कोई जानकारी यहां से चाहिए।
यह वह विद्वान भी हो सकते हैं जिनको समाचार पत्रों के लिये लिखना हो या फिर चैनलों पर बहस के लिये जाना हो। साथ ही वह संपादक भी जिनको अपने प्रकाशन के लिये हिन्दी पर कुछ नया लिखना हो वह सर्च इंजिनों में कुछ ढूंढ रहे होंगे।
शायद वह प्रतियोगी भी हो सकते हैं जो इस हिन्दी दिवस पर होने वाली निबंध प्रतियोगिताओं में कुछ लिखना चाहते हों।
वह छात्र भी हो सकते हैं जिनको अपने शिक्षकों ने इस अवसर पर कक्षा में ही अपने विचार रखने का आमंत्रण भी दिया हो या फिर वाद विवाद प्रतियोगता आयोजत की गयी हो।
ऐसे में यह विचार बुरा नहीं लगा कि ब्लाग स्पॉट पर लिखे गये कुछ पाठों को उठाकर वर्डप्रेस के अपने अधिक प्रसिद्ध ब्लागों पर हिन्दी दिवस शब्द लगाकर प्रस्तुत किया जायें ताकि देखा जाये कि पाठ तथा पाठन संख्या में क्या प्रभाव पड़ता है? यह काम 12 सितंबर को कर लेने के बाद 13 सितंबर की शाम को उन ब्लाग संख्या के पाठ/पाठ पठन संख्या का अवलोंकन किया तो गुणात्मक वृद्धि पाई। इसका मतलब यह था कि कुछ नया हिन्दी में ढूंढा जा रहा था। जब इतने सारे समाचार पत्र पत्रिकाऐं उपलब्ध है अनेक किताबें भी मिलती हैं तब आखिर अंतर्जाल पर कौन क्या ढूंढ रहा था। कुछ नया ही न! इसका मतलब यह कि अंतर्जाल के बाहर जो लिखा जा रहा है वह लीक से हटकर नहीं है या विचारों की रूढ़ता के कारण सभी लेखकों के लेख करीब एक जैसे होते हैं जिनका उपयोग करने से भाषण या रचना रूढ़ हो जाती है। इसलिये ही अंतर्जाल पर कुछ नया पढ़ने की चाहत यहां आने के लिये लोगों को बाध्य कर रही है।
दीपक बापू कहिन, हिन्दी पत्रिका, शब्द पत्रिका, ईपत्रिका तथा शब्दलेख पत्रिका-इन पांच ब्लाग पर पाठकों की संख्या 13 सितंबर को अत्यधिक दर्ज की गयी। हिन्दी पत्रिका और शब्द पत्रिका एक दिन में एक हजार पाठक संख्या पार करने के करीब पहुंच गये पर हुए नहीं। प्रथम तीन ब्लाग ने अपने पिछले कीर्तिमान से अधिक पाठक संख्या ढूंढे। शब्द पत्रिका पर 980 पाठक आये जो कि इस लेखक के किसी भी ब्लाग पर आये पाठकों की संख्या से ज्यादा है। shity stat में अंग्रेजी ब्लाग पर साहित्य वर्ग में बढ़त बनाते हुए शब्द पत्रिका, दीपक बापू कहिन तथा ईपत्रिका ने क्रमशः 6, 8 तथा 22 के स्थान पर अपनी उपस्थिति दर्ज की। हिन्दी पत्रिका ने अन्य वर्ग में 54 वां स्थान पाया। अगर यह संख्या नियमित रहती तो यकीनन शब्द पत्रिका नंबर एक पर आता पर इसकी आशा करना व्यर्थ था क्योंकि 14 सितंबर को पाठक संख्या कम हो गयी क्योंकि अपने देश में कार्यक्रम दोपहर या शाम तक ही होते हैं और उसके बाद ऐसा होना स्वाभाविक था।
हिन्दी दिवस के अलावा भी अन्य पर्वो पर उनसे संबंधित पाठों की खोज बहुत तेज होती है पर इतनी अधिक वृद्धि उस समय दर्ज नहीं की जाती। इस बात से एक निष्कर्ष तो निकलता है कि कि समाचार पत्रों के पुराने लेखों या किताबों की अपेक्षा अब नया पाठक तथा विद्वान वर्ग इंटरनेट पर अधिक निर्भर हो रहा है। ऐसे में अंतर्जाल पर अच्छे लेख न देखकर स्वयं को निराशा ही हाथ लगती है पर किया क्या जाये क्योंकि यहां स्वतंत्र मौलिक लेखकों के लिये यहां कोई आर्थिक प्रोत्साहन नहीं है। किसी अच्छे हिन्दी लेखक से यह कहना कठिन है कि इंटरनेट पर लिखो। जो पुराने लेखक लिख रहे हैं तो उनकी रचनाऐं रूढ़ किस्म की हैं और समाचार पत्र पत्रिकाओं में उनको लोग पढ़ते भी हैं। जब इंटरनेट का बिल स्वयं चुकाते हुए लिखना है तो पाठों की गुणवता से अधिक अपनी अभिव्यक्ति ही महत्वपूर्ण लगती है। पाठकों की संख्या भी कोई अधिक प्रेरक नहीं लगती। इस पर संगठित प्रचार माध्यमों ने-टीवी तथा समाचार पत्र पत्रिकाऐं-वातावरण ऐसा बना दिया है जिससे समाज में यह संदेश जाता है कि लेखन केवल अभिनेताओं, नेताओं, अधिकारियों तथा प्रतिष्ठित समाज सेवकों का है। उनके 140 शब्दों के ट्विटर पूरे संचार और प्रचार माध्यमों में छा जाते हैं और हिन्दी ब्लाग लेखकों को तो यह मान लिया गया है कि वह कोई भूत है जो अंतर्जाल पर लिखता है-जिसका दैहिक रूप से कोई अस्तित्व ही नहीं है। अनेक रचनायें यहां से उठाकर वहां छाप दी जाती है।
समाज में लिखना कोई नहीं चाहता और जो लिखते हैं वह अपने आसपास के लोगों को प्रभावित करने के लिये ही लिखते हैं ताकि अखबार में छप जाये तो बात जम जाये। यह कहना कठिन है कि हम अपने लिखे से लोगों को कितना प्रभावित कर रहे हैं क्योंकि इसके लिये कोई तरीका अपने पास उपलब्ध नहीं है। साथ ही यह भी भाव हमारे अंदर है कि हम कोई पैसे, पद तथा प्रतिष्ठा के शिखर पर नहीं बैठे कि हमारे शब्द लोग पढ़ने के लिये लालायित हों।
पहले लगता था कि हिन्दी दिवस मनाने की क्या जरूरत है? यह भी कहते थे कि मित्र दिवस, पितृ दिवस, मातृ दिवस, प्रेंम दिवस या इष्ट दिवस मनाने की क्या जरूरत है क्योंकि वह तो हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा है। यह भी कहते थे कि यह तो पश्चिम में होता है जहां रिश्ते इतने स्वाभाविक नहीं होते। अब हिन्दी दिवस माने की जरूरत लगती है क्योंकि समाज में उसकी उपस्थिति स्वाभाविक रूप से नहीं दिखती। अंग्रेजी का आकर्षण और हिन्दी की जरूरत के बीच फंसा समाज कुछ सोच नहंी पाता। अगर ऐसा होता तो शायद हम अंग्रेजी दिवस मना रहे होते।
आखिरी बात यह कि हिन्दी दिवस पर इतने पाठक आने का आशय यह कतई नहीं है कि वह आम पाठक थे क्योंकि अगर ऐसा होता तो यकीनन यह संख्या अगले दिनों में भी दिखती। इसका आशय यह है कि अभी केवल प्रबुद्ध वर्ग ही इंटरनेट पर सक्रिय है जिसे अपने विषयों से संबंधित जानकारी कहीं प्रस्तुत करने के लिये चाहिए। वैसे हिन्दी दिवस के साथ ही अनेक सरकार संस्थाओं के हिन्दी सप्ताह भी बनता है। हिन्दी दिवस तो निकल गया पर हिन्दी सप्ताह पर अच्छी चर्चायें हों और कोई अन्य बेहतर निष्कर्ष सामने आयें इसकी कामना तो हम ही कर सकते हैं। पाठक संख्या कम जरूर हो गयी है पर इस पूरे सप्ताह तक उसका प्रभाव जरूर रहेगा।
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Thursday, September 9, 2010

जिंदगी का हिसाब-हिन्दी शायरी (zindgi ka hisab-hindi shayari)

अवसाद के क्षण भी बीत जाते हैं,
जब मन में उठती हैं खुशी की लहरें
तब भी वह पल कहां ठहर पाते हैं,
अफसोस रहता है कि
नहीं संजो कर रख पाये
अपने गुजरे हुए वक्त के सभी दृश्य
अपनी आंखों में
हर पल नये चेहरे और हालत
सामने आते हैं,
छोटी सी यह जिंदगी
याद्दाश्त के आगे बड़ी लगती है
कितनी बार हारे, कितनी बार जीते
इसका पूरा हिसाब कहां रख पाते हैं।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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