Saturday, June 28, 2014

विकास का विनाश-हिन्दी व्यंग्य कवितायें(vikas ka vinash-hindi vyangya kavitaen)



पुराने विकास के दौर में बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी हो गयी,
अब गिरने लगी हैं तो नये विनाश की कड़ी हो गयी।
कहें दीपक बापू नये विकास का कद तो बहुत ऊंचा होगा
विनाश का ख्याल नहीं उम्मीद अब पहले से बड़ी हो गयी।
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विकास को दौर पहले भी चलते रहे हैं,
चिराग अपना रंग बदलकर हमेशा जलते रहे हैं।
कहें दीपक बापू आम आदमी महंगाई के बाज़ार में खड़ा रहा
उसका भला चाहने वाले दलाल महलों में पलते रहे हैं।
एक बात तय है कि आज जो बना है कल ढह जायेगा,
पत्थरों से प्रेम करने वाला हमेशा पछतायेगा,
बड़े बड़े बादशाह तख्त बेदखल हो गये,
चमकीले राजमहल देखते देखते खंडहर हो गये,
इतिहास में उगे बहुत लोग उगत सूरज की तरह
मगर समय के साथ सभी ढलते रहे हैं।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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Tuesday, June 17, 2014

जिनकी चाल बिगड़ी है-हिन्दी कवितायें(jinki chal bigdi hai-hindi kavitaen)



चाल बिगड़ी है जिनकी दूसरों के घरों में सेंध लगा ही देते हैं,
आम चलन से बाहर होने वाले दगा कभी दगा  दे ही देते हैं।
कहें दीपक बापू खोई चीज की परवाह खुशदिल नहीं करते
 अपना मन  नये रास्ते  में लगा ही देते हैं।
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अपना पसीने की कीमत जो नहीं जानते हैं,
दूसरे के सामान पर हाथ डालना ही अपना धर्म मानते हैं।
कहें दीपक बापू मुफ्त का माल लेकर खुश होते कुछ लोग
जब तक पकड़े न जायें चोरी कर सीना तानते हैं।
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सामान लुटे पर यह खबर जमाने के बीच न आये,
सामान खो दिया पर बिचारा नाम न कहलाये।
कहें दीपक बापू बेजान धातुओं के सामान चमकते हैं,
वह मूर्ख कहलाता है जो उसमें प्राण फंसाये।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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Saturday, June 7, 2014

समंदर का गुणा भाग-हिन्दी कविता(samandar ka guna bhag-hindi poem)



तपते सूरज की आग बरसाती किरणें
इंसानों के शरीर से निकलता पसीना
पानी के लिये भटकते पशु पक्षी
कोई मौन होकर सह रहा है
कोईै हाहाकर दर्द कह रहा है
 सूखे तालाब गर्म हवाओं के थपेड़े सहते पेड़
दूर विराजमान समंदर
मौसम के गुणा भाग में व्यस्त है
बादलों को नहीं सौंप रहा हवाओं के हाथ
क्योंकि वह धरती पर बने कैलेंडर नहीं देखता
इंतजार करता है वह भी
सूरज के इशारे का
जो थक थक जायेगा आग बरसाते
फिर धरती पर अपनी कोमल दृष्टि डालेगा
तब अपनी उंगली उठायेगा।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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