Sunday, February 28, 2010

होली या दिवाली-आलेख और व्यंग्य क्षणिकायें (holi ho ya diwali-hindi article and satire poem)

होली हमारे देश का एक परंपरागत त्यौहार है जो उल्लास से मनाया जाता रहा है। यह अलग बात है कि इसे मनाने का ढंग अब लोगों का अलग अलग हो गया है। कोई रंग खेलने मित्रों के घर पर जाता है तो कोई घर पर ही बैठकर खापीकर मनोरंजन करते हुए समय बिताता है। इसका मुख्य कारण यह है कि जब तक हमारे देश में संचार और प्रचार क्रांति नहीं हुई थी तब तक इस त्यौहार को मस्ती के भाव से मनाया जरूर जाता था पर अनेक लोगों ने इस अवसर पर दूसरे को अपमानित और बदनाम करने के लिये भी अपना प्रयास कर दिखाया। केवल शब्दिक नहीं बल्कि सचमुच में नाली से कीचड़ उठाकर फैंकने की भी घटनायें हुईं। अनेक लोगों ने तो इस अवसर पर अपने दुश्मन पर तेजाब वगैरह डालकर उनको इतनी हानि पहुंचाई कि उसे देख सुनकर लोगों का मन ही इस त्यौहार से वितृष्णा से भर गया। तब होली उल्लास कम चिंता का विषय बनती जा रही थी।
शराब पीकर हुड़दंग करने वालों ने लंबे समय तक शहरों में आतंक का वातावरण भी निर्मित किया। समय के साथ सरकारें भी चेतीं और जब कानून का डंडा चला तो फिर हुडदंगबाजों की हालत भी खराब हुई। हर बरस सरकारें और प्रशासन होली पर बहुत सतर्कता बरतता है। इस बीच हुआ यह कि शहरी क्षेत्रों में अनेक लोग होली से बाहर निकलने से कतराने लगे। एक तरह से यह उनकी आदत बन गयी। अब तो ऐसे अनेक लोग हैं जो इस त्यौहार को घर पर बैठकर ही बिताते हैं।
जब सरकारों का ध्यान इस तरफ ध्यान नहीं था और पुलिस प्रशासन इसे सामान्य त्यौहारों की तरह ही लेता था तब हुड़दंगी राह चलते हुए किसी भी आदमी को नाली में पटक देते। उस पर कीचड़ उछालते। शहरों में तो यह संभव ही नहीं था कि कोई पुरुष अपने घर की स्त्री को साथ ले जाने की सोचे। जब पूरे देश में होली के अवसर पर सुरक्षा व्यवस्था का प्रचनल शुरु हुआ तब ऐसी घटनायें कम हो गयी हैं। इधर टीवी, वीडियो, कंप्यूटर तथा अन्य भौतिक साधनों की प्रचुरता ने लोगों को दायरे में कैद कर दिया और अब घर से बाहर जाकर होली खेलने वालों की संख्या कम ही हो गयी है। अब तो यह स्थिति है कि कोई भी आदमी शायद ही अनजाने आदमी पर रंग डालता हो। फिर महंगाई और रंगों की मिलावट ने भी इसका मजा बिगाड़ा।
महंगाई की बात पर याद आया। आज सुबह एक मित्र के घर जाना हुआ। उसी समय उसके मोहल्ले में होली जलाने के चंदा मांगने वाले कुछ युवक आये। हमने मित्र से हाथ मिलाया और अंदर चले गये। उधर उनकी पत्नी पचास रुपये लेकर आयी और लड़कों को सौंपते हुए बोली-‘इससे ज्यादा मत मांगना।’
एक युवक ने कहा-‘नहीं, हमें अब सौ रुपये चाहिये। महंगाई बढ़ गयी है।’
मित्र की पत्नी ने कहा-‘अरे वाह! तुम्हारे लिये महंगाई बढ़ी है और हमारे लिये क्या कम हो गयी? इससे ज्यादा नहीं दूंगी।’
लड़के धनिया, चीनी, आलू, और प्याज के भाव बताकर चंदे की राशि बढ़ाकर देने की मांग करने लगे।
मित्र ने अपनी पत्नी से कहा-‘दे दो सौ रुपया, नहीं तो यह बहुत सारी चीजों के दाम बताने लगेंगे। उनको सुनने से अच्छा है इनकी बात मान लो।’
गृहस्वामिनी ने सौ रुपये दे दिये। युवकों ने जाते हुए कहा-‘अंकल और अंाटी, आप रात को जरूर आईये। यह मोहल्ले की होली है, चंदा देने से ही काम नहीं चलेगा। आना भी जरूर है।’
मित्र ने बताया कि किसी समय उन्होंने ही स्वयं इस होली की शुरुआत की थी। उस समय लड़कों के बाप स्वयं चंदा देकर होली का आयोजन करते थे अब यह जिम्मेदारी लड़कों पर है।’
कहने का अभिप्राय यह है कि इस सामूहिक त्यौहार को सामूहिकता से मनाने की एक बेहतर परंपरा जारी है। जबकि पहले जोर जबरदस्ती सामान उठाकर ले जाकर या चंदा ऐंठकर होली मनाने का गंदा प्रचलन अब बिदा हो गया है। जहां नहीं हुआ वह उसे रोकना चाहिये। सच बात तो यह है कि अनेक बेवकूफ लोगों ने अपने कुकृत्यों से इसे बदनाम कर दिया। यह खुशी की बात है कि समय के साथ अब उल्लास और शांति से यह त्यौहार मनाया जाता है।
इस अवसर पर कुछ क्षणिकायें 
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रंगों में मिलावट
खोऐ में मिलावट
व्यवहार में दिखावट
होली कैसे मनायें।
कच्चे रंग नहीं चढ़ता
अब इस बेरंग मन पर
दिखावटी प्यार कैसे जतायें।
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रंगों के संग
खेलते हुए उन्होंने होली
कुछ इस तरह मनाई,
नोटों के झूंड में बैठकर
इठलाते रहे
इसलिये उनकी पूरी काया
रंगीन नज़र आयी।
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अगर रुपयों का रंग चढ़ा गया तो
फिर कौनसे रंग में
बेरंग इंसान नहायेगा,
आंख पर कोई रंग असर नहीं करता
होली हो या दिवाली
उसे बस मुद्रा में ही रंग नज़र आयेगा।



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Monday, February 22, 2010

शब्द मंद हो गये हैं-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (real word is slow-hindi comic poem)

हर तरफ घूम रहे
हाथ में खंजर लिये लोग
किसी से हमदर्दी का उम्मीद करना
बेकार है
पहले कोई किसी के पीठ में
घौंपकर आयेगा,
फिर अपनी पीठ को बचायेगा।
भला कब किसी को
दर्द सहलाने का समय मिल पायेगा।
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दौलत, शौहरत और ताकत के
घोड़े पर सवार लोग
गिरोहबंद हो गये हैं।
हवा के एक झौंके से
सब कुछ छिन जाने का खौफ
उनके दिल में इस कदर है कि
आंखों से हमेशा उनके खून टपकता है,
आम आदमी की पीठ पर
हर पल बरसा रहे चाबुक
फिर भी वह कांटे की तरह
आंखों में खटकता है,
समाज की हालातों पर
सच लिखने वाले शब्द मंद हो गये हैं।

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Thursday, February 18, 2010

शब्द और अनुभूति-हिन्दी कविता (shabd aur anubhuti-hindi poem)

कब तक तस्वीरों को देखकर
अपना दिल बहलायें,
चेहरों की आखों से पढ़कर
शब्द अपनी समझ से तय कर
दिमाग में सजायें।
इससे तो अच्छा है कि किताबों में
शब्द पढ़कर तस्वीरों के अहसास पायें।
तस्वीरें कितना बोलेंगी,
आंखें कैसे शब्दों को तोलेंगी,
चेहरे स्तब्ध करते हैं
आंखों में आश्चर्य भरते हैं,
दिल की गहराई तक तो
शब्द ही अनभूति पहुंचायें।
इसलिये फुरसत में अपने आगे
किताबों की ही सजायें।

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Saturday, February 13, 2010

माया तो संतों की दासी होती है-हिन्दी आलेख (maya to santon ki dasi hoti hai-hindi lekh)

भारतीय अध्यात्म ज्ञान के अनुसार ‘माया संतों की दासी होती है’, पर  अज्ञानी लोग इस बात को नहीं समझ सकते। इसके अलावा जिनका सोच पश्चिमी विचारधाराओं से प्रभावित है तो उनको समझाना अत्यंत कठिन है।
संत दो प्रकार के होते हैं, एक तो वह जो वनों में रहकर अपना जीवन पूरी तरह से सन्यासी की तरह बिताते हैं दूसरे वह जो समाज के बीच में रहते हैं।  जो संत समाज के बीच में रहते हैं वह तमाम तरह के दायित्व-जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य तथा समाज सुधार-भी अपनी सिर पर लेेते हैं। ऐसे में भक्त लोग उनको गुरु दक्षिणा, दान या उपहार भी प्रदान करते हैं जिसका वह उसी समाज के लिये उपयोग करते हैं।
जैसे जैसे देश में धन का वर्चस्व बढ़ रहा है वैसे ही उसका पैमाना संतों के पास भी बढ़ रहा है।  संतों की जो संपत्ति है वह अंततः सार्वजनिक काम में रहती है।  फिर दूसरी बात यह भी है कि उन संतों को अगर समाज के गरीब वर्ग की सहायता करनी है तो उसके लिये धन का होना आवश्यक है। अनेक संत दवाओं का निर्माण कर लोगों को बेचते हैं और उससे लोगों को लाभ भी होता है-अगर ऐसा न होता तो उनके द्वारा बेची जा रही वस्तुओं की बिक्री दिन-ब-दिन बढ़ती न जाती।  अनेक संत पत्रिकायें निकालते हैं और लोग उनको चाव से पढ़ते हैं।
ऐसे में आधुनिक बाजार और उनका प्रचारतंत्र विरोधी हो गया है।  इसका कारण एक तो यह है कि दवाईयों से जहां अनेक एलौपैथी कंपनियों का काम ठप्प हो रहा है वहीं रद्दी साहित्य प्रकाशित करने वाले प्रकाशनों को पाठक नहीं मिल रहे।  दूसरा यह कि उनके प्रवचनों में ढेर सारे श्रोता और भक्त जाते हैं जिससे आधुनिक बाजार और उसका प्रचार तंत्र अपने शिकारी पंजों से दूर पाता है। उसमें युवा वर्ग देखकर आधुनिक बाजार और उसका प्रचार तंत्र चिढ़ता है तो इसलिये क्योंकि उसे तो वैलंटाईन डे के लिये नये उत्पाद बेचने के लिये युवा वर्ग ही मिलता है। फिल्म देखने के लिये माल की महंगी टिकिटें खरीदने के लिये इसी नवधनाढ्य वर्ग के युवाओं की उसे जरूरत है। इसके अलावा क्रिकेट के खिलाड़ियों को महानायक के रूप में स्थािपत करने  भी यही वर्ग उपलब्ध है जिसे इस खेल पर लगे फिक्सिंग के दाग की जानकारी नहीं है।  ऐसे में प्रचारतंत्र अपने हाथ से एक बहुत बड़ा समाज दूर पाता है।
चिकित्सा और दवाईयों की बात करें तो एलौपेथी पर लोगों का विश्वास नहीं रहा।  ढेर सारे टेस्ट में समय और पैसा बरबाद कर चुके लोगों से उनकी दास्तान सुनी जा सकती है। जबकि इन बाबाओं के द्वारा बनायी गयी दवायें बहुत उपयोगी साबित हो रही हैं।  इसके अलावा ‘ऋषि प्रसाद’, अखंड ज्योति, तथा कल्याण जैसी पत्रिकायें समाज में अध्यात्मिक धारा को प्रवाहित किये हुए हैं।  कहने का तात्पर्य यह है कि ‘हमारे देश की सहज योग परंपरा का विस्तार हो रहा है पर आधुनिक बाजार का सारा काम लोगों में असहजता पैदा करना है। वह ऐसी विलासिता के साधनों को सुख कहकर बेच रहे हैं जिनके खराब होने पर आदमी अपने आपको अपाहिज अनुभव करता है।  वह नकली महानायक गढ़ रहे हैं और हालत यह है कि उनको क्रिकेट मैच और फिल्म देखने के लिये अनेक तरह के तनाव पैदा करने पड़ते हैं।  उसे असहज समाज चाहिये जबकि श्रीमद्भागवत गीता में चारों वेदों के सार तत्व के साथ जो सहज योग सरलता से लिखा गया है उसकी इस देश को सबसे अधिक जरूरत है।  इस प्रयास में सबसे आगे रहने वाले संतों में सर्वश्री आसाराम बापू, बाबा रामदेव तथा सुधांशु महाराज जैसे महापुरुष हैं। इन संतों का मायावी सौंदर्य देखकर अनेक विद्वान विचलित हो जाते हैं पर वह यह नहीं सोचते कि इतनी ऊंचाई पर कोई बिना ज्ञान, तप, तथा योग साधना के नहीं पहुंच सकता।  इन संतों ने असहजता पैदा करने वाले तत्वों से निपटने के लिये प्रयास किये हैं और इसके लिये धन की जरूरत होती है।  इन लोगों के लिये धन ही अस्त्र शस्त्र है, क्योंकि जो तत्व समाज में अस्थिरता, अज्ञान और असहजता फैला रहे हैं वह भी इसी अस्त्र शस्त्र का उपयोग कर रहे हैं। यह विद्वान लोग क्या चाहते हैं कि देश में अज्ञान, असहजता तथा अस्थिरता फैलाने वाले तत्वों से युद्ध बिना हथियार लिये लड़ें या उसे विकास का प्रतीक  मानकर उनकी तरह चुप बैठ कर देखें।
सच तो यह है कि संतों के पास जो धन है उसकी तुलना किसी अन्य धनाढ्य वर्ग से नहीं की जा सकती। 
कुछ अज्ञानी तो इन पर ठगने का आक्षेप भी लगाते हैं? दोष उनका नहीं है क्योंकि उनके संस्कारों में पश्चिमी विचार मौजूद हैं और उनको भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की बात समझ में नहीं आ सकती।  वह उस बाजार को नहीं देखते जिसका प्रचार तंत्र वैलंटाईन डे के नाम पर मनाये जाने वाले प्रेम दिवस पर केवल उभयपक्षी लिंग संबंध और बीयर पीने जैसी बातों को ही प्रोत्साहित करते हैं। फिल्मों के नकली पात्रों का अभिनय करने वाले अभिनेताओं को महानायक बताते हैं। इसके विपरीत संत तो केवल प्राचीन सत्साहित्य का ही प्रचार करते हैं इसमें ठगी कैसी?।  सच तो यह है कि अब इस देश में अगर आशा बची है तो इन्हीं संतों से! बाकी जिसकी जैसी मजी है। कहे या लिखे! हमने तो अपना विचार व्यक्त कर दिया।

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Sunday, February 7, 2010

इंसानी दिल-हिन्दी व्यंग्य कविताऐं (heart of man-hindi satire poem)

मतलब के लिए इंसान

अपना दिल इस तरह बदल जाते

कि आखें होती तो

बेपैंदी के लोटे भी देखकर शर्माते।

जुबान होती तो

एक दूसरे पर इंसान होने का शक जताते।

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नब्बे फीसदी सांप

जहरीले नहीं होते

यह विशेषज्ञ ने बताया।

तब से इंसानों की सांप से

तुलना करना बंद कर दिया हमने

क्योंकि सांप के डसने से

कई लोगों को बचते देखा

पर इंसानों के धोखे से बचता

कोई नज़र नहीं आया।

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Wednesday, February 3, 2010

नजरिया-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (nazariya-hindi comic poems)

जिंदगी का सच कटु होता जितना

इंसान का सपना उतना ही रंगीन हो जाता है।

रंगीले इंसानों के लिये

जिंदगी की  कड़वाहट में है मनोरंजन

इसलिये सोच से बने अफसानों में

हर रंग सराबोर हो जाता है।

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अमीर के बच्चे ने

गरीबों के दर्द पर

तो गरीब के बच्चे ने अमीरी के ख्वाब पर लिखा।

किन हालातों पर रोयें, किन पर हंसे

इंसानों के नजरिये में ही फर्क दिखा।

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