Tuesday, October 25, 2011

कन्या भ्रुण हत्याओं का परिणाम और कॉमेडी-हिन्दी व्यंग्य लेख

              यह कहना कठिन है कि यह कन्या भ्रुण हत्याओं की वजह से देश में लड़कियों की संख्या कम होने का परिणाम है या छोटे पर्दे लेखकों की संकीर्ण रचनात्मकता का प्रभाव कि हास्य-व्यंग्य पर आधारित कार्यक्रम यानि कॉमेडी के लिये पुरुष पात्रों से महिलाओं का अभिनय कराया जा रहा है। इतना तय है कि इस कारण हास्य व्यंग्य पर आधारित धारावाहिक अपना महत्व आम जनमानस में खो रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि हास्य व्यंग्य पर आधारित एक चैनल भी अब अपनी कहानियों में पुरुष अभिनेताओं को महिलाओं के पात्र निभाने के लिये प्रेरित कर रहा है। एक कार्यक्रम कॉमेडी सर्कस ने तो हद ही कर दी है। उसमें पुरुष जोड़ी को महिला युगल पात्रों का अभिनय कराया तो महिला से पुरुष और पुरुष से महिला पात्र कराने अभिनय भी प्रस्तुत किया।
             हम यहां कोई आपत्ति नहीं कर रहे हैं न कोई बंदिश आदि की मांग कर रहे हैं। बस एक बात हास्य व्यंग्य लेखक और पाठक होने के नाते जानते हैं कि ऐसी मूर्खतापूर्ण प्रस्तुतियों से हंसी तो कतई नहीं आती है। फिर आज की युवा पीढ़ी से यह आशा करना तो बेकार ही है कि वह ऐसे हास्य व्यंग्य को समझ पायेगी जो कि विशुद्ध रूप से विपरीत लिंगी यौन आकर्षण के कारण भी इनको देखती है। अगर कहीं महिला पात्र का निर्वाह कोई पुरुष करता है तो वह युवकों में कोई यौन आकर्षण पैदा नहीं करता। वास्तव में जो हास्य व्यंग्य देखते हैं उनके लिये भी यह निराशाजनक होता है। सब जानते हैं कि विपरीत लिंगी योन आकर्षण भी पर्दे की प्रस्तुतियों को सफल बनाने में योग देता है और यह देश अभी समलैंगिक व्यवहार के लिये तैयार नहीं है जैसा कि कुछ बुद्धिजीवी चाहे हैं। इस तरह के अभिनय अव्यवसायिक रुख का परिणाम लगता है भले ही चैनल वालों को इसकी परवाह नहीं क्योंकि वहां कंपनी राज्य चलता है जिनके उत्पाद बिकने हैं चाहें विज्ञापन दें या नहीं। विज्ञापन तो उनके लिये प्रचार माध्यमों को नियंत्रित करनो का जरिया मात्र है।
             हमें लगता है कि यह शायद इसलिये हो रहा है कि इन पर्दे के व्यवसायियों को महिला पात्र मिल नहीं पा रही हैं या फिर आजकल की लड़कियां भी जागरुक हो गयी हैं और -जैसा कि हम सुनते हैं कि कला की दुनियां दैहिक यानि कास्टिंग काउच शोषण होता है-वह कम संख्या में ही मिल रही हैं। यह सही है कि पर्दे की रुपहली दुनियां के सभी प्रशंसक हैं पर कास्टिंग काउच जैसे समाचारों की वजह से अब आम लड़कियां नायिका बनने के सपने अधिक मात्रा में नहीं देखती। संभव है कि लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है जिस कारण उसका प्रभाव हो या फिर बढ़ती जनसंख्या के बावजूद पर्दे पर अभिनय करने वाली लड़कियों की संख्या कार्यक्रम निर्माताओं की संख्या के अनुपात में न बढ़ी हो। इसलिये संतुलन न बन पा रहा हो। जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे देश का धनपति तथा बाहुबली वर्ग सारी बातें मंजूर कर सकता है पर काम देने के मामले में अपनी शर्तें थोपने की प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो पाते। इसलिये जिनको अभिनय के लिये लड़कियां अपनी शर्तों पर मिलती हैं वह कार्यक्रम बना लेते हैं जिनको नहीं मिलती वह पुरुषों से महिला पात्रों का अभिनय कराने वाली पटकथा लिखवाते हैं। प्रचार प्रबंधकों की मनमानी का ही यह परिणाम है कि क्रिकेट की तरह छोटे पर्दे के कथित वास्तविक प्रसारण यानि रियल्टी शो भी फिक्सिंग के आरोपो से घिरे रहते हैं। अभी हाल ही में बिग बॉस-5 को हिट करने के लिये भी क्षेत्रीयता का मुद्दा उठाया गया। लोगों ने साफ माना कि यह केवल प्रचार बढ़ाने के लिये हैं।
            बहरहाल एक बात तय है कि हिन्दी से कमाने को सभी लालायित हैं पर शुद्ध लेखकों से लिखवाने के लिये कोई तैयार नहीं है। यही कारण कि विदेशी धारावहिकों से अनुवाद कर लिखवाया जाता है। क्लर्कों को कथा पटकथा लेखक कहा जाता है। विदेशी कार्यक्रमों की की हुबहु नकल पर कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं। देश के संस्कारों की समझ किसी को नहीं है न उनको जरूरत है। यहां आम आदमी को तो एक निबुद्धि इंसान माना जाता है। कॉमेडी के नाम पर इसलिये फूहड़ कार्यक्रम प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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Thursday, October 13, 2011

सिंध के विषय पर कुछ क्यों नहीं बोलते-हिन्दी लेख (disscussion on sindh state of pakistan and india-hindi article

             अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के लक्ष्यों को लेकर तो उनके विरोधी भी गलत नहीं मानते। इस देश में शायद ही कोई आदमी हो यह नहीं चाहता हो कि देश में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो। अन्ना हजारे ने जब पहली बार अनशन प्रारंभ किया तो उनको व्यापक समर्थन मिला। किसी आंदोलन या अभियान के लिये किसी संगठन का होना अनिवार्य है मगर अन्ना दिल्ली अकेले ही मैदान में उतर आये तो उनके साथ कुछ स्वयंसेवी संगठन साथ हो गये जिसमें सिविल सोसायटी प्रमुख रूप से थी। इस संगठन के सदस्य केवल समाज सेवा करते हैं ऐसा ही उनका दावा है। इसलिये कथित रूप से जहां समाज सुधार की जरूरत है वहां उनका दखल रहता है। समाज सुधार एक ऐसा विषय हैं जिसमें अनेक उपविषय स्वतः शामिल हो जाते हैं। इसलिये सिविल सोसायटी के सदस्य एक तरह से आलराउंडर बन गये हैं-ऐसा लगता है। यह अलग बात है कि अन्ना के आंदोलन से पहले उनकी कोई राष्ट्रीय छवि नहंी थी। अब अन्ना की छत्रछाया में उनको वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है जिसकी कल्पना अनेक आम लोग करते हैं। इसलिये इसके सदस्य अब उस विषय पर बोलने लगे हैं जिससे वह जुड़े हैं। यह अलग बात है कि उनका चिंत्तन छोटे पर्दे पर चमकने तथा समाचार पत्रों में छपने वाले पेशेवर विद्वानों से अलग नहीं है जो हम सुनते हैं।
           बहरहाल बात शुरु करें अन्ना हजारे से जुुड़ी सिविल सोसायटी के सदस्य पर हमले से जो कि वास्तव में एक निंदनीय घटना है। कहा जा रहा है कि यह हमला अन्ना के सहयोगी के जम्मू कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने पर दिया गया था जो कि विशुद्ध रूप से पाकिस्तान का ऐजंेडा है। दरअसल यह संयुक्त राष्ट्र में पारित उस प्रस्ताव का हिस्सा भी है जो अब धूल खा रहा है और भारत की सामरिक और आर्थिक शक्ति के चलते यह संभव नहीं है कि विश्व का कोई दूसरा देश इस पर अमल की बात करे। ऐसे में कुछ विदेशी प्रयास इस तरह के होना स्वाभाविक है कि भारतीय रणनीतिकारों को यह विषय गाहे बगाहे उठाकर परेशान किया जाये। अन्ना के जिस सहयोगी पर हमला किया गया उन्हें विदेशों से अनुदान मिलता है यह बात प्रचार माध्यमों से पता चलती रहती है। हम यह भी जानते हैं कि विदेशों से अनुदान लेने वाले स्वैच्छिक संगठन कहीं न कहीं अपने दानदाताओं का ऐजेंडा आगे बढ़ाते हैं।
           हमारे देश में लोकतंत्र है और हम इसका प्रतिकार हिंसा की बजाय तर्क से देने का समर्थन करते हैं। कुछ लोगों को यह लगता है कि मारपीट कर प्रतिकार करें तो वह कानून को चुनौती देते हैं। इस प्रसंग में कानून अपना काम करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है।
           इधर अन्ना के सहयोगी पर हमले की निंदा का क्रम कुछ देर चला पर अब बात उनके बयान की हो रही है कि उसमें भी बहुत सारे दोष हैं। कहीं न कहीं हमला होने की बात पीछे छूटती जा रही है। एक आम लेखक और नागरिक के रूप में हम अपनी बात कहें तो शायद कुछ लोगों को अजीब लगे। हमने अन्ना के सहयोगी के इस बयान को उन पर हमले के बाद ही सुना। इसका मतलब यह कि यह बयान आने के 15 दिन बाद ही घूल में पड़ा था। कुछ उत्तेजित युवकों ने मारपीट कर उस बयान को पुनः लोकप्रियता दिला दी। इतनी कि अब सारे टीवी चैनल उसे दिखाकर अपना विज्ञापनों का समय पास कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि कहीं यह उत्तेजित युवक यह बयान टीवी चैनलों पर दिखाने की कोई ऐसी योजना का अनजाने में हिस्सा तो नहीं बन गये। संभव है उस समय टीवी चैनल किसी अन्य समाचार में इतना व्यस्त हों जिससे यह बयान उनकी नजर से चूक गया हो। यह भी संभव है कि दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई बैंगलौर या अहमदाबाद जैसे महानगरों पर ही भारतीय प्रचार माध्यम ध्यान देते हैं इसलिये अन्य छोटे शहरों में दिये गये बयान उनकी नजर से चूक जाते हैं। इस बयान का बाद में जब उनका महत्व पता चलता है तो कोई विवाद खड़ा कर उसे सामने लाने की कोई योजना बनती हो। हमारे देश में अनेक युवक ऐसे हैं जो अनजाने में जोश के कारण उनकी योजना का हिस्सा बन जाते हैं। यह शायद इसी तरह का प्रकरण हो। हमला करने वाले युवकों ने हथियार के रूप में हाथों का ही उपयोग किया इसलिये लगता है कि उनका उद्देश्य अन्ना के सहयोगी को डराना ही रहा होगा। ऐसे में मारपीट कर उन्होंनें जो किया उसके लिये उनको अब अदालतों का सामना तो उनको करना ही होगा। हैरानी की बात यह है कि हमला करने वाले तीन आरोपियों में से दो मौके से फरार हो गये पर एक पकड़ा गया। जो पकड़ा गया वह अपने कृत्य पर शार्मिंदा नहीं था और जो फरार हो गये वह टीवी चैनलों पर अपने कृत्य का समर्थन कर रहे थे। हैरानी की बात यह कि उन्होंने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के प्रति समर्थन देकर अपनी छवि बनाने का प्रयास किया। इसका सीधा मतलब यह था कि वह अन्ना की आड़ में उनके सहयोगी के अन्य ऐजेंडों से प्रतिबद्धता को उजागर करना चाहते थे। वह इसमें सफल रहे या नहीं यह कहना कठिन है पर एक बात तय है कि उन्होंने अन्ना के सहयोगी को ऐसे संकट में डाल दिया है जहां उनके अपने अन्य सहयोगियों के सामने अपनी छवि बचाने का बहुत प्रयास करना होगा। संभव है कि धीरे धीरे उनको आंदोलन की रणनीतिक भूमिका से प्रथक किया जाये। कोई खूनखराबा नहीं  हुआ यह बात अच्छी है पर अन्ना के सभी सहयोगियों के सामने अब यह समस्या आने वाली है कि उनकी आलराउंडर छवि उनके लिये संकट का विषय बन सकती है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन निर्विवाद है पर जम्मू कश्मीर, देश की शिक्षा नीति, हिन्दुत्ववाद, धर्मनिरपेक्षता तथा आतंकवाद जैसे संवेदनशील विषयों पर अपनी बात सोच समझकर रखना चाहिए। यह अलग बात है कि लोग चिंत्तन करने की बजाय तात्कालिक लोकप्रियता के लिये बयान देते हैं। यही अन्ना के सहयोगी ने किया। स्थिति यह है कि जिन संगठनों ने उन पर एक दिन पहले उन पर हमले की निंदा की दूसरे दिन अन्ना के सहयोगी के बयान से भी प्रथक होने की बात कह रहे हैं। अन्ना ने कुशल राजनीतिक होने का प्रमाण हमले की निंदा करने के साथ ही यह कहकर भी दिया कि मैं हमले की असली वजह के लिये अपने एक अन्य सहयेागी से पता कर ही आगे कुछ कहूंगा।
            आखिरी बात जम्मू कश्मीर के बारे में की जाये। भारत में रहकर पाकिस्तान के ऐजेंडे का समर्थन करने से संभव है विदेशों में लोकप्रिय मिल जाये। कुछ लोग गला फाड़कर चिल्लाते हुए रहें तो उसकी परवाह कौन करता है? मगर यह नाजुक विषय है। भारत का बंटवारा कर पाकिस्तान बना है। इधर पेशेवर बुद्धिजीवी विदेशी प्रायोजन के चलते मानवाधिकारों की आड़ में गाहे बगाहे जनमत संग्रह की बात करते हैं। कुछ ज्ञानी बुद्धिजीवी इस बात को जानते हैं कि यह सब केवल पैसे का खेल है इसलिये बोलते नहीं है। फिर बयान के बाद मामला दब जाता है। इसलिये क्या विवाद करना? अलबत्ता इन बुद्धिजीवियों को कथित स्वैच्छिक समाज सेवकों को यह बता दें कि विभाजन के समय सिंध और पंजाब से आये लोग हिन्दी नहीं जानते थे इसलिये अपनी बात न कह पाये न लिख पाये। उन्होंने अपनी पीड़ा अपनी पीढ़ी को सुनाई जो अब हिन्दी लिखती भी है और पढ़ती भी है। यह पेशेवर बुद्धिजीवी अपने उन बुजुर्गों की बतायी राह पर चल रहे हैं जिसका सामना बंटवारा झेलने वाली पीढ़ी से नहीं हुआ मगर इनका होगा। बंटवारे का सच क्या था? वहां रहते हुए और फिर यहां आकर शरणार्थी के रूप में कैसी पीढ़ा झेली इस सच का बयान अभी तक हुआ नहीं है। विभाजन से पूर्व पाकिस्तान में सिंध, बलूचिस्तान और सिंध प्रांतों में क्या जनमत कराया गया था? पाकिस्तान जम्मू कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करता और जनमत संग्रह की मांग करने वाले खुले रूप से उससे हमदर्दी रखते हैं। ऐसे में जनमत संग्रह कराने का मतलब पूरा कश्मीर पाकिस्तान को देना ही है। कुछ राष्ट्रवादियों का यह प्रश्न इन कथित मानवाधिकारियों के सामने संकट खड़ा कर सकता है कि ‘सिंध किसके बाप का था जो पाकिस्तान को दे दिया या किसके बाप का है जो कहता है कि वह पाकिस्तान का हिस्सा है’। जम्मू कश्मीर को अपने साथ मिलाने का सपना पूरा तो तब हो जब वह पहले बलूचिस्तान, सीमा प्रांत और सिंध को आजाद करे जहां की आग उसे जलाये दे रही है। यह तीनों प्रांत केवल पंजाब की गुलामी झेल रहे हैं। इन संकीर्ण बुद्धिजीवियों की नज़र केवल उस नक्शे तक जाती है जो अंग्रेज थमा गये जबकि राष्ट्रवादी इस बात को नहीं भूलते कि यह धोखा था। संभव है कि यह सब पैसे से प्रायोजित होने की वजह से हो रहा हो। इसी कारण इतिहास, भूगोल तथा अपने पारंपरिक समाज से अनभिज्ञ होकर केवल विदेशियों से पैसा देकर कोई भी कैसा भी बयान दे सकता है। यह लोग जम्मू कश्मीर पर बोलते हैं पर उस सिंध पर कुछ नहीं बोलते जो हमारे राष्ट्रगीत में तो है पर नक्शे में नहीं है।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, October 1, 2011

महात्मा गांधी का दर्शन और भारत की वर्तमान स्थिति-2 अक्टुबर गांधी जयंती पर विशेष हिन्दी लेख (mahatma gandhi ka darshan nirapad nahin tha-hindi lekh on 2 october gandhi jayanti)

         कल दो अक्टोबर देश में गांधी जयंती मनाई जायेगी। प्रसंगवश इस दिन भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री का भी जन्म दिन मनाया जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इतिहास में किसी भी महापुरुष का नाम बिना किसी योग्यता, कठिन परिश्रम या त्याग के दर्ज नहीं होता पर यह भी सत्य है कि एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन समय समय पर अनेक लोग अपने ढंग से करते हैं। एतिहासिक पुरुषों के परमधाम गमन के तत्काल बाद सहानुभूति के चलते जहां उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का मूल्यांकन करने वाले अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाते हैं। उस समय कोई प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं करता पर समय के साथ ही एतिहासिक पुरुषों के व्यक्तित्व का प्रभाव क्षीण होने लगता है तब विचारवान लोग प्रतिकूल टिप्पणियां भले न करें पर कुछ प्रश्न उठाने ही लगते हैं।
          गांधीजी के दर्शन  पर भी अनेक सवाल उठते हैं तो श्रीलाल बहादुर शास्त्री के बारे में भी यह पूछा जाता है कि पाकिस्तान से युद्ध जीतने के बाद भी उन्होंने मास्को जाकर सोवियत संघ की मध्यस्थता स्वीकार कर हारने जैसा काम क्यों किया? बहुत समय तक यह सवाल किसी ने नहीं पूछा था पर जब कारगिल युद्ध के बंद होने के बाद यह बात उठी थी तब शास्त्री जी की भूमिका सामने आयी थी भले ही उस समय सीधे किसी ने उनका नाम लेकर आक्षेप नहीं किया गया। फिर यह सवाल चर्चा में अधिक नहीं आया पर विचारवान लोगों के लिये इतना ही बहुत था। पाकिस्तान को परास्त करने के बाद विजेता भारत के प्रधानमंत्री का इस तरह मास्को जाकर पाकिस्तान के हुक्मरानों से समझौता करना वाकई देश के लिये कोई सम्मान की बात नहीं थी-यह बात आज अनेक लोग मानते हैं। इस समझौते में पाकिस्तान की जमीन बिना कुछ लिये दिये वापस कर दी गयी थी।
            गांधीजी को विश्व में महान सम्मान प्राप्त हुआ है पर भारतीय जनमानस में अब उनकी छवि क्षीण हो रही है फिर अब फिल्म, क्रिकेट और अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों में सक्रिय नये नये महापुरुषों का भी प्रचार हो रहा है। सरकारी और गैर सरकारी तौर पर गांधी जयंती के समय खूब प्रचार होने के साथ ही अनेक कार्यक्रम भी होते हैं पर लगता नहीं कि आज के कठिन समय का सामना कर रहा भारतीय जनमानस उसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेता हो। गांधीजी को राजनीतक संत कहना उनके दर्शन को सीमित दायरे में रखना है। मूलतः गांधी जी एक सात्विक प्रवृत्ति के धार्मिक विचार वाले व्यक्ति थे। निच्छल हªदय और सहज स्वभाव की वजह से उनमें उच्च जीवन चरित्र निर्माण हुआ। एक बात तय है कि उन्होंने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने का जब अभियान प्रारंभ किया होगा तब उनका लक्ष्य आत्मप्रचार पाना नहीं बल्कि देश के आम इंसान का उद्धार करना रहा होगा। अलबत्ता अपने आंदोलन के दौरान उन्होंने इस बात को अनुभव किया होगा कि उनके सभी सहयोग उनकी तरह निष्काम नहीं है। इसके बावजूद वह इस बात को लेकर आशावदी रहे होंगे कि समय के अनुसार बदलाव होगा और अपने ही देश के भले लोग राज्य अच्छी तरह चलायेंगे। कालांतर में जो हुआ वह हम सब जानते हैं। उनके सपनों का भारत कभी न बना न बनने की आशा है। स्थिति यह है कि अनेक अनुयायी अब दूसरे स्वाधीनता आंदोलन का बात करने लगे हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि गांधी जी का सपना पूरा नहीं हुआ और जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन प्रारंभ किया वह पूरा नहीं हुआ। दूसरे शब्दों में 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी केवल एक ऐसा प्रतीक है जिसकी स्मृतियां केवल उस दिन मनाये जाये वाले कार्यक्रमों में ही मिलती है। जमीन पर अभी गांधीजी के सपनों का पूरा होना बाकी है।
        यहां हम गांधीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व की आलोचना नहीं कर रहे क्योंकि हम जैसा मामूली शख्स भला उन पर क्या लिख सकता है? अलबत्ता देश के हालात देखकर वैचारिक रूप से गांधी दर्शन अब निरापद नहीं माना जा सकता है। सबसे पहला सवाल तो यह है कि भारत का स्वाधीनता आंदोलन अंततः एक राजनीतिक प्रयास था जिसमें राजकाज भारतीयों के हाथ में होने का लक्ष्य तय किया गया था। दूसरी बात यह कि गांधीजी ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया था जिस पर भारतीयों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने का आरोप था। इसके अलावा देश की समस्याओं के प्रति अंग्रेज सरकार की प्रतिबद्धता पर भी संदेह जताया गया था। इसका अर्थ सीधा है कि गांधीजी एक ऐसी सरकार चाहते थे जो देश के लोगों की होने के साथ ही जनहित का काम करे। ऐसे में राजकाज के पदों पर बैठने वाले महत्वपूर्ण लोगों की गतिविधियां महत्वपूर्ण होती हैं। तब गांधी जी ने राजकाज प्रत्यक्ष रूप से चलाने के लिये कोई पद लेने से इंकार क्यों किया? क्या वह इन पदों को भोग का विषय समझते थे या दायित्व निभाने के लिये अपने अंदर क्षमता का अभाव अनुभव करते थे। अगर यह दोनों बातें नहीं थी तो क्या उनको भरोसा था कि जो लोग राजकाज देखेंगे वह उनके रहते हुए अच्छा काम ही करेंगे? क्या उनको यकीन था कि जिन लोगों को वह राजकाज का जिम्म सौंपेंगे वह अच्छा ही काम करेंगे?
यकीनन सरकार का सैद्धांतिक रूप उनके सपनों में रहा हो पर व्यवहारिक  रूप से उनको इसका कोई अनुभव नहीं था। वह राजनीतिक के सैद्धांतिक पक्ष और व्यवहारिक स्थिति के अंतर को नहीं जानते थे। उन्होंने एक ऐसा राजनीतिक अभियान शुरु किया जो कालांतर में सीमित लक्ष्य प्राप्त कर समाप्त हो गया। आज उसी प्राप्त लक्ष्य को भी चुनौती मिल रही है। गांधी जी के अनुयायी और आज के महानायक अन्ना हजारे मानते हैं कि आज का शासन भी अंग्रेजों जैसा ही है। श्री अन्ना हजारे स्वयं भी कोई पद नहीं लेना चाहते पर देश के स्वच्छ और विकसित होने की का जिम्मा सरकार का ही मानते हैं। तब ऐसा लगता है कि एक राजनीति शास्त्र का ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति भी राजनीति कर सकता है या राजकाज कोई पद संभाल सकता है। हमारा तो मानना है कि अंग्रेजों के विरुद्ध गांधीजी के आंदोलन के बारे में अब इतिहास पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं अन्ना जी का आंदोलन बता रहा है कि उस समय क्या क्या हुआ होगा?
        28 अगस्त को अन्ना साहिब का जनलोकपाल विधेयक लाने संबंधी आंदोलन समाप्त हुआ। हासिल कुछ नहीं हुआ पर उन्होंने कहा कि हमें आधी जीत मिली है। तब हम जैसे लोग सड़कों पर घूमते हुए उस आधी जीत को ढूंढते हुए सोच रहे थे कि 16 अगस्त को भी कोई हम जैसा शख्स रहा होगा जो उस आजादी को ढूंढ रहा होगा जिसका दावा उस समय किया जा रहा था। बहरहाल गांधीजी के आंदोलन के पीछे उस समय के धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक, तथा आर्थिक शिखरों पर बैठे लोग रहे होंगे जो अपने हित साधन के लिये ही ऐसी आजादी चाहते होंगे ताकि वह देश के आम इंसान को गुलाम बनाये रख सके। पता नहीं गांधीजी यह देख पाये या नहीं पर इतना तय है कि वह जैसा भारत चाहते थे वैसा बन नहीं पाया। आखिरी बात यह है कि गांधीजी सात्विक प्रवृत्ति के थे और उनका आंदोलन राजस वृत्ति का था। बात अगर राजनीति की है तो उसमे सात्विक प्रवृत्ति की आशा करना व्यर्थ है। यह राजसी वृत्ति वाले लोगों का काम है। राजसी वृत्ति बुरी नहीं है बशर्त व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये उचित ढंग से कार्य करे। मुश्किल यह है कि तामसी वृत्ति वाले लोग अब राजकाज करने लगे हैं। भारत में दूसरी भी समस्या है। राजसी लोगों को स्वार्थी जानकर लोग हªदय से सम्मान नहीं करते जबकि सामूहिक नेतृत्व करना उन्हीं के बूते का होता है। सात्विक लोगों को समाज सम्मान देता है पर वह निष्काम होने के कारण राजकाज का काम नहीं करते। यही कारण है कि राजसी वृत्ति के लोग सात्विक लोगों को ढाल बनाकर आगे चलते हैं ताकि समाज उनका नेतृत्व और शासन स्वीकार करे। इसी कारण पूरे विश्व के राष्ट्राध्यक्ष अपने संपर्क धार्मिक नेताओं  से रखते हैं। गांधी को हमने देखा नहीं और अन्ना से कभी मिले नहीं पर प्रचार माध्यमों में देखकर हमने अनुभव किया वह लिख दिया। इस अवसर पर महात्मा गांधी जी और शास्त्री जी को हमारी हार्दिक श्रद्धांजलि!




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