Monday, November 22, 2010

पहले अपना पांव कीचड़ में डाल दो-हिन्दी व्यंग्य एवं कविता (bigg boss and his actres-hindi vyangya and kavita)

बिग बॉस से निकाली गयी उस अभिनेत्री ने गुरुद्वारे जाकर मत्था टेका। भगवान श्रीगुरुनानक तथा उसके बाद के सिख धर्म गुरुओं की भारतीय जनमानस में जो प्रतिष्ठा है उसे देखते हुए किसी देशवासी का वहां मत्था टेकना कौनसी बड़ी बात है? मगर किसी व्यक्ति विशेष का वहां जाकर मत्था टेकने की खबर जब टीवी समाचार चैनलों ये अखबार में छपे तो यह देखना पड़ता है कि आखिर मत्था टेकने के इस प्रचार को भी तो कहीं नकदी में परिवर्तित नहीं किया जा रहा। जब समाचारों मे विज्ञापन की बजाय विज्ञापनों में समाचार हों तब यह शक पुख्ता हो जाता है कि सभी रसों की तरह अब भक्ति का भी प्रदर्शन हो गया जिससे वह अभिनेत्री अब स्वच्छ छवि होकर विज्ञापनों के लिये काम कर सकेगी और लोग उसके बिग बॉस के अभिनय को भूलकर उससे प्रभावित होंगे।
बिग बॉस में अपनी बदतमीजी तथा गाली गालौच के लिये विख्यात हो चुकी वह अभिनेत्री अब बाहर टीवी समाचार चैनलों और अखबारों के लिये प्रकाशन सामग्री के लिये एक महत्वपूर्ण चेहरा बन गयी है। विख्यात इसलिये लिखा है कि अब कुख्यात कहना भी अज़ीब लगता है। जरा, प्रचार जगत की भूमिका देखें। अधिक समय नहीं एक सप्ताह हुआ होगा जब वह अभिनेत्री उसके लिये कुख्यात थी। लोग बिग बॉस पर आखों तरेर रहे थे और प्रचार जगत उनके बयानों को जगह दे रहा था। ऐसा लग रहा था कि वह अभिनेत्री देश के लिये कोई कलंक है। यह अलग बात है कि इस विवाद के बाद ही हम जैसे लोगों को पता चला कि बिग बॉस नाम का एक कार्यक्रम चल रहा है। समाचार चैनलों का एक बहुत सारा समय उस अभिनेत्री को कोसने में लग गया तो समाचार पत्र पत्रिकाओं में सामग्री प्रकाशित हुई-विज्ञापन अपनी कमाई देते रहे।
एक दिन अचानक ब्रेकिंग न्यूज आई। उसे बिग बॉस निकाल दिया गया-अगर ऐसी खबर ब्रेकिंग बने तो आप समझ सकते हैं कि हमारे प्रचार प्रबंधकों को समाज हित से ज्यादा अपने आर्थिक हितों की चिंता है। मात्र दो दिनों में ही उस अभिनेत्री के साक्षात्कार टीवी चैनलों में आने लगे। वह मुस्कराने लगी। सफाई देती रही। हर चैनल उसके साक्षात्कार को अपने विज्ञापनों में सजाने लगा। ऐसे साक्षात्कारों में हर एकाध मिनट में ब्रेक लिया जाता है क्योंकि प्रचार प्रबंधकों को पता है कि साक्षात्कार के लिये प्रस्तुत चेहरा इस समय ताज़ा है और लोग अपनी आंखें गड़ाकर देखेंगे। इसके लिये जरूरी था कि उस अभिनेत्री की छवि सुधारी जाये। उसको जो ख्याति-अब उसमें सु जोड़े या कु यह पढ़ने वालों पर है-मिली उसे भुनाने के लिये विज्ञापन भी तैयार हो सकते हैं। कुछ दिन बाद वह कोई सामान बेचने के लिये उसका प्रचार करती नज़र आयेगी। इसलिये उससे कहा गया होगा कि‘जाओ, किसी गुरुद्वारे का चक्कर भी लगाकर आओ क्योंकि व्यवायिकता के लिये यह जरूरी है।’
वह गयी होगी। वहां उसने भजन गाये। उसके दृश्य कैमरे में कैद करने के लिये बकायदा चैनल वाले गये होंगे। यकीनन कहीं न कहीं संवाद कायम किया गया होगा और इसके लिये व्यवसायिक आधार वाले लोग ही शामिल हुए होंगे।
बिग बॉस तथा अन्य रियल्टी शो बाज़ार तथा प्रचार के लिये नये मॉडल बनाने के अलावा कुछ नहीं कर रहे, यह इस बात से भी प्रमाणित होने लगा है कि उनके प्रसारणों की पटकथा पहले लिखी जाती है। इंसाफ धारावाहिक प्रसारित करने वाली एक अभिनेत्री ने कहा है कि जैसा उससे कहा जाता है वैसा ही वह बोलती है। बिग बॉस से निकाली गयी अभिनेत्री के बारे में भी लोग यही कह रहे थे कि उसे यही सब करने के लिये पैसे दिये जा रहे थे। वह विख्यात हो रही थी तो बाज़ार के ताकतवर सौदागर तथा प्रचार से जुड़े मध्यस्थ बैचेन हो रहे थे कि कहीं वह बिग बॉस में अधिक चली तो धीरे धीरे नाम की चमक फीकी होती जायेगी तब उनका हिस्सा मारा जायेगा। सो बाहर करवा दिया। अब भक्ति का वह रस उस पर चढ़ा रहे है जिसके बिना भारत में किसी की छवि नहीं बन सकती।
प्रस्तुत है इस पर कविता
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अपने मुख से कुछ शब्द
आग से नहलाकर बाहर उछाल दो,
अपनी आंखों के तीर में
नफरत का बाण भी डाल दो।
बदनाम होकर अपना चेहरा
ज़माने में चमकाना जरूरी है,
क्योंकि आंख और कान से
लोगों की अक्ल की बहुत दूरी है,
फिर सर्वशक्तिमान की दरबार में
जाकर हाजिरी देना
जीवन सुधर जायेगा,
बद है जो नाम
वह मशहूर हो जायेगा,
बाज़ार के दौलतमंद सौदागारों का आसरा मिलेगा
वह कमल बनाकर खिला देंगे
पहले अपना पांव कीचड़ में तो डाल दो।
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प्रस्तुत है इस विषय पर दो लेख जिसमें बिग बॉस तथा राखी इंसाफ पर विचार व्यक्त किये गए हैं एक लेख परसों तथा दूसरा कल लिखा गया था 

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, November 14, 2010

बैचेन रहने की आदत ऐसे नहीं जायेगी-हिन्दी व्यंग्य (bachain rahne ki aadat aise nahin jayegi -hindi vyangya)

लिखना तथा एक तिवारी जी नामक हिन्दी पटकथा लेखक पर संयोग ऐसा बन गया कि हमें अपना नाम जोड़कर भी इस लेख को लिखना पड़ रहा है क्योंकि इंतजार है उस ब्लाग लेखक के उत्तर का जिसने बिना कांट छांट किये हमारी एक कविता को अपने ब्लाग पर बिना नाम के छाप दिया और हमने उस पर अपनी टिप्पणी लिख कर मामले के निपटारे की मांग की है।
हिन्दी में रचनाकार नहीं है, यह नारा बहुत दिनों से सुन रहे हैं-इस नारे में बाज़ार, राज्य तथा प्रचार व्यवसाय के जुड़े लोगों के जो वह बुद्धिजीवी लगाते हैं जो केवल आलेख लिखते हैं वह भी प्रायोजन मिलने पर। इधर राखी का इंसाफ धारावाहिक विवाद में फंसा तो एक राखी का स्वयंवर धारावाहिक का एक पटकथा लेखक सामने आया जिसने यह दावा किया है कि वह उसकी चुराई हुई है। स्थिति यह है कि उसने आत्महत्या करने की धमकी दे डाली है जैसे कि राखी के इंसाफ में ताने से प्रेरित होकर झांसी के एक लक्ष्मण युवक ने कर ली है।
तिवारी नाम धारी उसे लेखक का दावा था कि जब उसने अपनी पटकथा का होने का दावा किया तो उसे धमकाया गया और कहा गया कि ‘इसकी नायिका एक तरह से पूरे मीडिया की बेटी है। इसलिये उससे पंगा मत लो।’
हमें उस तिवारी नामधारी लेखक से सहानुभूति है। ऐसा लगता है कि वह सच बोल रहा होगा क्योंकि फिल्मों के बारे में मिली यह पहली शिकायत नहीं है। हमारे एक चौरसिया नाम के एक मित्र कहानीकार हैं। उन्होंने कम से कम पच्चीस वर्ष पूर्व एक कलात्मक फिल्म में अपनी कहानी चोरी होने की बात कही थी। तब हंसी आयी थी पर इसमें कोई शक नहीं था चौरसिया जी उच्च दर्जे के कहानीकार हैं। इधर हमने यह भी देखा कि एक अखबार हमारे ही चिंतनों को जस का तस छापता रहा है। जब नाम छापने को कहते हैं कि तो जवाब मिलता है कि ब्लाग का नाम छापने की परंपरा नहीं है। नाम छापने को कहा गया तो जवाब मिला कि अपने संपादक से कहेंगे कि आपकी रचनायें नहीं ले।
कितनी तुच्छ मानसिकता है उन लोगों की जो हिन्दी की खा रहे हैं। हिन्दी लेखक उनकी नज़र में है क्या? क्या खौफ है कि नाम छापेंगे तो लेखक अमिताभ बच्चन बन जायेगा और उसे साबुन, क्रीम या मोटरसाइकिल के विज्ञापन मिलने लगेंगे। मजे की बात है कि नामा न देने की बात स्वीकार तो हिन्दी लेखक कर ही लेते हैं कि क्योंकि उनको पता है कि हिन्दी लेखन और पूंजीपतियों के बीच जो दलाल हैं वह अपना ही पेट मुश्किल से भर पाते हैं पर नाम न देने की बात हमारे समझ में नहीं आयी। स्थिति यह हो गयी है कि समाचार पत्र पत्रिकाओं के पास अब साफ सुथरी हिन्दी लिखने वाले ही नहीं बचे। महंगाई बढ़ रही है कि हिन्दी के अखबार की कीमत आज भी दो ढाई रुपये से अधिक नहीं है। अब तो ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के लिये पाठक और दर्शक एक तरह से गूंगी फौज हो गयी है जिसके सहारे वह उच्च स्तर पर अपनी ताकत दिखा रहे हैं वरना आम आदमी में उनकी कोई पकड़ नहीं है। आजकल तो हर आदमी टीवी की तरह मुंह किये बैठा है। इसलिये ही स्थानीय स्तर पर टीवी चैनलों ने अपने पंाव फैला दिये हैं। अखबार छपने की संख्या और उसे पढ़ने वालों की संख्या में बहुत अंतर है। उससे भी अधिक अंतर तो पढ़ने वाले और उस अखबार से हमदर्दी रखने और पढ़ने वालों के बीच है। मतलब यह कि पहले लोग न केवल अखबार पढ़ते थे बल्कि उसे मानसिक हमदर्दी भी रखते थे। यह अब नहंी है।
हिन्दी ब्लाग पर लिखना और लिखवाना आसान नहीं है। अगर किसी लेखक से लिखने को कहो तो वह कहता है कि रचना चोरी हो जायेगी। मतलब यह कि लिखने को तैयार नहीं है और जो लिख रहे हैं वह चोरी का शिकार हो रहे हैं। लोग झूठ कहते हैं कि हिन्दी के ब्लाग केवल ब्लाग लेखक ही पढ़ रहे हैं और अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। जबकि इस लेखक के गांधी और ओबामा पर लिखे पाठों के अनेक एक स्तंभकार ने चोरी किये जो कि इसका प्रमाण है कि कथित बुद्धिजीवी भी अब अंतर्जाल पर अपनी सामग्री टटोल रहे हैं। यह शायद मजाक लगता हो पर सच यही है कि कुछ ब्लाग लेखकों का नाम बाहर नहीं लिया जा रहा पर सच यही है कि उनके पाठ दूरगामी मार वाले हैं और बुद्धिजीवी उनसे प्रभावित हैं। हिन्दी ब्लाग पर कूड़ा लिखा जा रहा है तो बताईये बाहर कौनसा सदाबाहर साहित्य लिखा पढ़ने को मिल रहा है। इस ब्लाग लेखक के ब्लागों पर पाठकों की टिप्पणियां इस तरह की आती हैं कि ‘गजब! आप ऐसा भी सोच और लिख सकते हैं।’
लोगों के पास चिंतन नहीं है, दावा चाहे कितने भी करें। नारों पर लिखते हैं और वाद सजाते हैं। फिर उसमें किसी न किसी की तारीफ या निंदा का बिगुल बजाते हैं। फिल्म वालों के पास तो काल्पनिकता और यथार्थ का समन्वय करने की कभी शक्ति ही नहीं दिखी है क्योंकि वहां के निर्माता और निर्देशक हिन्दी लेखकों को स्वतंत्रता न देकर लिपिक बना लेते हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं में लेखकों को लिपिक की तरह ही देखा जाता है। स्थिति यह है कि अधिकतर हिन्दी अखबार अब अंग्रेजी शब्दों के मोह में फंस गये हैं। प्रबंधन करना नहीं आया तो अब मैनेजमेंट करने लगे हैं। क्या खाक करेंगे? प्रबंधन हो या मैनेजमेंट बिना चिंतन और मनन के नहीं होते। हिन्दी का खाकर उसे मिटाने की योजना या साजिश रची गयी है। कहते हैं कि हिन्दी को विश्व स्तर पर पहुंचाना है। क्या खाक पहुंचायेंगे खुद को आती नहीं है। फिर दावा कि हम भाषाविद हैं? क्या खाक हैं एक ढंग की कविता नहीं लिख सकते। हम जैसी कि चुराने का मन हो? कुछ गुस्सा और कुछ हंसी! इस भाव से हम यह लेख लिख रहे हैं क्योंकि चोरी का सदमा है तो खुशी इस बात की है कि हम अच्छा लिख रहे हैं।
आईये पहले उस ब्लाग का नाम देखें। उससे पहले देखकर आयें कि उसने हमारी टिप्पणी का क्या किया? उसने न टिप्पणी प्रकाशित की और न ही जवाब दिया। हम भी उसका नाम नहीं लिख रहे। उसकी बेवसाईट का पता रख लिया है। ऐसा लगता है कि बिचारा रोमन में हिन्दी लिखता है और यह उसकी पहली ऐसी रचना है जो देवानगारी में है। हम उसे बदनाम नहीं करना चाहते पर उम्मीद है कि भाई लोग इसे पढ़कर उसे समझायेंगे। वैसे वह  हमारी टिप्पणियाँ नहीं छाप रहा पर रोमन लिपि में अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर रहा  है । हम यह सब  इसलिए रहे हैं क्योंकि बैचेन रहने की आदत ऐसे नहीं जाएगी। यहाँ यह भी बता दें हमारी रचना छापने का दाम पूछकर एक हज़ार और न पूछना पर दो हज़ार है और हम इसकी विधिवत माग करेंगे। इस लेख का लिखने का दंड अलग से वसूल करेंगे।  
हमारी   रचना यह है 
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बैचेन रहने की  आदत 
लोगों की हमेशा बेचैन रहने की
आदत ऐसी हो गयी है कि
जरा से सुकून मिलने पर भी
डर जाते हैं,
कहीं कम न हो जाये
दूसरों के मुकाबले
सामान जुटाने की हवस
अभ्यास बना रहे लालच का
इसलिये एक चीज़ मिलने पर
दूसरी के लिये दौड़ जाते हैं
। 
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हमारा लिंक यह हैं
http://rajdpk.wordpress.com/2010/10/31/baichen-ki-aadta-hindi-poem/

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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