Sunday, December 3, 2017

सपने वादे बाज़ार में महंगे बिकते हैं-दीपकबापूवाणी

कमबख्त हांका लगाकार भीड़ बुला लेते, सपनो का लोलीपाप देकर सुला देते।
‘दीपकबापू’ जज़्बात बिकते बाज़ार में, नकदी लेकर सौदागर वादों में झुला देते।।
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सपने वादे बाज़ार में महंगे बिकते हैं, वहमी कभी झूठ के सामने नहीं टिकते हैं।
‘दीपकबापू’ लालची जाल में बुरी तरह फंसे, लोग अपनी बदहाली खुद लिखते हैं।।
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हर दिन नया अफसाना सामने आता है, मतलब से नया याराना सामने आता है।
‘दीपकबापू’ एक इंसान पर दिल नहीं रखते, हर पल नया ख्याल सामने आता है।।
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सब प्यारे है जग में भीड़ से अलग न्यारे हैं,नज़र डाली सब आंख के तारे हैं।
‘दीपकबापू’ मतलब लोगों का सिद्ध करते रहो, मत मांगों हिसाब अपने सारे हैं।।
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Saturday, October 21, 2017

गैर की तरक्की से जलते हैं वही तबाही से हाथ मलते हैं-दीपकबापूवाणी (Gair ki Tarkki se jalte hain vahi tabahi se hath malte hain-DeepakBapuwani)

गैर की तरक्की से जलते हैं
वही तबाही से हाथ मलते हैं।
‘दीपकबापू’ अपने चिराग जलायें
वरना घर में अंधेरे पलते हैं।
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जोगी भी राजपद पर चढ़ गये,
जोगसिद्धि के मद में गड़़ गये।
‘दीपकबापू’ जंगल के आजाद शेर
चिड़ियाघर के पिंजरे में मढ़ गये।।
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ऋषि ज्ञान रंग से कांति लाते,
राजा बड़ी जंग से शांति लाते।
‘दीपकबापू’ ज्ञान के नाम पाखंडी
बाज़ार में नारे सपने की भांति सजाते।।
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किस्सों में नमक मिर्ची लगा देते,
इंसानी दिल में आग जगा देते।
‘दीपकबापू’ जज़्बातों के सौदागर
लालच के पीछे ज़माना भगा देते।
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मर्म में विचार मंद बहे जाते हैं,
अर्थ बड़े पर शब्द चंद कहे जाते हैं।
‘दीपकबापू’ संवादहीन हुआ ज़माना
लोग दिल में दर्द बंद सहे जाते हैं।
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Saturday, September 2, 2017

कुदरत के कायदे से ज़माने के रंग बदलते-दीपकबापूवाणी (kudrat ke kayde ka rang badalte-DeepakBapuWani)

दिलदार का रूप पर सोच के छोटे होते, सिक्कों जैसे कुछ इंसान भी खोटे होते।
‘दीपकबापू’ सजधज कर सामने आते पर्दे में, मगर खरी नीयत के उनमें टोटे होते।।
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कुदरत के कायदे से ज़माने के रंग बदलते, लोगों का वहम कि स्वयं ढंग बदलते।
‘दीपकबापू’ चले जा रहे जिंदगी में बदहवास, जिंदगी से पहले उनके ख्याल ढलते।।
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उनके हाथ में मदद बटोरते खुले झोले हैं, आंखों मे आर्त भाव तो चेहरे भी भोले हैं।
‘दीपकबापू’ सर्वशक्तिमान के दरबार में बैठे, बाहर बेबस रूप धरे मस्तों के टोले हैं।।
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घरों के दरवाजे खिड़कियां रहते अब बंद, इश्क की बस्ती वाले दिल रह गये अब चंद।
‘दीपकबापू’ अपने दर्द पर चाद डाल देते, हमदर्द ही हौसलों के कदम करते अब मंद।।
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धन के आसक्त भजन करने भी लग जाते, कोई श्रद्धा जगाये कोई कभी ठग जाते।
‘दीपकबापू’ चेतना की संगत में हुए सयाने, वह निद्रा में बजती घंटी तभी जग जाते।।
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शुल्क लेकर वाणी धाराप्रवाह चलती है, धन से ज्ञान की रौशनी बाहर जलती है।
‘दीपकबापू’ सुविधाभोगी बांटें श्रम ज्ञान, क्या जाने पसीने के बूंद आग में पलती है।।
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Friday, August 11, 2017

हृदय में रस से पत्थर भी गुरु हो जाते हैं-दीपकबापूवाणी (Hridya mein ras se PATHAR BHI GURU HO JATE HAIN-DEEPAK BAPUWANI)

हृदय में रस से पत्थर भी
गुरु हो जाते हैं।
दर्द के मारे रसहीन
जहां कोई मिले
रोना शुरु हो जाते हैं।
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गरीबों के उद्धार के लिये
जो जंग लड़ते हैं।
उनके ही कदम
महलों में पड़ते हैं।
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दिल की बात किससे कहें
सभी दर्द से भाग रहे हैं।
किसके दिल की सुने
सभी दर्द दाग रहे हैं।
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ईमानदारी से जो जीते
गुमनामी उनको घेरे हैं।
चालाकी पर सवार
चारों तरफ मशहूरी फेरे है।
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जहां शब्दों का शोर हो
वह शायर नहीं पहचाने जाते।
जहां जंग हो हक की
वहा कायर नहीं पहचाने जाते।
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समय का खेल 
कभी लोग ढूंढते
कभी दूर रहने के बहाने बनाते।
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राजपथों की दोस्ती
वहम निकलती
जब आजमाई जाती है।
गलियों में मिलती वफा
जहां चाहत जमाई नहीं जाती है।
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कंधे से ज्यादा  बोझ दिमाग पर उठाये हैं,
खाने से ज्यादा गाने पर पैसे लुटाये हैं।
मत पूछना हिसाब ‘दीपकबापू’
इंसान के नाम पशु जुटाये हैं।
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नाम कमाने मे श्रम होता है,
बदनामी से कौन क्रम खोता है।
‘दीपकबापू’ कातिलों की करें पूजा
शिकार गलती का भ्रम ढोता है।।
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Friday, July 14, 2017

जंग लगी ख्याल पर-हिन्दी लघुकवितायें (jang lagi khyal par-Hindi Laghu kaitaey HindiShortpoem)

आकाश के उड़ते पंछी
जमीनी कीड़ों की परवाह
कहां करते हैं।
नीचे आते केवल
दाना पानी पेट में भरते हैं।
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ढेर सारी किताबें
आले में सजी पड़ी हैं।
कभी पढ़ने के इरादे जरूर
अभी कंप्यूटर में आंखें गड़ी हैं।
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भूख पर बहस से
बहुत पेट भर जाते हैं।
पर्दे पर कोई रोटी नहीं पकाता
सब रुदन से रेट भर आते हैं।
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मकान बड़े बनाये
घर छोटे होते गये।
चार से दो हुए
फिर दो होकर
अकेले यादों में खोते गये।
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जंग लगी ख्याल पर
प्रगति पथ पर चले जा रहे हैं।
बनाया कागजों का स्वर्ग
हवा में जो गले जा रहे हैं।
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हादसों से 
पेशेवरों हमदर्दों की
मलाई बन जाती है।
शब्दों से पकती मदिरा
भरे ग्लास से
कलाई तन जाती है।
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Sunday, June 11, 2017

दलालों के कारिंदे बाज़ार में आग सजाते-दीपकबापूवाणी (Dalalon ka karinde bazar mein aag sajate-DeepakbapuWani)

शब्दों के खिलाड़ी प्रेम से सहलाते, नरक में स्वर्ग लाने के वादे से बहलाते।
‘दीपकबापू’ विज्ञापन से पाई वाणी, आज का सच कल के सपने में नहलाते।
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बेरहम सौदागर के गोदाम में रहम बंद है, गुलाम रखते लेखे जुबान बंद है।
‘दीपकबापू’ दोनाली से निकाल रहे अमन, सफाई के पाखंडी नीयत गंद है।।
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बाज़ार जवानी के जोश में इश्क मिलाता, विष भी अमृतरस जैसा पिलाता।
‘दीपकबापू’ नशे में शैतान बने अमीर, दोस्त क्या दुश्मन भी हाथ मिलाता।।
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दलालों के कारिंदे बाज़ार में आग सजाते, सौदागर अमन का राग बजाते।
‘दीपकबापू’ खूनखराबे के खेल में माहिर, लोग फरिश्तों पर भी दाग लगाते।।
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प्रसिद्धि में बड़े पर कदम उनके छोटे हैं, बदनामी का डर साथ चैन के टोटे हैं।
‘दीपकबापू’ हर पल श्रृंगार करते चेहरे पर, शब्दों में सौंदर्य पर विचार खोटे हैं।।
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आंखों के सामने पर आस नहीं होते, हाथों में हाथ पर दिल के पास नहीं होते।
‘दीपकबापू’ प्रेम के पाखंड में हो गये दक्ष, गले मिलते पर सभी खास नहीं होते।।
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गुलामी का बरसों पुराना सबक पढ़ाते, आजादी का नित नया नारा आगे बढ़ाते।
‘दीपकबापू’ पुराने आकाओं का ज्ञान पकड़ा, बिन रोटीदाल कागज का दान चढ़ाते।।
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सुंदर शब्द के पीछे कुविचार छिपाते, विकास के पीछे ढांचे तबाह कर छिपाते।
‘दीपकबापू’ समाज सेवा में लेते दलाली, सबकी भक्ति में लगे आसक्ति छिपाते।।
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गर्मी में पानी की बूंदें स्वर्ग बरसायें, न हों तो शीत में नरक जैसा तरसायें।
‘दीपकबापू’ स्वर्ण के मोह में अंधे हुए, न प्यास बुझे न सूखी रोटी भी पायें।
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दिल में चाहत जेब में पैसा नहीं है, कर्जे से चमक जाये चेहरा ऐसा नहीं है।
‘दीपकबापू’ सपने उधार से सच बनाये, अंधेरे दिल में रौशनी जैसा नहीं है।।
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सोच से पैदल अक्लमंदों के कहार होते, पूछते रास्ता उनसे जो भटके यार होते।
‘दीपकबापू’ अजीब नज़ारे देखे दुनियां में, होशियार जूझें मझधार में मूर्ख पार होते।।
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दिल के लिये अब कोई नहीं खेलता, सौदागर खेल जुआ बना पैसा पेलता।
‘दीपकबापू’ व्यापारी मन बना लिया, जेब भरे हार भी दिलदार जैसा झेलता।।
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गोदाम में अनाज का भंडार रखा है, बाहर गरीब ने बस भूख को चखा है।
‘दीपकबापू’ तख्त पर बैठ करें बंदोबस्त, दलाली करने वालों के ही सखा हैं।
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बहुत देर गरजे पर बादल बरसे नहीं, भरे भंडार जिनके प्यास से वह तरसे नहीं।
‘दीपकबापू’ हमदर्दी दिखाने भीड़ में जाते, भूखे पर हाथ फेरें पर रोटी परसे नहीं।।
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स्वार्थ साधना में फंस गयी आसक्ति, लोहे लकड़ी के सामान पर चढ़ गयी भक्ति।
‘दीपकबापू’ मांस के बुतों में ढूंढ रहे देवता, बीमारी पालते दवा की भा गयी शक्ति।।
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Saturday, May 20, 2017

भूख से ज्यादा थोपा गया मौन सताता है-छोटी हिन्दी कवितायें तथा क्षणिकायें (Bhookh se Jyada Thopa gaya maun satata hai-ShortHindiPoem)

पर्दे पर विज्ञापन का
चलने के लिये
खबरों का पकना जरूरी है।
ढंग से पके सनसनी
अपना रसोईया
रखना जरूरी है।
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अपने पर लगा इल्जाम
बचने के लिये रोना भी
अच्छा बहाना है।
एक ही बार तो
आंसुओं में नहाना है।
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प्यास अगर पानी की होती
नल से बुझा लेते।
दर्द बेवफाई का है
कैसे इश्क की दवा सुझा देते।
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फरिश्तों को पहचाने
दिलाने के लिये
शैतान पाले जाते हैं।
इसलिये अपराधों पर
पर्दे डाले जाते हैं।
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सपने नहीं बेच पाये
लोगों को गरीब बताने लगे।
काठ की हांड
जब दोबारा नहीं चढ़ी
खराब नसीब बताने लगे।
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दिल अगले पल क्या सोचेगा
हमें पता नहीं है।
वफा हो जाये तो ठीक
बेवफाई की खता नहीं है।
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भूख से ज्यादा
थोपा गया मौन सताता है।
भीड़ की चिल्लपों में भी
वही याद आता है।
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पर्दे पर सौंदर्यबोध की
अनुभूति ज्यादा बढ़ी है।
मुश्किल यह कि
जमीन पर सुंदरता
बिना मेकअप के खड़ी है।
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वह भूत ही होंगे
जो ज़माने को लूट जाते हैं।
सभी इंसान निर्दोष है
इसलिये छूट जाते हैं।
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देह से दूर हैं तो क्या
दिल के वह बहुत पास है।
आसरा कभी मिलेगा या नहीं
जिंदा बस एक छोटी आस है।
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दिल तो चाहे
 पर यायावरी के मजे
सभी नहीं पाते हैं।
ंभीड़ के शिकारी
अकेलेपन से डर
मुर्दे साथ लाते हैं।
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कमरे में रटकर
मंच पर जो भाषण करे
वही जननेता है।
क्या बुरा
अभिनय के पैसे लेता है।
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कल का ईमानदार
आज भ्रष्ट कहलाने लगा है।
सच है लोकमाया में
कोई नहीं किसी का सगा है।
....
लुट जाते खजाने
चाहे बाहर भारी पहरा है।
चोरों के नाम पता
पर रपट में लिखा
जांच जारी राज गहरा है।
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महल बनाने के लिये
कच्चे घरों का ढहना जरूरी है।
नये विकास सृजकों की नज़र में
पुराने ढांचे बहना जरूरी है।
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