Tuesday, September 11, 2007

चलते रहो

चलते रहो
अपने निज पथ पर चलते रहो
कही राह पथरीली होगी
कहीं हरियाली कालीन की तरह फैली होगी
कही लाल मिट्टी की चादर बिछी होगी
कहीं वर्षा ऋतू के जल से नहाई होगी तो
कही कीचड से मैली होगी

चलते रहो
अपने निज पथ पर चलते रहो
अपने कदम आहिस्ता-आहिस्ता बढाए जाओ
प्रेम और सुन्दर शब्दों के पुष्प बरसाते जाओ
तुम्हारे पाँव तले गाँव की पगडंडी होगी
कहीं महानगर की सड़क पडी होगी
लोगों के पाँव तो होते जमीन पर
दिमाग घूमता है आसमान पर
तुम जमीन की ही सोचना
ख़्वाबों से नहीं
जिन्दगी की हकीकतों से
तुम्हारी मंजिल की दूरी तय होगी

चलते रहो
अपने निज पथ पर चलते रहो
कहीं उबड़-खाबड़
तो कहीं समतल
कदम-दर-कदम राह की
अलग-अलग शक्ल होगी
कहीं कंटीली होगी तो
कहीं सपनीली होगी
कहीं आसमान की तरफ
तो कहीं पाताल की तरफ गिरती होगी
तुम सत्य का संदेश बिखेरते जाना
हर प्राणी मात्र पर दया दिखाना
सड़कें और पगडंडियाँ तो अपनी जगह रहेंगी
तुम अपने सत्कर्मों से अपने निशान छोड़ते जाना
जो उस राह से तुम्हारे गुजरने की पहचान होगी
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