Tuesday, July 17, 2007

जहाँ बैठेंगे चार सच्चे साधू

(यह व्यंग्य कविता काल्पनिक है तथा किसी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है )

साधुवाद का युग बीत गया
सुनकर सब गये है हिल
अभी अभी तो हम आये हैं
वह कैसे चला गया
हमसे बिना मिल

नमकीन और मिठाई की
भरी प्लेटों से सजी टेबल के
इर्द-गिर्द जमा बुद्धिजीवियों की
जमी थी एक महफ़िल
कोई केसरिया तो कोई लाल
तो बहुरंगी झंडा हाथ में लिए था
चर्चा के लिए एजेंडे के तलाश थी
बाहर खडी भीड़ को
किसी अच्छी चीज सुनने की आस थी
अन्दर खोजबीन जारी थी
बाहर बेताब थे दिल


साधू-साधू कर सब
एक दुसरे से मिल रहे थे
अचानक कहीं से आवाज आयी
बीत गया साधुवाद का जमाना
मच गया सब जगह हंगामा
कोई ढूंढें साधू को
कोई गढ़ता नए नारे और कोई
वाद की किताब पढता
साधुवाद के छोड़ जाने की
चिंता में हो गये है शामिल
आज नहीं तो कल जाएगा मिल

कहैं दीपक बापू वाद तो
नारे तक ही सिमट जाते हैं
कहीं क्या रचना और विकास की
धारा बहायेंगे
खुद एक लाईन तो कभी-कभी
एक शब्द से आगे नहीं बढ़ पाते हैं
सुनने कहने में
अच्छे लगते हैं
भीड़ जुटाने में
मदद भी करते हैं
पर बदलाव की धारा में
नहीं होते शामिल

सब साधू की तरह हो जाओ
तो ज़माना साधू नजर आयेगा
साधुवाद कभी न था न आयेगा
मन में नहीं साधुत्व तो
फिर कहीं नहीं रहा है मिल
जो मन में हो वही जुबान पर हो
जैसा शब्द हो वैसा ही ज्ञान हो
जैसी कथनी हो वैसी ही करनी
उजड़ा चमन भी खिल उठेगा
सन्नाटे में पक्षियों का
कलरव गूँज उठेगा
और खूंखार शेर के सामने
हरिण सहज बैठा मिलेगा
जहां चार सच्चे साधू बैठेंगे मिल
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