भारत में कुछ ज्ञानी बुद्धिजीवी आम बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि ‘कुछ लोग चाहते हैं कि उनके यहां पैदा होने वाला बेटा कहीं का कलेक्टर बने भले ही पड़ौसी का लड़का भगतसिंह बन जाये।’
आजादी के बाद देश में एक ऐसा सुविधा भोगी वर्ग बन गया है जो क्रांति, इंकलाब, अभिव्यक्ति की आज़ादी तथा गरीबों का कल्याण की बात करते हुए जमकर नारे लगाता है पर जहां प्रतिरोध सामने आया भाग खड़ा होता है। यह वर्ग अपने आकाओं के लिये भीड़ जुटाता है पर विपत्ति जब सामने खड़ी हो तो उसमें शामिल लोग अपने को लाने वाले ठेकेदार की तरफ सहारे के लिये देखते हैं तो उसे नदारद पाते हैं।
ऐसा कई बार हुआ है और हालत यह है कि अगर कोई सामान्य व्यक्ति जब कोई आदर्श की बात करता है तो ‘‘लोग उससे पूछते हैं कि तू क्या नेता हो रहा है। यह सब बातें कर रहा है पर समय आने पर तू ही सबसे पहले पलटा खायेगा।’’
इधर अपने देश में नेतागिरी, समाज सेवा, क्रिकेट बाजी, फिल्म बाजी और जितने भी आकर्षण पैदा करने वाले काम हैं सभी का व्यवसायीकरण इस तरह हो गया है कि उसमें आदर्श की बातें बेची जाती हैं पर व्यवहार में अपनाई कतई नहीं जाती। अभी भारत में चल रही विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता 2011 में यही हाल दिखाई दिया। प्रचार माध्यम यानि समाचार पत्र पत्रिकाऐं और टीवी चैनल अपने विज्ञापनदाताओं को इस कदर समर्पित हो गये कि क्रिकेट जैसे व्यापार में देशभक्ति बेच डाली।
मोहाली में पीसीबी (पाकिस्तान) और बीसीसीआई (भारत) की टीम के बीच मैच को प्रचार माध्यमों ने महा मुकाबला इस तरह प्रचारित किया कि कई जगह बड़ी स्क्रीन पर मैच दिखाने की मुफ्त व्यवस्था की गयी। ऐसे ही एक सामूहिक केंद्र पर हम मैच देखने गये। यह तो केवल बहाना था दरअसल उस दिन हम लोगों की प्रतिक्रिया देखना चाहते थे। उस केंद्र पर एक टीवी रखा रहता है जो मैच के दिनों में चलता रहता है। हम भी राह चलते हुए कभी कभार पानी आदि पीने के विचार से वहां चले जाते हैं। उस दिन हमारे जाते ही मुल्तान का सुल्तान आउट हो गया।
गनीमत किसी ऐसे आदमी ने नहीं देखा जो हमसे कुछ कहने का साहस रखे कि ‘देखो इनके चरण कमल पड़ते ही मुल्तान का सुल्तान आउट हो गया।’
जिन्होंने देखा उनको पता था कि यह व्यंग्यकार है और कहीं कुछ ऐसा वैसा कह दिया तो अपनी भड़ास ब्लाग पर जाकर निकालेगा। भले ही वह ब्लाग नहीं पढ़ते हों पर यह आशंका उनको रहती है कि कहंी मुफ्त में इसे व्यंग्य की सामग्री उपलब्ध न करायें।
हमने थोड़ी देर मैच देखा फिर लौटे आये। फिर थोड़ी देर बाद गये तो पता लगा कि गंभीर का झटका लगा है। अब हमें खुटका होने लगा कि कहीं यह बीसीसीआई की टीम देश का नाम डुबो न दे। तब हम बाहर चाय की दुकान पर जमे रहे। वहां मैच नहीं दिख रहा था पर इधर उधर से आते जाते लोग बता गये कि युवराज का सिंहासन भी चला गया है। हमने तय किया कि यह मैच नहीं देखेंगे। देखकर क्या तनाव पालना? दरअसल हमें अब क्रिकेट से कोई लगाव नहीं है क्योंकि इसे देखते हुए टीवी पर आंखें खराब करने और रिमोट पर उंगलियां थकाने से इंटरनेट पर व्यंग्य लिखना अच्छा लगता है।
वैसे हम पर भी ‘परोपदेशे कुशल बहुतेरे’ का सिद्धांत लागू होता है। भले ही पाठकों से माफिया, मीडिया तथा मनीपॉवर के इस संयुक्त उपक्रम क्रिकेट खेल से दूर रहने को कहें पर जाल में खुद भी फंस जाते हैं। खुद से ही नजरें चुराकर इस तरह देख तो लेते ही हैं कि‘हम भला कहां मैच देख रहे हैं? सो फिर सामूहिक केंद्र की तरफ चले गये तो देखा लोग वहां से निकल रहे हैं।
हमने एक से पूछा‘क्या बात है, क्या बिजली चली गयी?’
उसने कहा-‘नहीं, क्रिक्रेट का भगवान चला गया। अब तो हो गयी टीम की ऐसी की तैसी? दो सौ रन भी नहीं बनेंगे।
हमने कहा-‘अरे, ऐसा क्यों सोचते हो? अभी तो रैना है देखना दो सौ पचास से ऊपर रन बनेंगे और हम जीतेंगे।’
बिल्कुल तुक्का था पर सही जगह पर जाकर लगा। रैना से आशा गलत नहीं थी पर यह एक अनुमान था। टीम की जीत का विश्वास तो प्रचार माध्यमों की वजह से हो चला था। प्रचार माध्यमों की बातों से अनुमान किया था कि पर्दे के पीछे भी कुछ ताकतें हैं जो भारत में क्रिकेट को जिंदा रखना चाहती हैं।
अगले दिन वह आदमी हमसे मिला तो खुश हो गया और बोला-‘यार, तुम गजब की जानकारी रखते हो। यह तो बताओ कि तुम्हारे ब्लाग का नाम क्या है? मैं अपने लड़के से कहकर उसे देखा करूंगा क्योंकि वह घर पर कंप्यूटर पर काम करता है।’
हमने उससे कहा कि ‘अरे, कोई खास ब्लाग नहीं है। ऐसा ही है।
उसे टरकाना जरूरी था। क्रिकेट में जिस तरह देशभक्ति घुस गयी है उसके बाद किसी से इस विषय पर चर्चा करना ठीक नहीं लगता जब तक वह समान विचार वाला न हो। ऐसे में अपने ब्लाग पर जो हमने लिखा है वह उसे नापसंद भी हो सकता है।
पाकिस्तान को रौंद डालो का नारा खत्म हुआ तो अब आया कि लंकादहन कर डालो।’
पता नहीं किसकी सीता अपहृत हो गयी है। फिर सुना है कि मुंबई में बीसीसीआई की टीम के साथ श्रीलंका की टीम का फायनल मैच देखने के लिये वहां के राष्ट्रपति राजपक्षे आ रहे हैं। गनीमत है उनको हिन्दी नहीं आती भले ही उनका नाम कर्णप्रिय संस्कृतनिष्ठ है। उनको शायद ही कोई बताये कि देखिए यह भारत के हिन्दी प्रचार माध्यम क्या उल्टा सीधा बकवास कर रहे हैं।
लंकादहन सीता हरण का परिणाम था और यकीनन वहां के लोगों से अब हमारा कोई ऐसा धार्मिक या सांस्कृतिक बैर नहीं है। ऐसे में इस तरह धार्मिक प्रतीकों का उपयोग करना अत्यंत निंदनीय लगता है। पाकिस्ताने से साठ साल पुराना बैर है पर श्रीलंका के साथ कोई ऐसा विवाद नहीं रहा जिसे उसके दुश्मन घोषित किया जाये।
पाकिस्तान जब हारने लगा था तब यही प्रचार माध्यम खेल को खेल की तरह देखें का नारा लगाने लगे थे जबकि बैर की आग भी उसीने लगायी थी। अगर श्रीलंका मैच हार गया तो फिर कोई नहीं कहेगा कि ‘हमारी टीम ने लंकादहन कर लिया।’ वजह तब तक तो लोगों की भावनाओं का नकदीकरण तो हो चुका होगा न!
सुनने में आया कि आईसीसी के आदेश पर फायनल मैच में वानखेड़े स्टेडियम में मीडिया का प्रवेश रोक दिया गया। इस पर टीवी चैनलों ने बावेला मचाया। अशोक मल्होत्रा ने राय दी कि ‘तुम प्रचार माध्यम भी क्रिकेट का बहिष्कार कर दो क्योंकि यह तुम्हारे दम पर ही हिट है।’
सच तो यह है कि यही हिन्दी प्रचार माध्यम लोगों को बरगलाकर भीड़ जुटा रहे हैं वरना क्या आईसीसी और क्या बीसीसीआई, कभी भी 2007 के बाद क्रिकेट को इस देश में जिंदा नहीं रख सकते थे। मोहाली के मैच में हमने ब्लाग पर पचास से साठ फीसदी पाठ पठन तथा पाठक संख्या कम दर्ज पाई। इसका मतलब यह कि इंटरनेट पर सक्रिय एक बहुत बड़ा वर्ग क्रिकेट के चक्कर में फंस गया था। यह सब इन्हीं प्रचार माध्यमों का प्रभाव था। आईसीसी ने फायनल में अपने ही अघोषित मित्रों पर पाबंदी लगा दी। प्रचार माध्यम चाहते तो आज ही बदले की कार्यवाही करते हुए क्रिकेट की खबरों से किनारा कर लेते। अशोक मल्होत्रा की सलाह से पहले ही यह काम करते तो आईसीसी वाले पांव छूकर माफी मांग लेते। मगर हुआ क्या? प्रदर्शन करने पहुंच गये। फिर आईसीसी वालों ने यह बैन हटा दिया और उनको अभ्यास के साथ ही मैच देखने की अनुमति दे दी। सो प्रचार माध्यमों ने माफ कर दिया। अपने साथ हुई बदसलूकी भूल गये। आईसीसी वाले जानते हैं कि भारतीय प्रचार माध्यम क्रिकेट की कतरन पर ही जिंदा है। गाहे बगाहे फिल्म वाले भी इन प्रचार माध्यमों के कर्मियों को जलील करते हैं क्योंकि उनकी कतरनें भी समाचारों का हिस्सा बनती हैं। प्रचार तंत्र के मालिकों को कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उनकी तो हमेशा ही पूजा होती है। जलील तो सामान्य वर्ग के कर्मचारी ही होते हैं। ऐसे में समाचार और विश्लेषण वाचक आक्रामक होने की बात तो कर सकते हैं पर खबरों से किनारा नहीं कर सकते। अगर ऐसा करेंगे तो एक घंटे में पांच मिनट तक ही चल पायेंगे। मालिक अधिक खर्चा नहीं कर सकते। कर्मचारी भगत सिंह की तरह शहीद होने की बात कर सकते हैं पर हो नहीं सकते और मालिक तो सोच भी नहीं सकते क्योंकि वह तो क्रिकेट से जुड़े उसी संयुक्त उपक्रम का हिस्सा हैं जो आज भी अंग्रेजों के मार्ग पर चलता है और बागी को कंगाल बना देता है। सो यह प्रचार माध्यम एक दिन शहीद दिवस पर भगतसिंह को याद कर लेंगें बाकी समय तो क्रिकेट का भगवान ही पूजते रहेंगे जिससे उनको सहारा है जिसके बल्ले से प्रचार कार्यक्रमों की सामग्री मुफ्त में मिलती है।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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