आज रामनवमी है। रामनवमी से पहले माता के भक्त नवरात्रि में भजन आदि के साथ व्रत या उपास करते हैं और उनके समापन पर विशेष कार्यक्रमों पर आयोजित किये जाते हैं। दरअसल हम अपने देश में मनाये जाने वाले धार्मिक त्यौहारों या पर्वों को अगर तार्किक दृष्टिकोण से अध्ययन करें तो विचित्र स्थिति नज़र आती है। रामनवमी के दिन माता और हनुमान जी के मंदिरों पर भीड़ अधिक होती है। राममंदिरों में भी सजावट होती है पर वहां भगवान राम के चरित्र की कम ही चर्चा होती है। राम से अधिक माता तथा हनुमान जी को अधिक याद किया जाता है। भगवान राम ने मर्यादा की सीमा लांघे बिना विश्व में धर्म की स्थापना की पर आज लोग हैं कि धर्म की स्थापना के लिये कार्य करते हुए मर्यादा लांध जाते हैं। संतों के वेश में इतने दुष्ट पकड़े जाते हैं कि यह यकीन करना अब कठिन हो गया है कि धर्म स्थापना का कार्य कोई मर्यादा के साथ करता होगा। सच कहें तो धर्म स्थापना का काम अब व्यवसायिक हो गया है भले ही कई लोग उसे परमार्थ भाव से करने का दावा करते हों।
अब तो यह स्थिति हो गयी है कि धर्म प्रचार के लिये अर्थ की अनिवार्यता को अनेक ठेकेदार खुलेआम बड़ी बेशर्मी से स्वीकार करते हैं। धार्मिक कार्यक्रमों के लिये चंदा वसूला जाता है। कभी कभी तो यह विचार आता है कि यह धर्म प्रचार का काम आखिर क्या बला है जिसे कुछ लोग करते है। भगवान राम ने कोई धर्म प्रचार नहीं किया बल्कि अपने दैहिक जीवन में कर्म करते हुए उसकी प्रेरणा दी। उन्हीं रामजी का नाम लेकर कुछ लोग धर्म प्रचार करते हैं। अब अगर हम एशिया की स्थिति को देखें तो भगवान राम केवल भारत में ही नहीं बल्कि इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड तथा अन्य देशों में भी जनमानस के नायक हैं। कुछ लोग तो रामजी के नाम पर केवल भारत में जागरण करने की बात करते हैं जबकि अन्य देशों में उनके महत्व को भुला देते है। आज तक इस बात की खोज किसने नहंी की कि अगर भगवान राम भारत में हुए तो उनका नाम इंडोनेशिया तक कैसे पहुंचा?
कुछ अध्यात्मिक विशेषज्ञ तो कहते हैं कि राम का नाम ही एशिया के अनेक देशों की संस्कृति एक होने का प्रमाण देता है। भारत से बाहर पैदा हुई धार्मिक, वैचारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक विचाराधाराओं की स्थापना के बाद एशियाई देशों में वैमनस्य फैलने के बावजूद एशियाई देशों के जनमानस में राम का नाम अपनी पहचान रखता है।
भगवान राम के नाम पर नवमी मनाई जाती है। उसी तरह भगवान श्रीकृष्ण की जन्माष्टमी मनाई जाती है। ऐसा लगता है कि जन्म दिन के बाद आठ या नौ दिन के बाद तत्कालीन समाजों में उत्सव की कोई परंपरा रही होगी मगर यह तय है कि सार्वजनिक रूप से जन्म दिन मनाने की कोई परंपरा हमारे देश में नहीं रही। दूसरी बात यह कि यह जन्म दिन से जुड़ा पर्व भी केवल अवतरित पुरुषो के लिये ही मनाया जाता रहा है-वह भी दैहिक रूप से संसार में विद्यमान रहते हुए नहीं वरन् परमधाम गमन के बाद- न कि इसे जनसाधारण के लिये इसे मान्य किया गया। जन्म दिन की तरह हमारे अध्यात्म में मृत्यु के दिन को पुण्यतिथि मनाये जाने की भी परंपरा नहीं है। अब स्थिति दूसरी है। समाज, राजनीति, तथा आर्थिक शिखर पुरुषों ने अपने जीवित रहते हुए हुए जन्म दिन मनाना शुरु कर दिये तो मरने के बाद उनके चेले चपाटे पुण्यतिथि मनाते हैं। स्थिति तो यह हो गयी है कि सामान्य लोग भी अपने घरों में जन्मदिन पर बड़े कार्यक्रम करने लगे हैं। यह धार्मिक तथा अध्यात्मिक मर्यादा का उल्लंघन होने के साथ ही भौतिक संपन्नता में समाज के मदांध होने का प्रमाण है। यहां यह भी याद रखने वाली बात है कि अभी भी हमारे समाज में ऐसे गरीबों की संख्या बहुत अधिक है जिनको न अपने तथा न परिवार के सदस्यों का जन्म दिन याद रहता है न ही अपने लोगों की मृत्यु को याद रखने का अवसर मिलता है। जन्म दिन तथा पुण्यतिथि मनाना उच्च तथा संभ्रांत समाज के चौंचले हैं। हम यह तो देखते हैं कि उच्च और सभ्रांत वर्ग अपने धनबल की वजह से धर्म सक्रियता अधिक दिखाता है पर मज़बूरी में ही सही गरीब और ग्रामीण वर्ग ही शांति से धर्म निभाते हुए मर्यादा का पालन अधिक करता है।
धर्म के नाम पाखंड और दिखावा इतना बढ़ गया है कि जब हम अपने अध्यात्म में वर्णित तत्वज्ञान पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि तामसी प्रवृत्तियों का बोलबाला है। हठपूर्वक और शास्त्रों के अनुसार धर्म पथ पर न चलना ही तामस बुद्धि का प्रमाण है। मतलब यह कि तामस आदमी धर्म न माने यह जरूरी नहीं बल्कि दूसरे पर अपने अनुसार धर्म मानने का दबाव वह जरूर डालता है। ऐसे लोगों का कहना होता है कि ‘जैसा हम धर्म पालन कर रहे हैं, वैसा ही तुम भी करो। वरना तुम अधर्मी हो।’
हमारे धर्म की ताकत हमारा अध्यात्मिक दर्शन है न कि कर्मकांड। जबकि प्रचारित यह किया जाता है कि कर्मकांड ही धर्म का प्रमाण है। अध्यात्मिक शिखर पर बैठे तत्वज्ञान की बात करते हुए सांसरिक बातें करने लगते हैं। कई लोग राम का नाम लेते हुए जीवन बिताते हैं, कोई पाखंड नहीं करते और न ही कर्मकांडों में भाग लेते हैं। उनके गुरु राम हैं पर यहां उनको यह उपदेश दिया जाता है कि संसार में किसी गुरु का होना जरूरी है। कैसे गुरु? जो केवल पाखंड करने के लिये कहते हैं।
बहरहाल रामनवमी का पर्व आत्ममंथन के लिये उपयोग करना चाहिए। कर्मकांडों का निर्वहन करना बुरा नहीं है पर तत्वज्ञान से परे रहना जीवन में शक्तिहीन बना देता है। वैसे भी कहा जाता है कि राम से बड़ा राम का नाम। उनके नाम स्मरण में ही जो शक्ति है उसका आभास हृदय में तभी किया जा सकता है जब निच्छलता और निर्मलता से ही उनको पुकारा जाये। इस अवसर सभी ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को बधाई।
---------------
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपकबापू कहिन
५.हिन्दी पत्रिका
६.ईपत्रिका
७.शब्द पत्रिका
८.जागरण पत्रिका
९.हिन्दी सरिता पत्रिका
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपकबापू कहिन
५.हिन्दी पत्रिका
६.ईपत्रिका
७.शब्द पत्रिका
८.जागरण पत्रिका
९.हिन्दी सरिता पत्रिका
No comments:
Post a Comment