एक समय कहा जाता था कि भारत का असली समाज तो गांवों में बसता है और इस बात ने समाज विज्ञानियों को इतना बेफिक्र कर दिया कि वह छोटे शहरों, गांवों और कसबों के समाज की आम गतिविधियों के सहारे अपनी संस्कृति और संस्कार बचने की चिंता से मुक्त होकर केवल बड़े शहरों के विषयों पर बहस करते रहे और उन्हें शायद इस बात का आभास नहीं है कि पाश्चात्य सुविधाओं के उपयोग तथा संचार माध्यमों की पहुंच ने भारतीय संस्कृति की जड़े पूरी तरह से खोद दी हैं। यहां यह स्पष्ट किया जाना जरूरी है कि अंदर से खोखले होते जा रहे समाज मेें बेटी द्वारा अपने प्रेमी से मिलकर अपने ही परिवार पर आक्रमण करने की घटना भले ही पूरे देश के समूचे लोगों से जोड़ना ठीक नहीं हो पर उसे अब एक सहज अपराध माने लगा है जो कि एक चिंता का विषय है।
आखिर मुश्किल कहां है? समाज को पूरी तरह खुला रखना है या शर्तों पर उसे आजादी देना है-यह बात देश के विद्वान अभी तक तय नहीं कर पाये। एक तरफ उनको अपनी संस्कृति और संस्कार को अक्षुण्ण बनाये रखने की चिंता होती है और दूसरी तरफ औरतों की आजादी पश्चिम के समक्ष बनाये रखने का अभियान भी जारी रखना चाहते हैं। उनका यही असमंजस समाज का संकट बन रहा है। समाज में माता पिता अपनी बेटियों को आजाद दिखाकर अपने को आधुनिक तो साबित करना चाहते हैं पर उसके साथ ऊंच नीच होने पर बदनामी का कथित भय भी उनको सताता है। उनका यह असमंजस अनेक घरों में हिंसक परिणति का रूप लेता है-इससे अधिक संख्या उन घरों की है जहां मामला दबा रहता है या फिर समय के साथ ठंडा पड़ जाता है।
दहेज प्रथा का प्रकोप उससे अधिक है जितना दिखाई देता है। सभ्रांत समाज केवल दहेज ले-देकर संतुष्ट नहीं होता बल्कि वह विवाह कार्यक्रम का उपयोग अपनी शक्ति दिखाने के लिये अधिक व्यय के साथ करता है। शादियों में शराब पीना अब शान हो गयी है जोकि कभी नफरत का प्रतीक थी। इस देश में कई ऐसे लोग अब भी मिल जायेंगे जिन्होंने केवल फिल्म की आदत होने पर किसी लड़के को लड़की के अयोग्य मान लेने की प्रवृत्ति समाज में देखी होगी। शराबी के बेटे-बेटी के साथ भी लोग रिश्ता नहीं करना चाहते थे।
मगर अब क्या हुआ? हमारा जो वर्तमान समाज है उसके नियम निर्माताओं पर औरत को गुलाम बनाये रखने का आरोप लगता है। हो सकता है यह सही हो पर सच बात तो यह है कि उनकी नीयत औरत को गुलाम बनाये रखने की बजाय उसको दैहिक और आर्थिक रूप से सुरक्षित रखने की थी। समय के साथ ऐसा लगता हो कि वह संकीर्ण विचारों के जनक हों पर उस पर बहस किये बिना केवल नारों के आधार पर ही उन्हें गलत नहीं ठहराया जा सकता है।
कुछ पुराने विद्वान यह कहते हैं कि ‘बेटी की कमाई नहीं खाना चाहिए।’
वर्तमान में अनेक लोग इस दकियानूसी विचार कहेंगे मगर ऐसे लोगों ने इस समाज की प्रवृत्ति को नहीं समझा। लड़कियां नौकरियां करती हैं। अनेक लड़के भी नौकरीशुदा लड़कियां जीवनसंगिनी के रूप में चाहते हैं। कितनी सुखद कल्पना लगती है न देश की! मगर ऐसी अनेक लड़कियां हैं जिनको ससुराल में विवाह के बाद केवल इस आधार पर प्रताड़ना मिलती है कि विवाह के पूर्व उन्होंने जो कमाया वह कहां गया?
उस समय लड़की को यह कहकर सास, ननद, और पति ताने देते हैं कि ‘इसका बाप कन्या की कमाई खा गया।’
ऐसा कहने वाली सास या ननद अगर अनपढ़ हो तो मान लें कि ठीक है पर अगर वह पढ़ी लिख हो तो क्या कहेंगे?
आजकल सभ्रांत वर्ग ऐसी जगह बेटियों की शादी करना चाहता है जहां काम करने वाली नौकरानियां हों-यहां तक कि बेटी को खाना भी न बनाना पड़े। कहा जाता है कि खाना बनाना ही औरत की सबसे बड़ी उपलब्धि है जिससे वह पूरे परिवार पर नियंत्रण करती है-अगर नारी स्वातंत्र्य समर्थक इसे पुरातनपंथी माने तो चलेगा-मगर उसी हथियार के बिना औरत का अपने पति और ससुराल पर नियंत्रण कैसे होगा? यह कौन बता सकता है? स्थिति यह है कि नारी स्वातंत्र्य समर्थक नारियां भी कई बार ऐसी बातें कहती हैं जिससे लगता है कि घर का काम नारी द्वारा किया जाना उसकी गुलामी का प्रतीक है। अब सवाल यह है कि क्या पुरुष घर का काम करने लगे तभी नारी की आजादी का अभियान पूरा माना जायेगा क्या? एक बात तय है कि खाना तो बनेगा क्योंकि उसके बिना परिवार का चलना कठिन है। नारी स्वातंत्र्य समर्थकों को उसकी आजादी की बात तो दिखाई देता है पर खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चे पालना, और सफाई आदि के काम करने की जिम्मेदारी नहीं दिखती जो कि पश्चिमी विचाराधारा के अनुसार आर्थिक दृष्टि से अधिक महंगे हैं। एक अमेरिकी अर्थशास्त्री के अनुसार अगर मुद्रा में भारत की घरेलू स्त्रियों द्वारा किये गये कार्यों का आंकलन किया जाये तो वह पुरुषों से अधिक कमाती हैं। इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं कि जो स्त्रियां बाहर कमा रही हैं-चंद समृद्ध और उच्च पदस्थ महिलाओं की बात यहां छोड़ देते हैं जो सामान्य नौकरी वाली औरतों से गुणात्मक रूप से अधिक आय अर्जित करती हैं-वह अपने आसपास की घरेलू महिलाओं के मुकाबले प्रत्यक्ष रूप से धन कमाने की वजह से श्रेष्ठ दिख सकती हैं पर जहां तक वास्तविक कमाई का प्रश्न है तो वह पीछे हैं।
तात्पर्य यह है कि हमारा समाज असमंजस में पड़ा है। न तो वह खुलकर पाश्चात्य संस्कृति की तरफ जा रहा है और न पूरी तरह अपने संस्कार छोड़ पा रहा है। हमारा मानना यह है कि जिन लोगों को पाश्चात्य सभ्यता अपनाना है तब उनको इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए कि समाज क्या कहेगा? जिनको अपनी संस्कृति अपनानी होगा उनको पूरी तरह से नहीं तो आंशिक रूप से पाश्चात्य संस्कृति से परे रहना होगा -अधिक से अधिक वह पहनावे तक ही सीमित रहें पर वैलंटाईन डे, शुभेच्छु दिवस, प्रेम दिवस तथा अन्य ऐसे त्यौहारों से परे रहे जो कामनायें बढ़ाने के लिये प्रेरित करें। इस मामलें में कानून की भी समीक्षा करनी होगी जिससे कि पाश्चात्य संस्कृति अपनाने वालों के लिये कोई बाधा न खड़ी हो। समाज का इस तरह विचारों की दृष्टि से असमंजस में पड़े रहना ठीक नहीं है।
........................................................
यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment