Wednesday, June 24, 2009

वैश्विक काल में हिंदी भाषा का सृजन-आलेख (future of hindi in the world-hindi lekh)

वह बहस बहुत अच्छी थी। विदेशों में रहने वाले भारतीयों के सृजन को किसी लेखक ने-उसका नाम इस लेखक ने उसी ब्लाग के पाठ में पढ़ा हालांकि बताया जा रहा था कि वह कोई प्रसिद्ध हिंदी आलोचक हैं-ने दो कौड़ी का बता दिया। विद्वान टिप्पणीकारों ने उस पर तमाम टिप्पणियां लिखी। कुछ अप्रवासी हिंदी लेखक उनके बयान से दुःखी थे। हां, उस पाठ में जिस आलोचक का नाम था उसके बारे में पहली इस लेखक ने सुना पर टिप्पणीकर्ताओं का नाम वह जानता है। इस लेखक के मध्यप्रदेश के ही एक प्रसिद्ध ब्लाग लेखक ने भी टिप्पणी लिख कर उस जोरदार बहस पर हैरानी जाहिर की। आशय यह है कि हमारे प्रदेश पाठक और लेखक के इस तरह की साहित्यक बहसों से घबड़ाते हैं जिसमें कहानी, कवितायें या अन्य साहित्यक विद्या की खास रचना की बजाय भाषा के लिखने पर बहस हो रही हो। एक दूसरी भी मुश्किल है कि अंतर्जाल पर अन्य प्रदेशों के ब्लाग लेखक कई ऐसी प्रसिद्ध साहित्य हस्तियों का नाम बताते हैं जिनका नाम तक इस प्रदेश में पैदा लोग नहीं जानते।

बहरहाल उस आलोचक महाशय के अनुसार विदेश में रह रहे लेखक बस अपने को पत्रकार या लेखक साबित करने के लिये लिखते हैं वरना उनका लिखा दो कौड़ी का है। बात इस लेखक के सिर के ऊपर से निकल गयी। पहली बात तो किसी का लिखा दो कौड़ी का नहीं होता। अगर कोई मूर्धन्य साहित्यकार भी आकर हमसे कहे कि अमुक आदमी ने दो कौड़ी का लिखा है तो हम उनकी साहित्यक रचनाओ की चिंदियां उनको दिखा सकते हैं कि वह इससे बेहतर हैं।
दूसरा सवाल यह है कि विदेश में रह रहे अप्रवासी भारतीय अपने आपको लेखक या पत्रकार साबित करने का प्रयास कर रहे हैं तो उसमें बुराई क्या है? आखिर आदमी लिखता क्यों है? अपनी बात दूसरे से कहने के लिये? दूसरा पढ़कर उसे लेखक मान ही लेता है। हिंदी में वह हर रचना साहित्य है जो सामाजिक और रचनात्मक सरोकारों से जोड़कर लिखी गयी है। इस लेखक के इस पाठ को कुछ लोग साहित्यक न माने पर यह प्रमाणपत्र देने वाले वह कौन? यह पाठ किसी को पत्र बनाकर नहीं लिखा जा रहा है। बल्कि इसे हिंदी भाषा से सरोकार रखने वाले विषय पर लिखा गया है। स्पष्टतः इससे कोई न कोई सामाजिक तथा रचनात्मक सरोकार जुड़ा है।
हिंदी में स्तरीय और गैरस्तरीय लेखन की बहुत चर्चा होती है। कई ऐसे सेमीनार होते हैं जिनमें शामिल होकर ऐसा लगता है कि हम कहां आकर फंसे। इससे अच्छा तो कोई घर पर बैठकर एक दो हास्य कविता लिखकर ही जी हल्का कर लेते। यह बात तय है कि हम अपने आपको एक लेखक और साहित्यकार ही समझते हैं और लगता नहीं कि इसके लिये किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता है।
सच बात तो यह है कि हम जिसे गैर स्तरीय साहित्य कहते हैं वह बाजार में हर जगह मिलता है और पाठक भी उसके बहुत हैं। अपराध और यौन से संबंधित साहित्य की बाजार में बिक्री बहुत है पर हममें से कई लेखक उसे गैरस्तरीय कहकर हिकारत से देखते हैं पर सच यह भी है कि कई इनको पढ़ते हुए ही लिखने के लिये प्रेरित हुए। हालांकि यह भी सच है कि लोग वाकई स्तरीय विषय पढ़ना चाहते हैं पर बाजार की समस्या यह है कि वह लेखक को लिपिक की तरह बनाये रखना चाहता है। इससे उसकी मौलिकता और स्वतंत्रता नष्ट होती है। यही कारण है कि हिंदी में बेहतर साहित्य प्रकाशित नहीं हो पाता-लिखा नहीं जाता यह कहना गलत है।
वैसे ही दूसरे की रचनाओं पर टीका टिप्पणियां करने वालों का लेखन कैसा है यह अलग से बहस का विषय है। अगर आप देखें तो हमारे यहां अनेक हास्य कवियों ने करोड़ो रुपये कमा लिये पर क्या उनकी रचनाओं में कहीं कोई सामाजिक संदेश है? हिंदी फिल्मों के कामेडियनों की तरह अदायें करते हुए अनेक कवि लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गये। अगर आप कथित रूप से स्तरीय पढ़ने वाले हैं तो क्या आप उसे साहित्य मानते हैं। शायद आप कहेंगे ‘नहीं’ पर वही कवि अगर आपके सामने आ जाये या अंतर्जाल पर टिप्पणी लिख दे तो अपने आपको धन्य कहने लगेंगे।

इधर अनेक लेखकों के चेले चपाटे अंतर्जाल पर सक्रिय हुए हैं और वह उनके कथित साक्षात्कार इस उद्देश्य से प्रकाशित करते हैं कि उनके प्रदेश या शहर से अधिक से अधिक टिप्पणियां आ जायेंगी। यह बुरा भी नहीं है पर जब अंतर्जाल पर लिखने वाले हिंदी लेखकों पर कटाक्ष होता है तब यह बताना पड़ता है कि यह अंतर्जाल पर लिखना कोई आसान काम नहीं है। बहुत कटु पर सत्य है कि एक लंबे अर्से से हिंदी के आकाश पर कोई ऐसा लेखक पैदा ही नहीं हुआ जो सदाबहार रचनायें दे सके। सभी ने बाजार और राज्य के तय ढांचे में ही अपनी रचनायें कर धन, पद और सम्मान पाया मगर हिंदी भाषा को समृद्ध करने वाले कितने लेखक हैं यह हम सभी जानते हैं।
आज के जो भी कथित बड़े लेखक हैं वह अंतर्जाल को न तो पढ़ते हैं न उनकी रुचि है। कंप्यूटर पर लिखना या पढ़ना कोई मुश्किल काम नहीं है पर इससे दूर रहकर अगर अपनी यथास्थिति रहती है तो इसे कौन सीखना चाहेगा? इस लेखक का तो हमेशा यही कहना है कि हां, हम तो लेखक कहलाने ही यहां आये हैं। क्या करें? हर जगह ढांचे और खांचे बने हुऐ हैं जिसमें हमारा लिखा फिट होगा या नहीं इस बात से अधिक इस बात का महत्व है कि हमारा व्यवहार-जिसमें चाटुकारिता, चंदा और चतुराई शामिल है-उनके अनुकूल है कि नहीं।
यहां प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपने ऊपर छोड़े जा रहे व्यंग्यबाणों की इसलिये परवाह नहीं करते क्योंकि हमें अपने लेखक होने पर कोई संदेह नहीं है। साहित्य की हर विद्या पर लिखा-अच्छा या बुरा यह संकट पाठकों का है-और यह साबित करने का प्रयास किया कि ब्लाग भी पत्रिका की तरह उपयोग में लाया जा सकता है। यहां हमने पढ़ा भी और पाया कि समाज के आम लोगों के विचारों का जो प्रतिबिंब यहां दिखाई देता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अंतर्जाल पर लेखक टाईप स्वयं करते हैं इससे उनको छोटा समझना अपने आप में बेवकूफी है। अभी तक अनेक बड़े लेखक और पत्रकार यही मानते हैं कि टाईप करने का काम लिपिकीय है। इसके विपरीत यह लेखक तो दूसरी बात ही कहता है कि बेहतर लेखक वही है जो स्वयं एक बैठक में टाईप कर अंतर्जाल पर प्रस्तुत करता है। अधिकतर अंग्रेजी लेखक सीधे टाईप कर रचनायें लिखते रहे हैं-यह जानकारी पत्र पत्रिकाओं से मिलती रही है। हिंदी के कथित बड़े लेखक आत्ममुग्धता की स्थिति से उबर नही पाये और उन्हें यह सुनकर निराशा होगी कि हिंदी का असली लेखक तो अब हिंदी के वैश्विक काल की शुरुआत कर चुका है-उनका आधुनिक काल अब बीते समय की बात हो गया है। उनकी कहानियां और कवितायें अब अप्रासंगिक होने जा रही है। ऐसे में अंतर्जाल पर लिखने वाले लेखकों को यही सलाह है कि वह कुंठा छोड़कर अपनी रचनायें करें। यह अप्रवासी और प्रवासी हिंदी लेखक की चर्चा भी इसलिये भी करनी पड़ी क्योंकि अभी लोगों के मन में है पर अगर हम इस हिंदी के नवीन वैश्विक काल की बात करें तो वह अप्रासंगिक है क्योंकि आपने हिंदी में लिखा तो यह इस बात की पूरी संभावना है कि वह किसी अन्य भाषा में टूलों से स्वाभाविक रूप से अनुवाद कर पढ़ा जायेगा और इसके लिये मानवीय अनुवादक की जरूरत नहीं है। ऐसे में कुछ लेखक आगे इस तरह का प्रयास करेंगे कि वह जब भारतीय संदर्भ में अपनी रचना लिखें तो वह विश्व के डेढ़ सौ देशों के लोगों की समझ में आये। उनकी यह सोच निश्चित रूप से हिंदी को एतिहासिक रचनायें देगी। शेष फिर कभी।
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1 comment:

धीरेन्द्र सिंह said...

एक व्यापक और सामयिक सोच। वर्तमान में हिंदी की संभावनाऍ व्यापक हैं आवश्यकता है इन संभावनाओं के अनुरूप स्वंय को ढालने की। परम्परागत दृष्टिकोण में यथोचित परिवर्तन समय की मॉग है।

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