बहुत समय से सुनते आ रहे थे नाम
अब तो आया अपने यहां भी इनाम
बताओ यह ऑस्कर क्या होता हैं
जिसको याद कर अपनी फिल्मी दुनियां का आदमी
रात को भी नहीं सोता है
बरसों से प्रेम,पैसे और प्रतिष्ठा से
जिनको अपने सिर पर बैठा रखा
वही लोग अपने हाथ बाहर फैलाये रहते हैं
भीख की तरह इनाम मिले
इसके लिये हर तरह का ताना सहते हैं
गोरे जब तक न करें वाह
तब तक भरते रहते हैं आह
अब तो यह ऑस्कर आ गया
खुशी मना रहे हैं जमकर लोग
जैसे भाग गया हो कोई पुराना रोग
जरा तुम ही हमें समझाओ’
पहले सुनकर चैंके
फिर आंखों और नाक के बीच लटके चश्में से
झांकते हुए बोले दीपक बापू
‘जब पूरी तरह अपनी बात कह डाली
फिर हमसे क्या सुनना चाहते हो
खुद ही कर लिया करो कविता
हमारे हास्य रस में क्यों नहाते हो
जिन के सिर पर रखते हैं देश के लोग ताज
गुलामी की आदत कुछ ऐसी है उनमें
गोरे अगर नजर इनायत न करें तो
उस पर नहीं होता उनको नाज
इसलिये हाथ फैलाये खड़े हो जाते हैं
ऑस्कर का कार्यक्रम तो बाद में आता
यहां विज्ञापन से पहले ही पैसा वसूल हो जाता
गोरे भी आकर इंसान है
कभी तो उनका दिल जाता है पसीज
खाली हाथ लौटाने वालों की
नहीं सह सकता कोई भी खीज
गोरी चमड़ी का घमंड वह छोड़ नहीं सकते
इसलिये इनामों में भी अब
पुराने गुलामों को चालाकी से तो जोड़ सकते
इसलिये गोरे चेहरे से ही एक फिल्म बनवाई
उसमें अभिनय के लिये गुलामों की भीड़ लगाई
फिल्म के शीर्षक में भी ‘कुत्ता’ शब्द जोड़कर
बता दिया अपने लोगों को
नहीं जा रहे असलियत छोड़कर
अवार्ड डाला कि हड्डी कोई नहीं जानता
फूट डालो और राज करो की नीति में
गोरे हमेशा सफल रहे
इसलिये कोई अवार्ड को अपना
तो कोई पराया मानता
तुमने कहा तो हमने भी कह दिया
मगर बहस यहां बहुत होगी
नहीं तो विज्ञापन से कमाई कौन करेगा
उसकी कमाई मरेगी जो इसे अवार्ड नहीं कहेगा
जिसको कुछ नहीं मिलना वह हड्डी कहेगा
देखते रहो दृष्टा बनकर
आजाद की तरह हर गुलाम बहस करेगा
तुम तो बस ताली बजाओ
नहीं तो महफिल ही छोड़ जाओ
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1 comment:
ha,ha,ha....narayan narayan
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