मुझे याद है कि मैंने यह ब्लाग केवल बेकार के विषयों पर लिखने के लिये बनाया था। इस ब्लाग पर पहली रचना के साथ ही यह टिप्पणी मिली थी कि ‘हम तो इसे ऐसा वैसा ब्लाग समझ रहे थे पर आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं।’
उस समय इस टिप्पणी पर लिखी बात मेरे समझ में नहीं आयी पर धीरे धीरे यह पता लग गया कि ब्लाग नाम लोकप्रियता के शिखर से जुड़ा था।
उस दिन अखबार में पढ़ा हिंदी भाषी क्षेत्रों मेें 4.2 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन हैं। इस लिहाज से हिंदी में सात्विक विषयों के ब्लाग पढ़ने की संख्या बहुत कम है। ऐसा नहीं है कि हिंदी के ब्लाग लोग पढ़ नहीं रहे पर उनको तलाश रहती है ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने की। जिन छद्म ब्लाग की बात मैंने की उन पर ऐसा वैसा कुछ नहीं है पर वह उनके नाम में से तो यही संकेत मिलता है। यही कारण है कि लोग उसे खोलकर देखते हैं। मैंने उन ब्लाग पर अपने सामान्य ब्लाग के लिंक लगा दिये हैं पर लोग उनके विषयों में दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि वहां से पाठक दूसरे विषयों की तरफ जाते ही नहीं जबकि दूसरे सामान्य ब्लाग पर इधर से उधर पाठकों का आना जाना दिखता है। मैंने उन दोनों ब्लाग से तौबा कर ली क्योंकि उन पर लिखना बेकार की मेहनत थी। न नाम मिलना न नामा।
वर्डप्रेस पर भी दो ब्लाग है जिन पर मैंने अपने नाम के साथ मस्तराम शब्द जोड़ दिया। तब दोनों ब्लाग अच्छे खासे पाठक जुटाने लगे। तब एक से हटा लिया और उस पर पाठक संख्या कम हो गयी पर दूसरे पर बना रहा। वह ब्लाग भी प्रतिदिन अच्छे खासे पाठक जुटा लेता है। तब यह देखकर आश्चर्य होता है कि लोग ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने को बहुत उत्सुक हैं और उनकी दिलचस्पी सामान्य विषयों में अधिक नहीं हैं। अभी हाल ही में एक सर्वे में यह बात कही गयी है कि इंटरनेट पर यौन संबंधी साहित्य पढ़ना अधिक घातक होता है बनिस्बत सामान्य स्थिति में। एक तो यौन संबंधी साहित्य वैसे ही दिमागी तौर पर तनाव पैदा करता है उस पर कंप्यूटर पर पढ़ना तो बहुत तकलीफदेह होता है। इस संबंध में हानियों के बारे में खूब लिखा गया था और उनसे असहमत होना कठिन था।
उन ब्लाग की पाठक संख्या अन्य ब्लाग की संख्या को चिढ़ाती है और अपने ब्लाग होने के बावजूद मुझे उन ब्लाग से बेहद चिढ़ है। वह मुझे बताते हैं कि मेरे अन्य विषयों की तुलना में तो यौन संबंधी विषय ही बेहद लोकप्रिय है। सच बात तो यह है कि पहले जानता ही नहीं था कि मस्तराम नाम से कोई ऐसा वैसा साहित्य लिखा जाता है। मेरी नानी मुझे मस्तराम कहती थी इसलिये ही अपने नाम के साथ मस्तराम जोड़ दिया। इतना ही नहीं अपने एक दो सामान्य ब्लाग पर पाठ लिखने के एक दिन बाद-ताकि विभिन्न फोरमों पर तत्काल लोग न देख पायें’-मस्तराम शब्द जोड़कर दस दिन तक फिर कुछ नहीं लिखा तो पता लगा कि उस पर भी पाठक आ रहे हैं। तब बरबस हंसी आ जाती है। अनेक मिलने वाले ऐसी वैसी वेबसाईटों के बारे में पूछते हैंं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों के इंटरनेट कनेक्शन लेने वाले शायद इस उद्देश्य से लेते हैं कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़े और देख सकें।
उस दिन एक जगह अपने कागज की फोटो स्टेट कराने गया। वह दुकानदार साइबर कैफे भी चलाता है। उस दिन वह अपने बिल्कुल अंदर के कमरे में था तो मैं इंटरनेट के केबिनों के बीच से होता हुआ वहां तक गया। धीरे धीरे चलते हुए मैं काचों से केबिन में झांकता गया। आठ केबिन में छह को देख पाया और उनमें तीन पर मैंने लोगों को ‘ऐसे वैसे‘ ही दृश्य देखते पाया और बाकी क्या पढ़ रहे थे यह जानने का अवसर मेरे पास नहीं था।
सामान्य रूप से भी यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य और सीडी कैसिट उपलब्ध हैं पर इंटरनेट भी एक फैशन हो गया है सो लोग सक्रिय हैं पर उनकी मानसिकता में भी एसा वैसा ही देखने और पढ़ने की इच्छा है। यह कोई शिकायत नहीं है क्योंकि लोगों की ‘यौन संबंधी मनोरंजन साहित्य’ पढ़ने की इच्छा बरसों पुरानी है पर सात्विक साहित्य पढ़ने वालों की भी कोई कमी नहीं है-यह अलग बात है कि वह अभी समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों को ही देखने में सक्रिय हैं और इंटरनेट पर देखने और पढ़ने की उनमें इच्छा अभी बलवती नहीं हो रही है। जिनमें ऐसा वैसा पढ़ने की इच्छा होती है उनके लिये इंटरनेट खोलने की तकलीफ कुछ भी नहीं है पर सात्विक पढ़ने वालों के लिये अभी भी बड़ी है। कहते हैं कि व्यसन और बुरी आदतें आदमी का आक्रामक बना देती हैं पर सात्विक भाव में तो सहजता बनी रहती है।
ऐसा नहीं है कि सामान्य ब्लाग@पत्रिकाओं पर पाठक कोई कम हैं पर उनमें बढ़ोतरी अब नहीं हो रही है। ब्लागस्पाट के ब्लाग तो वैसे ही अधिक पाठक नहीं जुटाते पर वर्डप्रेस के ब्लाग पर नियमित रूप से उनकी संख्या ठीकठाक रहती है। सामान्य विषयों में भी अध्यात्म विषयों के साथ हास्यकवितायें, व्यंग्य और चिंतन के पाठकों की संख्या अच्छी खासी है-कुछ पाठ तो दो वर्ष बाद भी अपने लिये पाठक जुटा रहे हैं। यह कहना भी कठिन है कि ऐसा वैसा पढ़ने वालों की संख्या अधिक है या सात्विक विषय पढ़ने वालों की। इतना जरूर है कि ‘ऐसा वैसा’ पढ़ने पर जो हानियां होती हैं उनके बारे में पढ़कर उन लोगों के प्रति सहानुभूति जाग उठी जो उसमें दिलचस्पी लेते हैं।
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यह कविता/आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अभिव्यक्ति पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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