हमारे देश में कुछ उत्साही
बुद्धिमान तथा समाज सेवक विदेशी विचारधाराओं के सिद्धांत उधार लेकर देश में गरीबों
के उद्धार के लिये अभियान छेड़ने का स्वांग रचते हैं। आमतौर से यह माना जाता है कि भारत में केवल
भक्ति करने वाले उन विद्वानों की प्रसिद्ध मिली है जिन्होंने परमात्मा का स्मरण
करने का लोगों का संदेश दिया है। उन्होंने अपने समाज की स्थिति से कोई मतलब नहीं
रखा। यह सोच गलत है। हमारे अध्यात्मिक
विद्वानों ने हमेशा ही समाज में कमजोर, गरीब तथा बेबस की सहायता के लिये लोगों को प्रेरित किया है। कार्ल मार्क्स को मजदूरी का मसीहा बताकर भारत
में प्रचार करने वाले कुछ उत्साही विद्वान यह मानते है कि पूंजीवाद नामक दैत्य की
खोज उन्होंने ही की थी जिसे नष्ट करने के सूत्र भी बताये। ऐसा नहीं है क्योंकि हमारे देश में तो अध्यात्मिक विद्वान न केवल
तत्वज्ञान का संदेश देने के साथ ही समाज
में समरसता का भाव बनाये रखने का विचार तथा योजना भी बताते रहे हैं। उनका मानना
रहा है कि जब तक आप अपने आसपास सहजता का वातावरण नहीं बनाये रखते तब तक स्वयं भी
खुश नहीं रह सकते।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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बढ़त रहीम धनाढय धन, धनौ धनी को जाई।
घटैं बढ़े वाको कहा, भीख मांगि जो खाई।
हिन्दी में
भावार्थ-धनी का धन बढ़ता ही
जाता है और जो श्रमिक उसका स्वामी है वह उसे पा नहीं सकता। जो व्यक्ति भीख मांग कर जीवन गुजारता है उसके
लिये धन घटने या बढ़ने का कोई अर्थ नहीं है।
हमारे अध्यात्मिक विद्वान
मानते हैं कि धन का असली स्वामी तो उसका सृजक श्रमिक ही है। वह यह भी मानते हैं कि धनी बीच में अपना हाथ
डालकर धन की नदी से गरीब के घर जाती धारा से अपना अधिक हिस्सा मार लेता है। इतना
ही नहीं हमारे अध्यात्मिक चिंत्तकों ने धर्म के नाम पर रचे जा रहे उस पाखंड पर भी
अपनी वक्र दृष्टि डाली है जिससे गरीबों में मसीहाई छवि बनाने वाले कथित संत और
महात्मा धनिकों की रक्षा का काम करते हैं। वह गरीबों और मजदूरों को धार्मिक कथाओं
में व्यस्त रखकर उन्हें अपने उपदेशों से भटकाते हैं। स्वयं मोह और माया के चक्कर में रहते हैं और
लोगों से कहते हैं कि दूर रहो। इस तरह वह
समाज में धनिकों के लिये संभावित विद्रोह को रोके रहते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि
गरीब, बेबस, लाचार और अस्वस्थ लोगों की सहायता करने का
विचार हमारे देश के अध्यात्मिक विद्वानों का भी रहा है। यह कहना व्यर्थ है कि भारत में बाहर से आये
कथित सभ्य लोगों ने यहा कोई वैचारिक क्रांति की है। हमें समाज में समरसता का भाव अपने
पंरपरागत ढंग से दान, सहायता
अथवा उपहार देकर करने का प्रयास करना चाहिये न कि विदेशी विचारधाराओं का मुंह
ताकना चाहिये।
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियरhindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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