Wednesday, August 4, 2010

कितने बिस्तर में कितनी बार-हिन्दी हास्य कविता (kitne bistar men kitni bar-hasya kavita)

दनदनाता आया फंदेबाज और बोला
‘‘दीपक बापू,
जल्दी अपने फ्लाप होने का लबादा छोड़ दो,
जो मैं कहता हूं वही अपनी कविता में जोड़ दो,
अपनी कविता का एक जोरदार शीर्षक लिखो
‘कितने बिस्तर में कितनी बार’
यह लिखकर हिट हो जाओगे।’’
अपने चश्में को ठीक करते हुए
पहले फंदेबाज को घूरा
फिर कहैं दीपक बापू
‘‘क्या विकासवादी समझ रहे हो
जो एक शब्द में हिट होने का
सपना दिखाते हो,
हम तैयार है अगर
पूरी कविता ही तुम लिखाते हो,
लिख दें ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’
सामग्री भी तो वैसी चाहिए
जिससे लोग खुश हो जायें
नहीं तो नाराज होंगे अपार,
हम ऐसे अकादमिक नहीं हैं कि
एक शब्द या पंक्ति पर ही मशहूर हो जायें,
सम्मान पाकर मेहनत को अपने दूर भगायें,
कम और निरर्थक लिखकर अनेक लोगों ने प्रसिद्धि पाई,
सबकी अपनी अपनी किस्मत है भाई,
ऐसे ही लोग करते इस्तेमाल
महिला के लिये लिखते ‘छिनाल’
और पुरुष के लिये छिनारा,
निजी झगड़े को पूरी सभ्यता से जोड़कर
कर लेते हैं किनारा,
शीर्षक तुमने जोरदार दिया
पर अपने को इसका कोई फायदा नहीं है
इसलिये तुमसे कोई करते वायदा नहीं है,
तुम्हारे शीर्षक को लिया तो
पेटीकोट, ब्लाऊज, पैंट और चड्डी के साथ
कुछ यौन सामग्री को ही लिखना पड़ेगा,
देश में महंगाई, बेकारी और परेशानियां बहुत हैं
ऐसे में सड़क पर दिखने वाले
मज़दूरों, बेबसों और गरीबों के
फटेहाल वस्त्रों का दृश्य आंखों में उभरेगा,
सच से परे होकर लिखना कठिन लगता है,
रात के अंधेरे से
कहीं अधिक डरावना दिन लगता है,
जमीन पर सोने वाले
बिस्तर वालों से
अधिक बड़े योद्धा होते हैं,
दौलतमंद, बड़े ओहदेदार और अक्लमंद भले ही
दिखते शहंशाह
पर असली जंग का बोझ तो
मज़दूर और गरीब ही ढोते हैं,
एक शब्द और एक पंक्ति पर
उलझना छोड़ दो
समाज की असलियत तभी समझ पाओगे,
वरना ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’ सोए
पूरी संख्या याद नहीं कर पाओगे।’
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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