शब्द सुंदर हैं, पर हृदय में नहीं दिखती हैं भावनायें,
आंखें नीली दिख रहीं हैं, पर उनमें नहीं हैं चेतनायें।
प्राकृतिक रिश्ते, कृत्रिम व्यवहार से निभा रहे हैं सभी इंसान,
चमकीले चेहरों का झुंड दिखता है, पर नहीं है उनमें संवेदनायें।
जल में नभ को नाचता देखकर नहीं बहलता उनका दिल
लगता है जैसे लोटे में भरकर उसे अपने ही पेट में बसायें।
कितनी संपदा बटोरी धनियों ने गरीबों का लहू चूसकर
फिर भी हाथ खाली रखते हैं, ताकि उससे अधिक बनायें।
धर्म की रक्षा और जाति की वफा के नारे लगा रहे हैं बुद्धिमान
ज्ञान बिके उनका सदा, इसलिये समाज में भ्रम और भय बढ़ायें।
आंखें नीली दिख रहीं हैं, पर उनमें नहीं हैं चेतनायें।
प्राकृतिक रिश्ते, कृत्रिम व्यवहार से निभा रहे हैं सभी इंसान,
चमकीले चेहरों का झुंड दिखता है, पर नहीं है उनमें संवेदनायें।
जल में नभ को नाचता देखकर नहीं बहलता उनका दिल
लगता है जैसे लोटे में भरकर उसे अपने ही पेट में बसायें।
कितनी संपदा बटोरी धनियों ने गरीबों का लहू चूसकर
फिर भी हाथ खाली रखते हैं, ताकि उससे अधिक बनायें।
धर्म की रक्षा और जाति की वफा के नारे लगा रहे हैं बुद्धिमान
ज्ञान बिके उनका सदा, इसलिये समाज में भ्रम और भय बढ़ायें।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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