लोगों की संवेदनाऐं मर गयी हैं
इसलिये किसी को दूसरे का दर्द
तड़पने के लिये मजबूर नहीं कर पाता है।
निगाहों ने खो दी है अच्छे बुरे की पहचान
अपने दुष्कर्म पर भी हर कोई
खुद को साफ सुथरा नज़र आता है।
उदारता हाथ ने खो दी है इसलिये
किसी के पीठ में खंजर घौंपते हुए नहीं कांपता,
ढेर सारे कत्ल करता कोई
पर खुद को कातिल नहीं पाता है।
जीभ ने खो दिया है पवित्र स्वाद,
इसलिये बेईमानी के विषैले स्वाद में भी
लोगों में अमृत का अहसास आता है।
किससे किसकी शिकायत करें
अपने से ही अज़नबी हो गया है आदमी
हाथों से कसूर करते हुए
खुद को ही गैर पाता है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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