Thursday, August 11, 2011

आरक्षण फिल्म पर हायतौबा फिक्सिंग लगती है-सामाजिक लेख (a film movie on resevetion aarakshan and fix discussion and dissput-a hindi social article)

               एक बात तय है कि चाहे जितनी बहसें   और प्रदर्शन हो जायें फिल्म आरक्षण का प्रदर्शन रुकेगा या बाधित होगा ऐसा नहीं लगता। वजह साफ है कि बाज़ार और प्रचार का संयुक्त उपक्रम इस तरह है कि वह टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में विभिन्न मुद्दे उठाकर इसी तरह अपने उत्पाद, सेवायें तथा पठनीय या दर्शनीय सामग्री का विक्रय करता है। फिल्म आरक्षण के निर्माता का तो पता नहीं पर उसके सभी अभिनेता निश्चित रूप से बाज़ार और प्रचार के नायक हैं। उनके पास न केवल फिल्मों का ढेर है बल्कि अनेक वस्तुओं के विज्ञापनो में उनके चेहरे प्रतिदिन देखे जा सकते हैं। मतलब यह फिल्म भी बाज़ार और प्रचार के उपक्रमों का ही एक सृजन है। जिस तरह उदारीकरण के चलते बाज़ार और प्रचार उपक्रमों ने समूचे विश्व पर अधिकार कर लिया है उसे देखकर नहीं लगता कि ‘आरक्षण’ फिल्म का प्रदर्शन रुक जायेगा। बल्कि ऐसा लगता है कि इसे प्रचार दिलानें के लिये विवाद खड़ा किया गया है । पहले भी किसी फिल्म के गाने या दृश्यों पर पर आपत्तियों  का प्रचार किया गया पर बाद में कुछ हुआ नहीं। उल्टे फिल्मों को प्रारंभ में ही अच्छी बढ़ता मिली यह अलग बात है कि बाद के दिनों में उनका प्रभाव एकदम घट गया। सीधी बात कहें तो फिल्म ‘आरक्षण’ पर यह हायतौबा फिक्सिंग लगती है।
            यह फिल्म देश की नौकरियों में जाति के आधार पर आरक्षण नीति पर आधारित है। हम यहां इस पर बहस नहीं करना चाहते कि यह नीति गलत है या सही। वैसे भी फिल्म के निर्माता का कहना है कि यह फिल्म आरक्षण नीति पर कोई तर्कसंगत दृष्टिकोण रखने के लिये नहीं बनी। फिल्म में क्या है यह तो पता चल ही जायेगा पर जिस तरह इस फिल्म पर बहस हो रही है और जो तर्क आ रहे हैं वह अधिक चर्चा लायक नहीं है क्योंकि उनमें कुछ नया नहीं है। अलबत्ता अभिव्यक्ति की स्वततंत्रा का मुद्दा जरूर चर्चा का विषय है। पहली बात तो यह है कि बाज़ार और प्रचार के शिखर पुरुषों की ताकत इतनी बड़ी है कि लगता नहीं है कि उनकी यह फिल्म रुकेगी या बाधित होगी। दूसरी बात यह है कि अभिव्यक्ति अब केवल संगठित क्षेत्रों की सपंत्ति बन गयी है। टीवी चैनल और समाचार पत्रों के विद्वान बड़े शहरों में रहने वाले व्यवसायिक प्रचारक होते हैं। उनके वही रटे रटाये तर्क सामने आते हैंे जो बरसों से सुन रहे हैं। इसलिये आम इंसान की अभिव्यक्ति के मुखर होने का तो प्रश्न ही नहीं है।
            दरअसल हम अगर देश की ‘आरक्षण’ नीति पर बहस करेंगे तो ऐसे कई सवाल हैं जो नये ंसदर्भों के उठते हैं जिनपर कथित समर्थक प्रचारक कभी ध्यान नहीं देते तो विरोधियों का भी यही हाल है। आरक्षण समर्थकों में कुछ ऐसे लोग हैं जो अपने संगठन बनाये बैठे हैं और दावा करते हैं कि वह अपनी समाजों के रक्षक हैं। वह अपने रटे रटाये तर्क लाते हैं। ‘आरक्षण’ का विरोध सार्वजनिक रूप से कोई करता नहीं है क्योंकि ऐसा करने वालों को व्यवस्था से प्रतिरोध का भय रहता है। अगर हम पूरे विश्व के देशों की व्यवस्थाओं का देखें तो सच यह लगता है कि तो आरक्षण हो या न हो इस पर बहस करना ही व्यर्थ है। अभी हाल ही में ब्रिटेन में हुए दंगों में अश्वेतों की उपेक्षा का परिणाम मान गया। इस लिहाज से तो आरक्षण होना भी बुरा नहीं है।
         मुख्य बात यह है कि हम अपनी व्यवस्थाओं का स्वरूप कैसे चाहते हैं? हम उनको जनोन्मुखी बनाना चाहते हैं या उसमें भागीदारी का स्वरूप देखना चाहते हैं। अगर जनोन्मुखी बनाना चाहते हैं तो पूरी तरह से व्यवसायिक कौशल वाले लोगों को आगे रखना होगा और व्यवस्था में भागीदारी दिखाना चाहते हैं तो फिर हमें यह स्वीकार करना होगा कि उसमें कुछ समझौते तो करने ही पड़ेंगे। समस्या यह है कि भागीदारी के स्वरूप में कार्यकर्ता अपने पदों के अधिकार समझते हैं कर्तव्य नहीं जबकि जनोन्मुखी होने पर उनका रुख दायित्व निभाने वाला रहता है।
         हम बार बार देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर व्यथित होने का दावा तो करते हैं पर व्यवस्था में पनपी अकुशलता को अनदेखा कर देते हैं जबकि सारे संकट का कारण वही है। जहां तक कुशल लोगों का सवाल है तो हर जाति, धर्म, भाषा और हर क्षेत्र में हैं पर क्या हमने सभी को अवसर दिया है? क्या देश के सभी कुशल प्रबंधक सम्मानजजनक पदों पर पहुंचे हैं। हमने पद पाना कौशल मान लिया पर उसके कर्तव्यों के निर्वहन की कुशलता पर कभी विचार नहीं किया। हम यहां जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र से ऊपर उठकर विचार तो यह बात साफ दिखाई देगा कि आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र में व्यवस्था इस तरह हो गयी है कि निजी चतुराई के सहारे अपने स्वार्थ सिद्ध करने वाले पद हथिया लेते हैं पर व्यवसायिक कौशल वाले लोगों को कहीं स्थान नहीं मिल पाया।
      आरक्षण समर्थक एक बुद्धिजीवी ने सवाल किया कि ‘क्या फिल्म को प्रमाण पत्र देने वाले सैंसर बोर्ड में एक भी हमारे समाज का है?’
         इसका जवाब कोई क्या देगा? दरअसल अगर उनसे कहा जाये कि इस मसले पर बहस के लिये अपने समाज से वह आदमी ले आओ जिसके पूरे खानदान में किसी ने आरक्षण का किसी भी तरह लाभ नहीं लिया हो। एक बात बता दें कि जिन समाजों को आरक्षण है उसमें कई ऐसे परिवार हैं जिनकी किसी पीढ़ी को इसका लाभ नहीं मिला। ऐसे लोग आरक्षण को लेकर इतने संवेदनशील भी नहीं होते पर जब भावना की बात आती है तो उनकी संख्या का सहारा लेकर ऐसे अनेक आरक्षण समर्थक विद्वान अपनी बात वजनदार होने का दावा करते हैं। देश के निम्न जातियों के गरीब लोगों की हालत बद से बदतर होती गयी है। आरक्षण की सुविधा लेकर सफेद छवि बनाने वाले लोगों ने अपने समाज के गरीब तबके से कितना वास्ता रखा है यह इस सुविधा से परे उनके लोगों से पूछकर देखा जा सकता है। फिर अब निजीकरण बढ़ रहा है ऐसे में आरक्षण का मुद्दा कितना सार्थक है यह भी विचारणीय बात है। फिल्म की कहानी आरक्षण की असलियत के कितना करीब होगी यह कहना कठिन है पर ऐसी फिल्मों को प्रचार दिलाने के लिये विवाद खड़े किये गये हैं यह देखा गया है।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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