घाव थोड़ा हो वह ज्यादा दिखलाते हैं,
भला करने वाले इसलिये कहलाते हैं।
लाल स्याही से लिखते, जमाने का बयान,
जंग का इनाम अमन बताते हैं।
रहबर हो गये कुर्बाल, जमाने के लिये
वह उनके उसूलों
पर उंगली उठाते हैं।
वातानुकूलित कक्षों मे रहते, कारों में जाते हुए
बदनसीबों की बदहाली से अपनी नज़र मिलाते हैं।
जवानी से बुढ़ापे तक, किया पाखंड का सौदा
जमीन पर बिखरे जवां खून में भी वह फर्क दिखाते हैं।
कहें दीपक बापू, दुश्मन इतने खतरनाक नहीं
डर है घर के नादानों
से, जो अपनी नीयत छिपाते हैं।
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कैमरा था जब उनके सामने
बेबसों के कत्लेआम पर वह आंसु बहा रहे थे।
जो उससे हुए दूर तो
शराब खाने में मुस्कराते हुए जाम में नहा रहे थे।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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