Friday, December 26, 2008

युद्ध कोई क्रिकेट मैच जैसा नहीं होता-आलेख

देश में इस समय एक तरह से युद्धोन्माद का वातावरण बन गया है जो कि स्वाभाविक भी है। हर व्यक्ति अपने समाज और देश से प्रेम करता है और जब उस पर कोई आक्रमण आक्षेप होता है तो उसके मन में क्रोध के भाव आते ही हैं। अक्सर लोग आपस में एक दूसरे से सवाल करते हैं कि ‘पाकिस्तान से क्या युद्ध होगा’, युद्ध होगा कि नहीं’, या युद्ध में आखिर क्या होगा?’

अगर प्रचार और संचार माध्यमों के विश्लेषणों पर दृष्टिपात करने तो पाकिस्तान में भी यही हाल है। ऐसे में दोनों देशों में ज्योतिषयों की भी खूब बन आयी है। भारत में तो ठीक पाकिस्तान में भी कराची और लाहौर के भविष्यवक्ता अपनी बात प्रचारित करवा रहे हैं। वैसे पाकिस्तान धर्म आधारित देश है और उसमें ज्योतिष का कोई स्थान नहीं है पर मनुष्य का मन तो मन ही है जो उसे भटकाता है और जिज्ञासा उत्पन्न करने के साथ उसे शांत करने के लिये प्रेरित भी करता है। बहरहाल युद्धोन्माद के इस वातावरण में ऐसा लगता है कि युद्ध का मतलब कई लोग एक किकेट मैच की तरह समझते हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यम ने क्रिकेट और वास्तविक शो का जिस तरह जंग के रूप में प्रचार करते हैं तो लोगों की सोच में यह भी कोई खेल है। यह इसलिये लगता है कि क्रिकेट और रियल्टी शो पर बात करने वाले इस पर भी बात करते हैं। कोई अगर राजनीति का थोड़ा ज्ञान रखने वाला व्यक्ति मिल जाता है तो उससे पूछते हैं कि ‘बताओ भई पाकिस्तान से युद्ध प्रारंभ होगा कि नहीं।’

लोगांें में युद्ध के गंभीर परिणाम की जानकारी का अभाव परिलक्षित होता है। उनको लगता है कि दोनों की सेनायें ऐसे ही लड़ेंगी जैसे कि कोई खेल हो। उनको यह पता नहीं कि दोनों के पास दूर दूर तक फैंकने वाली मिसाइलें हैं जो उनके शहरों पर ही नहीं घरों भी पर गिर सकती हैं। इनमें नई पीढ़ी के लोग भी है जो 1971 में पाक्रिस्तान के विरुद्ध फतह का इतिहास पढ़ चुके हैं। यह अलग बात है कि उस फतह पर देश के विद्वान ही एकमत नहीं है। एक पक्ष तो अब भी निरंतर उस विजय के प+क्ष में लिखता है पर दूसरा पक्ष उस पर उंगली भी उठाता है। उनके दो तर्क हैं-एक तो यह कि उस लड़ाई में जिस बंग्लादेश को आजाद कराया गया वह अब उतना ही आतंकवादियों का अड्डा है जितना पाकिस्तान और वहां के नेता और सेना भारत विरोधी वातावरण बनाये रखते हैं। दूसरा यह कि उसके बाद इस देश में महंगाई और भ्रष्टाचार का दौर शुरू हुआ तो वह अब तक जारी है भले ही भारत विकास की राह पर है पर अभी भी उससे निजात नहीं मिली।
फिर एक समस्या और है। वह यह कि अमेरिका के गुणगान करने वाले भी कुछ अति ही कर जाते हैं। अमेरिका ने यह कर दिखाया और वह कर दिखाया। यह ठीक है कि अमेरिका एक संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र है और वहां के सभ्य समाज की अपनी छबि है। भारत से भी उसका कोई सीधा विरोध नहीं है बल्कि नित प्रतिदिन आर्थिक,सामाजिक तथा व्यापारिक विषयों पर दोनेां के संबंध मधुर होते जा रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है पर इस तरह उसका प्रचार करना कि वह अपराजेय राष्ट्र है एक तरह का भ्रम है।
पहली बात तो यह है कि अमेरिका आज तक वियतनाम युद्ध को नहीं भूल पाया जिसे वह हारा था। उसके बाद क्या वह कभी विजयी हुआ है? मित्रगण इस बारे में अफगानिस्तान और इराक का उदाहरण देते हैं। मगर जनाब! वहां अभी तो जंंग चल रही हैं। अफगानिस्तान में तो यह हालत है कि वह पाकिस्तान से आग्रह कर रहा है कि वह भारत से विवाद के चलते अफगानिस्तान सीमा से अपनी सेना न हटाये। अखबार बता रहे हैं कि पाकिस्तान अमेरिका को ब्लैकमेल कर रहा है। फिर इराक में ही देखिये! वहां लोकतांत्रिक सरकार है पर उसके बारे में कहा जाता है कि वह तब तक ही है जब तक अमेरिका की सेना वहां है। लोकतांत्रिक सरकार होते हुए भी अमेरिका राष्ट्रपति के साथ जो बदतमीजी की गयी उसे दुनियां ने देखा। मतलब वहां उस सरकार की कोई कद्र ही नहीं है।

दो जगह अमेरिका एक साथ लड़ रहा है और अभी विजय का निर्णय होना बाकी है। कहने वालों ने यह तर्क दिया कि 9@11 के बाद तो अमेरिका में कोई आतंकी वारदात नहीं हुई पर इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका की जो जनधन हानि हो रही है वह कोई कम नहीं है। यकीनन वह कोई आतंकी वारदातों से कम नहीं है। नागरिक सुरक्षित हैं अच्छी बात है पर जो सैनिक मर रहे हैं या घायल हो रहे हैं उनकी पीड़ा झेलने वाले भी अमेरिका में बस रहे हैं। मतलब कोई न कोई तो तकलीफ झेल रहा है।

अमेरिका का समर्थक होना कोई बुरा नहीं है पर क्या उसके अंधसमर्थक बतायेंगे कि आज तक वह कितने परमाणू संपन्न राष्ट्रों से लड़ा है? उसने जापान पर परमाणु बम गिराया था क्योंकि उसके पास नहीं था। वैसे अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी बमबारी देखकर उन दृश्य की तारीफ करने वालों को समझना चाहिये कि वहां अमेरिका से लड़ रहे लोग तकनीकी रूप से सक्षम नहीं थे। अमेरिका पैंसठ हजार किलोमीटर ऊपर से बमबारी कर रहा था और इराक और अफगानिस्तान में लड़ रहे उसके शत्रुओं को उनको गिराने के लिये कोई सक्षम नहीं था। इसलिये चाहे वह जैसे बमबारी कर रहा था। फिर वह जमीन की दृष्टि से उनसे बहुत दूर था इसलिये वह चाहकर भी उस तक नहीं पहुंच सकते थे। कुल मिलाकर वह इकतरफा लड़ाईयां थीं पर भारत और पाकिस्तान में युद्ध हुआ तो इसकी संभावना नहीं है कि वह भी ऐसा रहेगा। अपनी गलतफहमी निकाल दीजिये। पाकिस्तान पर हमला करने का साहस तो अमेरिका के पास भी नहीं है इसलिये वह कूटनीति से काम चलाता है। इकतरफा लड़ाई की संभावना के बावजूद अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक में अपने मित्र राष्ट्रों-ब्रिटेन,फ्रंास,ब्रिटेन,जापान तथा अन्य देश- को साथ लिया। उसने अकेले वियतनाम का युद्ध लड़ा जिसे वह हार गया और उसके बाद वह कभी अकेले नहीं लड़ने निकला। अपने यहां एक सुपर स्टार है उनके बारे में उनके एक प्रतिद्वंद्वी रहे एक स्टार ने उसको चुनौती देते हुए कहा था कि‘उसकी कोई भी हिट फिल्म बताईये जो मल्टीस्टार न हो। मैं तो अपने दम पर फिल्में हिट करा चुका हूं।’ कुछ इसी तरह की बात लोग अमेरिका के बारे में भी कहते हैं। यह कोई निराशावादी दृष्टिकोण नहीं है।
परमाणु बम का नाम सुनने के आगे क्या जाना है? उसके बारे में कहा जाता है कि उसकी मार से जो मर गये वह मुक्त हो गये और जो बचे उनकी जिंदगी मौत से बदतर होती है। अभी प्रचार माध्यम युद्धोन्माद का माहौल ऐसे ही बना रहे हैं जैसे कि क्रिकेट और वास्तविक शो का बनाते हैं। जिन लोगों पर देश का जिम्मा है वह काफी सुलझे हुए हैं। उनकी क्षमताओं को कम आंकने वाले स्वयं ही भ्रमित हैं। देश में बुद्धिमान और अनुभवी लोगों की कमी नहीं है। आजकल युद्ध से भी बड़ी चीज है कूटनीति। इस मामले में अपने यहां काफी अनुभवी लोग हैं। देश को तत्काल युद्ध में झौंककर वह ऐसे झमेले में नहीं डाल रहे तो इसके पीछे कोई न कोई वजह है। कूटनीति की मार युद्ध से भी गहरी होती है। पाकिस्तान इस मामले में अधिक दक्ष नहीं समझा जाता। वहां नकारात्मक विचार धारा का बोलबाला है इसलिये उछलकूद कर काम चला लेता है। उसको यह अवसर भी इसलिये मिला क्योंकि अमेरिका ने उसको यह अवसर दिया है। भारत सकारात्मक विचारधारा वाला देश है और इसलिये उसे संयम रखना ही पड़ता है। सीमित सैन्य कार्यवाही की संभावना तो लगती है पर बृहद युद्ध तभी संभव है जब अन्य देश इसके लिये पूरी तरह तैयार हों जिसकी संभावना नगण्य है। वैसे कोई कुछ भी कहे पर समझदार लोगों को इस तरह के युद्धोन्माद में नहीं बहना चाहिये क्योंकि युद्ध कोई क्रिकेट मैच नहीं होता।
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2 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

युद्ध कभी भी किसी के लिए स्वागत योग्य नही होता , यह तो मानी हुई बात है परंगु जब चीज़े हद से गुज़र जाती हैं तो कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति भी हाथ उठा देता है यद्यपि उसे मालूम है कि वही मार खाएगा। तब उसे उसकी मर्दानगी पुकारती है कि ठीक है दस मार खाकर एक मार तो वह मार देता और यही उसके लिए काफी है। उन्माद मे लडाई अहम वाले करते हैं और सोच विचार कर करनेवाले निश्चय ही विजयी होते है-- पर हमारी सोच इतनी कुम्भकरणी लम्बी न हो कि लडने का जज़्बा ही मर जाय और कोई राहगीर भी धप्पे लगाकर चलता बने!

विवेक सिंह said...

चन्द्रमौलेश्वर जी से सहमत !

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