Tuesday, October 21, 2008

मुफ्त में जुर्म सहती जाना-हास्य कविता

सास ने बहू से कहा
'तुम्हें आज मायके जाने की अनुमति
पर शाम ढलने से पहले घर लौट आना
तेरे ससुर और पति से तेरे जाने की
ख़बर छुपाये रखूँगी
उनके आने से पहले नहीं आई
तो दोनों नाराज होंगे
पडेगा तुम्हें पछताना
हाँ, मेरे लिए कोई तोहफा
जरूर लाना'
बहू बिचारी शाम से पहले वापस आयी
साथ में सास के लिए साड़ी भी लाई
पर सास को साड़ी पसंद नही आयी
और जोर से किया चिल्लाना शुरू
'कैसे कंगाल घर की हैं
इतनी सस्ती साड़ी लाई
ज़रा भी शर्म नहीं आयी
पता नहीं कौनसे मुहूर्त में
इसका रिश्ता अपने बेटे के लिए माना'

बेटा और पति के घर लौटने तक
उसने मचा रखा कोहराम
नहीं करने दिया बहु को आराम
घर में उनके घुसते उसने
उनको दी शिकायत
बहु को कोसने में नहीं की किफायत
ससुर ने बहु से कहा
'बेटी नए जमाने की हो
पर बदला नहीं है ज़माना
तुमने अभी सास-बहु के
रिश्ते को नहीं जाना
कभी तुम सास को खुश नहीं कर सकती
चाहे लाख जतन कर लो
इसलिए कभी सास के लिए कुछ नहीं लाना
अपने पिता का खर्चा करा कर भी झेलने से
तो अच्छा है मुफ्त में सास के जुर्म सहती जाना'
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