खुशी कभी बाज़ार में नहीं मिलती, खूबसूरती कभी राख से नहीं खिलती।
‘दीपकबापू’ तंगदिल सूखी आंखों से देखते, आग में ताजी हवा नहीं मिलती।।
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वह कमजोर कायदे के रास्ते चल रहे हैं, दबंग फायदे के रास्ते पल रहे हैं।
‘दीपकबापू’ हिसाब गड़बड़ करना सीखा नहीं, वह रोटी के वास्ते जल रहे हैं।
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महलों के रहवासी मगर दिल बंद हैं, भरी जेब मगर दान में मंद हैं।
‘दीपकबापू’ महफिलों में करें मसखरी, बड़े बहुत मगर बड़प्पन में चंद हैं।
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परेशानी में सबका दर कौन खटखटाता है, हालातों में कौन पांव भटकाता है।।
‘दीपकबापू’ बेबस पर कभी हंसते नहीं, आह का वार लोहा भी चटकाता है।।
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आशिकों का रूप शोहदों में देखते, सच की परछाई ऊंचे ओहदों में देखते।
‘दीपकबापू’ इश्क से बनाते फूल, मुर्दा कली का मान दर्दीले सौदों में देखते।।
असुरों के आक्रमण कभी बंद नहीं होते, देवों के द्वारा भी सदा बंद नहीं होते।
‘दीपकबापू’ जिंदगी के समर में बहुत वीर, शत्रु ज्यादा मित्र भी चंद नहीं होते।।
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ठगी से तो कंगाल भी अमीर बन जाते, धोखे से ही ऊंचे महल तन पाते।
‘दीपकबापू’ बेकार आजमाते सारे नुस्खे, सत्य साधना से ही नाम रतन पाते।
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चंद जिंदा इंसानी बुत पर्दे पर सजा लेते, ख्वाबों का सच में मजा देते।
‘दीपकबापू’ दिल बहलाने का करें सौदा, दर्द पर भी तालियां बजा लेते।
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विकृत भाव की पहचान के डर हैं, चोरी से बने शायद शीशे के घर हैं।
‘दीपकबापू’ बदनाम हुए ईमानदारी से, मेहमान के इंतजार में उनके दर हैं।
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शब्दों को दर्द से सजाते, अर्थ में चीख बजाते।
‘दीपकबापू’ हमदर्द बने, चंदा लेकर भीख सजाते।।
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जिंदगी सभी ढोते बैल कहें या पुकारें शेर, खाते भी सभी मलाई पायें या बेर।
‘दीपकबापू’ नज़र का खेल देखा मजेदार, फूल चाहें पर उगाते गंदगी का ढेर।।
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सरकार बनने से पहले वादों पर चलाते, फिर सरकार यादों पर चलाते।
‘दीपकबापू’ लालफीते में बंद कायदे हैं, वही राजकाज प्यादों पर चलाते।।
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