Thursday, December 26, 2013

चाणक्य नीति दर्शन-नकारा आदमी दूसरों की निंदा कर अपनी श्रेष्ठता जताता है(nikamma aadmo doosron ki ninda kar apani shreshta jataataa hai)



     हमारे देश में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने लोगों की चिंत्तन क्षमता को सीमित कर दिया है। सच बात तो यह है कि लोग मानव जन्म को श्रेष्ठ तो मानते हैं पर उसके फलितार्थ नहीं समझ पाते। पश्चिम की उपभोग संस्कृति से सराबोर समाज में सुविधाओं की वस्तुओं के नये तथा परिवर्तित वस्तुओं को विज्ञान की उन्नति तथा बाज़ार में उनकी उपलब्धता को विकास मान लिया गया है। इस भौतिक विकास से जो दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक विकार  युक्त लोगों के लिये जीवन का संघर्ष अत्यंत कठिन होता है यही कारण है कि वह किसी के सपने दिखाने पर ही उसके वश में हो जाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अपनी रोजमर्रा की परेशानियों से निजात पाने के लिये सर्वशक्तिमान की दरबार में जाते हैं या फिर किसी चालाक मनुष्य को ही सिद्ध मानकर उसके इर्दगिर्द अपनी समस्याओं का रोना रोते हैं।
            सर्वशक्तिमान ने इंसान को हाथ, पांव, नाक, कान तथा आंखों के साथ अन्य जीवों से अधिक बुद्धि दी है पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण समाज अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे हो गया है।  यही कारण है कि प्रकृत्ति के उपहार होते हुए भी अनेक लोग लाचारी का जीवन बिता रहे हैं। इससे उन चालाक तथा विलासी लोगों की चांदी हो रही है जिनके पास बेचने के लिये सपने हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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धर्मार्थकाममीक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्यते।
अजागलस्तनास्येव तस्य जन्म निरर्थकम्।।
            हिन्दी में भावार्थ-जिस व्यक्ति के पास धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष इन चारों में से कोई पुरुषार्थ नहीं है उसका जन्म बकरे के गले में लटके थनों के समान व्यर्थ आर निष्फल है।
दह्यमानाः सुतीव्रेण नीचाः पर-यशोऽगिना।
अशक्तास्तत्पद्र गन्तुं ततो निन्दां प्रकृर्वते।।
            हिन्दी में भावार्थ-दुष्ट आदमी दूसरों की कीर्ति को देखकर जलता है और जब स्वयं उन्नति नहीं कर पाता तो वह दूसरे का विकास देखकर उसकी निंदा करने लगता है।
आजकल यह भी देखा जा रहा है कि समाज के हित के लिये कोई काम करने की योजना तो बनाता नहीं है। न ही कोई सार्वजनिक हित के लिये काम करने को इच्छुक है पर कमजोर और लाचार लोगों का भला करने के नाम पर अनेक चालाक लोग अपनी दुकान लगा ही लेते हैं।  ऐसे लोग एक दूसरे की निंदा करते हैं।  अमुक ऐसा है हम भले हैं-जैसी बातें कहते हैं।  दूसरे के काम में दोष निकालते हैं पर स्वयं कुछ नहीं करे।  इस प्रचार के युग में निंदा करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। भौतिकता ने लोगों के निजी स्वाभिमान को नष्ट कर दिया है। अपनी समस्याओं पर दूसरे पर आश्रित रहने की सामान्य प्रवृत्ति ने समाज में अनेक ऐसे लोगों तथा उनके समूहों का निर्माण कर दिया है जो भलाई का व्यापार समाज सेवा के नाम पर करते हैं।
इस संसार में समस्यायें सभी के सामने होती हैं पर योग तथा ज्ञान साधक अपने प्रयासों से उनका निपटारा करते हैं। परिणाम के लिये प्रतीक्षा करने का उनमें धैर्य होता है।  दूसरे उनकी बुद्धि का हरण नहीं कर सकते। इस प्रकार का गुण अपने अंदर लाने का एकमात्र उपाय यही है कि हम अपने अध्यात्मिक दर्शन के ग्रंथों का अध्ययन करें।

लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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