योग और ध्यान की कला बाज़ार में बिकने वाली चीज नहीं है जिसे खरीदकर कोई सिद्ध बन जाये। इसके अलावा जो सिद्ध हैं वह अपनी सिद्धियां बाज़ार में ब नहीं जाते। सच बात तो यह है कि साधना एकांत में सक्रिय रहकर की जा सकती है। ऐसे में चौराहों पर आकर अगर कोई यह दावा करता है कि वह योग और ध्यान में सिद्ध है और अपने चेले चपाटे इस प्रचार में लगा देता है कि उसके धार्मिक संसार का विस्तार हो तो समझ लीजिये कि वह गुरु अध्यात्म ज्ञान से स्वतः वंचित है। अध्यात्म और धर्म में अंतर है। धर्म बाह्य रूप से निर्वाह किया जाता है और अध्यात्म अंतर ज्योति में प्रकाशित होता है अतः उसका ज्ञान होने पर आदमी अंतर्मुखी होता है।
आज हम देख रहे हैं कि सारे देश में धर्म के नाम पर तमाम तरह के प्रचारक हैं पर उनमें अध्यात्म ज्ञानी कितने हैं, यह शोध का विषय है। एक बात तय रही कि धन लेने और देने वाले कभी भी अध्यात्म ज्ञान में पारंगत नहीं हो सकते। अध्यात्म स्वचिंतन के लिये प्रेरित करता है और ऐसे में आदमी अपनी इंद्रियों को अंतर में सक्रियता रखता है। जब आदमी की इंद्रियां जैसे कान, नाक, हाथ, और आंख बाहरी रूप से सक्रिय हैं तब वह अध्यात्म से परे हो जाती हैं। ऐसे में अच्छा सुने या देखें वह प्रभाव अंदर तक नहीं जाता। उनका प्रभाव तभी अच्छी तरह अंदर जा सकता है जब इंद्रियों को अंतर में ले जाया जाये। यह कला ध्यानी और ज्ञानी जानते हैं और वह कभी आत्म प्रचार के लिये चेले चपाटे नहीं जुटाते।
इस समय हमारे देश में योग का जिस तरह बाज़ार सजाया जा रहा है उसे देखकर अनेक लोग यह समझते हैं कि यह विधा बहुत सरल है और इसे चंद समय में कोई भी सिखा सकता है। इतना ही नहीं अनेक लोग तो ऐसे हैं जिन्होंने कहीं से दस पंद्रह दिन का योगासन और प्राणायाम का प्रशिक्षण लिया और अब स्वयं शिक्षक बन गये हैं। बहुत कम लोग इस बात को समझते हैं कि पंतजलि योग सूत्र और श्रीमद्भागवत गीता के संदेश केवल श्रद्धा से ही पढ़ने वाली सामग्री नहंी है वरन इनका अध्ययन भी कक्षा दर कक्षा में पढ़कर किया जा सकता है। मतलब यह कि इनके पाठों का अध्ययन करने में वैसी ही बुद्धि की आवश्यकता होती है जिसे गणित, विज्ञान और भूगोल की पुस्तकों को पढ़ने के लिये उपयोग में लायी जाती है। अंतर इतना है कि योग साहित्य और श्रीमद्भागवत गीता के अध्ययन से नौकरी नहीं मिलती दूसरा यह भी कि इनको श्रद्धा से पढ़ने पर ही समझा जा सकता है। थोड़ा बहुत अध्ययन कर शिक्षक बने लोग केवल धार्मिक व्यवसायी बन जाते हैं।
पतंजलि योग साहित्य के आठ भाग हैं। यह एक तरह से अध्यात्मिक विज्ञान है जिसकी तुलना किसी अन्य किताब या ग्रंथ से नहीं है। यह अलग बात है कि पश्चिमी विज्ञानिकों की दृष्टि से अध्यात्म का कोई विज्ञान नहीं होता। इसी कारण इसके अध्ययन की उपेक्षा हमारे देश में हुई है जिसका लाभ अब वह लोग उठा रहे है जिन्होंने बस इतना सीखा है कि इससे अपनी रोजी रोटी कैसे चलायी जाये। हमें उनकी क्रिया पर कोई आपत्ति नहंी है पर लोगों का यह समझना चाहिए कि पतंजलि योग विज्ञान तथा श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान में वही पारंगत हो सकता है जिसने इनका विशद अध्ययन किया हो। अंत में यह भी बता दें कि जिन्होंने दोनों में अपना महारथ प्राप्त किया है वह कभी प्रचार के मैदान में नहीं दिखाई देंगे। वह दवाई, कैलेंडर और पेन बेचते नहीं दिखाई देंगे। यह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों का प्रभाव कहें कि उनका ज्ञान कभी अर्थ पर आधारित न होने से वह स्वाभाविक रूप से क्रय विक्रय की वस्तु नहीं बन पाया। अगर कोई इसे क्रय और विक्रय की वस्तु समझता है तो वह यकीनन घोर अज्ञानी है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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2 comments:
solah aane sach!!!
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