Sunday, December 12, 2010

प्रचार की दलाली में समाचार-हिन्दी लेख (prachar ki dalali mein samchar-hindi lekh)

जब दर्द बढ़ जाये तो इंसान कहां जाये? खास तौर से जिसके चिंतन तत्व जिंदा हों उसके लिये अपनी मानसिक हलचल पर नियंत्रण रखना ऐसी हालत में दुष्कर कार्य हो जाता है जब अपराध पर दान, बेईमानी पर ईमान तथा भ्रष्टाचार पर शिष्टाचार का लेबल इस तरह लग जाता है कि समाज के आम इंसान भी उसे नहीं देखने और समझने में अपना समय बर्बाद नहीं चाहते। ऐसा लगता है जैसे कि पूरे देश ने यह स्वीकार कर लिया है कि कलियुग में सतयुगी पुरुषों का होना संभव नहीं है।
ऐसे में हंसी सूझती है। इधर अमेरिका के विकिलीक्स के खुलासों का प्रकरण चल रहा है तो अपने यहां भी घोटालों का टेलीफोन टेप प्रकरण कम दिलचस्प नहंी है। अंतर यह है कि विकीलीक्स के खुलासे अमेरिका के रणनीतिकारों के छिपे सोच को बताते हैं जबकि भारत के टेलीफोन टेप घोटालों का सच बताते हैं। इधर एक पत्रिका ने दावा किया है कि उसके पास उन टेपों के अभी ढेर सार संस्करण हैं जिनको लोग नहंी जान पाये। अब हमारी मानसिक हलचल में कभी विकीलीक्स तो कभी टेप का बात आती जाती रहती है। सच तो यह है कि भारतीय टेपों के आगे विकीलीक्स के खुलासे कम मज़ेदार दिख रहे हैं।
अमेरिकी रणनीतिकारों की नीति चाहे कैसी भी हो पर उनका सच कभी वैसे ही नहीं छिपता यह अलग बात है कि विकीलीक्स उसके प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है। उसमें किसी बाज़ार के व्यक्तित्व पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। मगर भारतीय टेलीफोन टेप प्र्रकरण ने तो बाज़ार के अनेक व्यक्त्तिवों को भद्द पिटवा दी है। कथित धर्मनिरपेक्ष विचारक, महान पत्रकार, ईमानदार उद्योगपति तथा महान समाजसेवकों के साथ ही अनेक राजकीय व्यक्तित्वों पर छींटे पड़े हैं। एक तरह से स्वच्छ छवि का जो कथित किला था वह ढह गया है।
एक जनसंपर्क कंपनी की संचालिका के साथ वार्ता वाले यह टेप अनेक बातों को लेकर चौंकाते हैं। बड़े बड़े दिग्गज़ उसके सामने नतमस्तक हैं। एक कथित पत्रकार जो कई बरसों से महान होने की उपाधि धारण किये हुए थे उनकी वार्ता ने पलभर में उनका आभामंडल ध्वस्त कर दिया। इन पत्रकार महोदय ने एक उद्योगपति के लिये ऐसे शब्द का प्रयोग किया कि हम नाम न लिखने के बावजूद इस पाठ में उल्लेख नहीं सकते। इसके दूरगामी परिणाम होंगे। कथित महान पत्रकार जो दलाली के दम पर इतनी दूर तक चले आये अब उनके लिये आगे की राह कठिन होने वाली है। जब वह स्वयं मानते हैं कि जब दो भ्राता उद्योगपति किसी विषय पर एक साथ शामिल हैं तो यह संभव नहीं है कि एक से बैर लेकर वह अपनी दलाली यात्रा अधिक समय तक जारी रख पायेंगे।
यह पत्रकार महोदय एक हिन्दी समाचार चैनल के सिरमौर थे और सुना है कि उन्होंने वहां से इस्तीफा दे दिया है। वैसे उन्होंने उद्योगपति के लिये जो शब्द प्रयोग किया था वह अपने चैनल पर उपयोग नहंी करते थे क्योंकि अंततः हिन्दी के समाचार और मनोरंजन चैनल ऐसे ही उद्योगपतियों के दम पर चल रहे हैं।
वैसे हम लोग समाचार या मनोरंजन चैनलों के सामने दिख रहे चैनलों की गतिविधियों पर टिप्पणियां करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि उनको अपने प्रबंधकों की बनाई नीतियों पर ही चलना पड़ता है। प्रबंधक जहां से विज्ञापन प्राप्त या कोई अन्य आर्थिक लाभ प्राप्त करते हैं उसका पता उनके कर्मचारियों को स्वतः जाता है। यह भी पता होता है कि अपने आर्थिक स्त्रोतों पर कोई प्रतिकूल टिप्पणी उनकी नौकरी भी ले सकती है। ऐसे में उनको हमेशा ही उसी नीति पर चलना पड़ता है जिसका अनुकरण प्रबंधन करता है।
हम अपने देश की बृहद अर्थव्यवस्था को देखें तो उनके से कुछ खास क्षेत्र ही हैं जो भारी आय प्रदान करते हैं। सारा गोलमाल भी उन्हीं में होता है। उनमें सक्रिय धनाढ्य लोग हर तरफ अपना हाथ मारते हैं। वह किसी धंधे के जानकार हों या नहीं उसमें सक्रिय हो जाते हैं। आप बताईये कपड़ा, स्टील, ट्रक और ट्रेक्टर का निर्माण करने वाले आखिर टेलीफोन के क्षेत्र में कैसे आ गये? स्पष्टतः उनकी शक्ति किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता या ज्ञान नहीं बल्कि पैसा ही होता है। पैसे से वह इंसान खरीदते हैं और उसका ईमान उनके यहां गिरवी हो जाता है। उनके देश और विदेश के आर्थिक स्त्रोतों का पता सभी को होता है। ऐसे में उनसे विज्ञापन पाने वाले अपने देशी आकाओं को नहीं उनके विदेशी मित्रों की प्रसन्नता का भी ख्याल रखते हैं।
बहरहाल प्रचार माध्यमों की आड़ में दलाली कर रहे पत्रकार हों या सफेदपोश उद्योगपति इस टेप कांड से आपस में ही उलझ रहे हैं। टेलीफोन टेप के अभी बहुत सारे अंश आने बाकी हैं। ऐसे में किस किसका आभामंडल बिखरेगा पता नहीं है। एक आम आदमी और लेखक के रूप में हम केवल इस टेलीफोन टेपों की जानकारी पर नज़र रखते हैं। यह सांप बिच्छुओं का आपसी द्वंद्व है जो देखने में मज़ा आ रहा है। यह द्वंद्व पहले भी होता था पर नज़र नहीं आता पर अब अंतर यह है कि चौराहे पर चर्चा होने लगी है। पहले दलाली और हलाली में लगे लोग कभी एक दूसरे पर बंद कमरों में या टेलीफोन पर पर आक्षेप करते होंगे पर प्रत्यक्ष कभी उनके टकराव का प्रचार नहीं होता था। यह टेलीफोन टेप उनको चौराहे पर लाया है। अतः उनकी लड़ाईयां भी सरेआम होंगी। ऐसे में आशा है कि आगे भी यह मनोरंजक लड़ाई सामने आती रहेगी, खासतौर से जब चैनलों में मसीहाई छवि बनाये लोगों का आभा मंडल जब बिखरता नज़र आयेगा। आखिरी बात यह है कि वैसे तो हम अनुमान ही करते थे कि हम जैसे लेखक आखिर क्यों परंपरागत प्रचार माध्यमों में जगह नहीं बना पाते! अब समझ में आ गया है कि दलाली और हलाली का काम भी आना चाहिए लिखते चाहे कैसा भी हों? साथ में यह आत्मविश्वास भी बढ़ा है कि हम लिखने के मामले में उनसे तो ठीक हैं जो महानता की छवि धारण किसे हुए थे। अनेक कथित महान लेखकों के शिखर पर पहुंचने का क्या मार्ग है अब समझ में आ गया है। राजनीति और उद्योगपतियों की प्रशंसा में गुणगान करने पर समाज से आदमी दूर हो जाता है और भले ही वह प्रचार माध्यमों की बनाई दुनियां में आत्ममुग्ध होकर बैठा रहे पर सच जानता है। यही कारण है कि यह कथित प्रचार पुरुष आपस में मिलते हैं तो यही कहते हैं कि ‘हम कहां बड़े आदमी, केवल मित्रों की वजह से यहां पहुंचे हैं?’
बाकी समय वह अपने ही सच से भागते हैं, वजह उनकी कलम दलाली की बैसाखियों के सहारे चलती हैं और यही उनके आत्मविश्वास की मौत कारण भी होती है। इतना ही नहीं वह अपने विज्ञापन दाताओं के कहे बगैर उनके मित्र तथा विदेशियों की आलोचना से भी घबड़ाते हैं। इतना ही नहीं विज्ञापन दाताओं की शरण में रहने वाले खिलाड़ियांे, फिल्म अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों के जन्म दिन, मैत्री संबंधी प्रकरणों या अदाओं पर ही समाचार चैनलों के एक घंटे में से पचपन मिनट बर्बाद होते हैं। उससे भी ज्यादा रियल्टी चेनलों में निकाले गये पात्रों की ब्रेकिंग न्यूज देनी पड़ती है। निकाले गये पात्रों के साक्षात्कार देने पड़ते हैं। कभी किसी कार्यक्रम की निंदा कर भी उसे लोकप्रिय बनाने का प्रयास करना पड़ता है। सीधी बात यह कि प्रचार की दलाली में समाचार देकर वह अपने आपको पत्रकार कहते हैं पर सच तो वह स्वयं भी जानते हैं। जनता अब जानने लगी है।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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