विश्व कप फुटबाल प्रारंभ हो रहा है और टीवी चैनल वालों की समस्या यह है कि उसमें आसानी से अपना समय खर्च कर कमाने का प्रयास जरूरी है पर देश मे यह खेल इतना लोकप्रिय नहीं है। अगर देश में यह खेल लोकप्रिय नहीं है तो टीवी चैनल चाहें तो उससे मुंह फेर लें पर वह ऐसा भी नहीं कर सकते क्योंकि उनको विदेशी चैनलों की बराबरी करते दिखना भी जरूरी लगता है। इसलिये फुटबाल के लिये दर्शक जुटाने का प्रयास प्रारंभ कर दिये हैं। यह प्रयास फलीभूत नहीं भी हों तो भी वह फुटबाल के प्रसारण पर समय खर्च करने के अपने प्रयास को सही तो वह साबित कर ही सकते हैं इसलिये उन्होंने उसके प्रचार क्रिकेट से अपने माडल चुन लिये हैं। एक तो पुराना क्रिकेट कप्तान है जो बता रहा है कि ‘वह रात भर इन मैचों के लिये जागेगा।’
ऐसा नहीं है कि भारत में फुटबाल खेल की लोकप्रियता कोई शून्य के स्तर पर है पर वह जनमानस में क्रिकेट इतना नहीं जाना जाता जिस पर लोग अपना ढेर सारा फालतू वक्त बरबाद कर सकें। बंगाल में तो बहुत समय तक फुटबाल का जादू चला है। ईस्ट बंगाल, मोहम्मडन स्पोर्टिंग तथा मोहन बागान नाम के प्रसिद्ध क्लब रहे हैं जिन्होंने लंबे समय तक पूर्वी क्षेत्र में फुटबाल को लोकप्रिय बनाया। स्थिति यह थी कि देश के सभी समाचार पत्र उन प्रदेशों में भी अपने खेल पृष्ठों पर उनके मैचों के समाचार देते थे जहां यह खेल बिल्कुल नहीं खेला जाता। कम खेले जाने के बावजूद स्थिति यह थी कि बंगाल के इन फुटबाल खिलाड़ियों के इतना पैसा मिलता था कि उनमें से कुछ राष्ट्रीय टीम के लिये खेलने से कतराते थे। उनसे समय निकालकर देश के लिये खेलने का आग्रह किया जाता था। कालांतर में वहां के कुछ खिलाड़ियों देश की टीम को ऊंचे स्तर पर पहुंचाने का प्रयास किया भी पर नाकाम रहे।
उस समय के अखबार लिखते थे कि देश में फुटबाल का स्तर चाहे कुछ भी हो पर अनेक देशों के खिलाड़ियों के मुकाबले भारतीय क्लब के खिलाड़ी अधिक कमाते हैं। लगता है कि क्रिकेट भी अब इसी राह पर चल पड़ा है।
कल त्रिकोणीय मुकाबले में भारत अपना तीसरा मैच हारकर प्रतियोगिता से बाहर हो गया। टीम के खिलाड़ियों के नये या अनुभवी होने का बहाना सरलता से किया जा सकता है पर सच तो यह है कि वरिष्ठ खिलाड़ियों की उपस्थिति भी इस परिणाम को बदल नहीं सकती थी। अब विश्व कप क्रिकेट होने वाला है और उसमें आप देखना यह वरिष्ठ खिलाड़ी क्या कर पाते हैं?
अभी बीस ओवरीय विश्व कप में भी हमने देखा था कि देश की व्यवसायिक प्रतियोगिता में भारी धन लेकर खेलने के आदी हो चुके इन खिलाड़ियों के लिये अब यह संभव नहीं रहा कि वह इन प्रतियोगिताओं को गंभीरता से लें जो अधिक पैसा नहीं देती। कहने को तो यह कहा जा रहा था कि आईपीएल से भारतीय क्रिकेट को फायदा होगा पर उससे होने वाली हानि का अंदाजा किसी को नहीं था। पहले खिलाड़ी राष्ट्रीय प्रतियागिताओं में इसलिये खेलते थे कि देश की टीम में जगह मिले पर अब इसलिये खेल रहे हैं ताकि आईपीएल में जगह मिले। मानसिकता का अंतर आ गया है। वह दोहरी मानसिकता का शिकार हो रहे हैं। अगर वह क्रिकेट से प्रतिबद्ध होते तो चाहे जहां खिला लो वह अपना स्वाभाविक खेल दिखाते पर उनकी प्रतिबद्धता अधिक से अधिक पैसा बटोरना है। यह भावना बुरी नहीं है पर मुश्किल यह है कि क्रिकेट अब उनके लिये धर्म नहीं कमाऊ कर्म रह गया है और अंतर्राष्ट्रीय मैचों मेें यह जज़्बात अधिक देर नहीं चलते।
भारतीय खिलाड़ी दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन या आस्ट्रेलिया की तरह नहीं है जो हर हाल में व्यवसायिक रहते हैं चाहे अधिक पैसा मिले या कम। कहंी न भी मिले तो अपना स्वाभाविक खेल नहीं छोड़ते। यहां तो भारतीय खिलाड़ी अपनी भौतिक उपलब्धियों के बोझ तले दबे जा रहे हैं। कई खिलाड़ी तो केवल इसलिये खेल रहे हैं कि उनका नाम चलता रहे ताकि विज्ञापन का दौर बना रहे।
हम यह नहीं कहते कि व्यवसायिक प्रतियोगिता बंद होना चाहिये मगर अब क्रिकेट को दो भागों में बंटना होगा। एक व्यवसायिक तथा दूसरा अंतराष्ट्रीय! कम से कम भारत में तो यही करना पड़ेगा। टेस्ट मैच, एक दिवसीय तथा बीस ओवरीय मैचों के लिये अलग अलग टीम रखनी होगी क्योंकि इन तीनों का प्रारूप ही अलग है और यह बात तो विशेषज्ञ भी मानते हैं।
व्यवसायिक खिलाड़ियों का बूता नहीं है कि वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता जितवा सकें।
खिलाड़ियों के चयन का आधार भी रणजी ट्राफी और देवधर ट्राफी रखना चाहिये। व्यवसायिक प्रतियोगिताओं में हारने से खिलाड़ी की हार से किसी पर कोई अंतर नहीं पड़ता पर जब देश का नाम आता है तो दुःख होता है। चूंकि भारत की क्रिकेट नियंत्रण करने वाली संस्था अब पूरी तरह व्यवसायिक हो गयी है इसलिये सरकार को अपने देश के नाम पर चुनी जाने वाली टीम के चयन में हस्तक्षेप करना ही चाहिए। ऐसे में अव्यवसायिक खिलाड़ियों को चुनना चाहिये जो क्षेत्ररक्षण या बल्लेबाजी के साथ ही गेंदबाजी में जान लगाकर खेलते हैं। व्यवसायिक प्रतियोगिता मं पैसा कमाने के आदी हो चुके खिलाड़ियों का तो अब एक ही क्ष्य रह गया है कि कथित रूप से अंतराष्ट्रीय मैचों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराओ, एक दो मैचा अच्छा खेलो ताकि व्यवसायिक प्रतियोगिता के किसी क्लब में अपनी नीलामी हो सके। जबकि देश के लिये खेलने के लिये स्वाभिमान की भावना जरूरी है।
-----------------कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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