अंतर्जाल पर हिन्दी भाषा में लिख रहे लेखकों को अभी इसका अनुमान नहीं है कि संगठित प्रचार माध्यम-टीवी, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाऐं-उनके ब्लाग पर नज़र रख रहे हैं। कुछ ब्लाग लेखक लिखते हैं कि इंटरनेट पर लिखने से समाज में कोई बड़ा वैचारिक बदलाव नहीं आने वाला तो उनकी स्थिति दो प्रकार की ही हो सकती है। एक तो यह कि वह अपने पाठों में कोई वैचारिक बात नहीं रखते और दूसरी यह कि रखते हैं तो उनके मौलिक न होने का अहसास स्वयं को है।
एक बड़े पत्रकार के व्यंग्य पर हिल जाने वाले हिन्दी ब्लाग जगत को अगर किसी बात की जरूरत है तो वह है आत्मविश्वास। प्रसंग वश यह लेख भी एक ऐसे ही टीवी और अखबार पत्रकार के लेख पर ही आधारित है जिसमें वह कुछ निष्पक्ष दिखने का प्रयास कर रहे थे। वह मान रहे थे कि केवल दो विचारधाराओं के मध्य ही प्रसारण माध्यमों में कार्यक्रम और समाचार पत्र पत्रिकाओं में आलेख होते हैं। उनका यह भी था कि जब हम कहीं बहस करते हैं तो एक तरफ राष्ट्रवादी तो दूसरी तरफ समतावादी विद्वानों को ही बुलाते हैं जो अपनी धुरी से इतर कुछ नहीं सोचते न बोलते। कहने का अभिप्राय यह है कि वह उस सत्य को स्वीकार कर रहे थे जिसे स्वतंत्र और मौलिक ब्लाग लेखक लिखते आ रहे हैं।
यहां यह भी उल्लेख करें कि वह पत्रकार स्वयं ही राष्ट्रवादियों पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगाकर अपने को समतावादी बताते रहें तो राष्ट्रवादियों ने भी उनको अपने धुरविरोधियों की सूची में शामिल कर रखा है। इतने बरसों से प्रचार माध्यमों में सक्रिय विद्वान की अभिव्यक्त्ति अपनी ही थी पर विचारों का स्त्रोत हिन्दी ब्लाग जगत का दिखा जहां यह बातें लिखी गयी हैं। कहने को तो यह भी कह जा सकता है कि इतने बड़े आदमी को भला कहां फुरसत रखी है? मगर यह सोचना गलता होगा। दरअसल आम पाठक इतना ब्लाग जगत पर नहीं आ रहा जितना यह बुद्धिजीवी आ रहे हैं। वजह साफ है कि वह अभी तक एक तय प्रारूप में चलते आ रहे थे इसलिये कुछ नया सोचने की जरूरत उनको नही थी पर इधर हिन्दी ब्लाग एक चुनौती बनता जा रहा है इसलिये यह संभव है कि वह यहां से विचारों को उठकार उस पर अपने मौलिक होने का ठप्पा लगाये क्योंकि उनके पास प्रचार माध्यमों की शक्ति है।
इन दो विचारधाराओं पर चलने वाली बहसों में आम आदमी का एक विचारवान व्यक्ति की बजाय निर्जीव प्रयोक्ता के रूप में ही रखा जाता है। सवाल यह है कि उनको यह विचार कहां से आया कि प्रचलित विचाराधाराओं से अलग भी किसी का विचार हो सकता है?
जवाब हम देते हैं। हिन्दी ब्लाग जगत पर बहुत कम लिखा जा रहा है पर याद रखिये न छपने की कुंठा लेकर आये ब्लाग लेखकों के साथ उनकी अभिव्यक्त होने के लिये तरस रही अपनी विचाराधारायें हैं। यह विचाराधारायें न तो विदेश से आयातित हैं और न अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से संपन्न देशी विद्वानों के सतही सोच पर आधारित है। वह उपजी है उनके स्वयं के विचार से। कहने का अभिप्राय है कि इंटरनेट पर हिन्दी में लिखने वाले ब्लाग लेखक बाहर चल रही गतिविधियों और प्रचार पर नज़र रखें। उनमें वैचारिक बदलाव नज़र आ रहा है। यह सच है कि हिन्दी ब्लाग जगत पर आम पाठकों की संख्या कम है पर खास वर्ग उस पर नज़र रखे हुए है क्योंकि एक ही विचार या नारे पर चलते हुए उसको अपना भविष्य अंधकार मय नज़र आ रहा है। दूसरा यह कि ब्लाग जगत से खतरे का आभास उनको है इसलिये वह अब कहीं कहीं यहां से विचार भी ग्रहण करने लगे हैं-इसे हम चोरी नहीं कह सकते-और उनको प्रस्तुत करते हैं। उनका नाम है इसलिये लगता है कि मौलिक हैं जबकि सच यह है कि हिन्दी ब्लाग लेखकों द्वारा आपसी चर्चाओं से उनका जन्म हुआ है। आप कुछ विचारों की बानगी देखिये।
1-इतने वर्षों से यह प्रचार माध्यम विज्ञापन पर चल रहे हैं पर बाजार और उसके प्रबंधकों को दबाव को कभी जाहिर नहीं किया। अब तो वह बहस करते हैं कि बाजार किस तरह तमाम क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है। समाज के साथ ही वह खेलों और फिल्मों में बाजार के हस्तक्षेप की चर्चा करते हैं। लोग यकीन नहीं करेंगे कि पर सच बात यह है कि बाजार के इस रूप पर सबसे पहली चर्चायें हिन्दी ब्लाग जगत पर ही हुईं थी। यहां यह बात नहीं भूलना चाहिये कि इस लेखक को तीन साल अंतर्जाल पर हो गये हैं और अनेक पाठों पर दूसरे ब्लाग लेखकों की बाजार के इस कथित प्रभाव की चर्चा करती हुईं अनेक टिप्पणियां हैं जो इतनी ही पुरानी हैं।
2-गांधीजी पर लिखे गये इस लेखक के पाठों को यहां के ब्लाग लेखकों ने पढ़ा होगा। गांधीजी को नोबल न दिये जाने के विषय पर लिखे गये इस लेखक के विचारों को एक स्तंभकार ने जस का तस अपने लेख में लिखा। सच है उसे आम पाठकों ने अभी कम पढ़ा होगा पर उस स्तंभकार ने लाखों लोगों तक वह बात पहुंचा दी। अखबारों ने इस लेखक के वैचारिक चिंतन बिना नाम के छापे। यहां हम कोई शिकायत नहीं कर रहे बल्कि इंटरनेट लेखकों को बता रहे हैं कि वह अपने अंदर कुंठा न पालें। अगर वह मौलिकता के साथ आयेंगे तो वह वैचारिक शक्ति केंद्र का बिन्दु बनेंगे। आम पाठकों की कम संख्या को लेकर अपने अंदर कुंठा पालना व्यर्थ है।
3-कलकत्ता में एक धर्म के युवक की मौत पर एक वर्ग बावेला मचाता है पर कश्मीर पर दूसरे धर्म के युवक की मौत पर वही खामोश हो जाता है तो दूसरा मचाता है। हम यहां इस विषय पर बहस नहीं कर रहे कि कौन गलत है या कौन सही्! मुख्य बात यह है कि कथित विचारधाराओं ने लोगों को सोच तो प्रदान की है पर एक दायरे के अंदर तक सिमटी है। ऐसे में मुक्त भाव से लिखने वाले हिन्दी लेखक कई ऐसी बातें लिख जाते हैं जिनको स्थापित विद्वान सोच भी नहीं सकता।
अब संगठित प्रचार माध्यम में सक्रिय बुद्धिजीवियों को यह लगने लगा है कि उनकी विचारों की पूंजी बहुत कम है भले ही उनके द्वारा लिखे गये शब्दों की संख्या हिन्दी ब्लाग लेखकों से अधिक है। उनका नाम ज्यादा है पर उनका सोच आजाद नहीं है।
हां, यह सच है कि हम ब्लाग लेखक कुंठित होकर यहां आते हैं पर ब्लाग शुरु करने के बाद उसका नशा सब भुला देता है। जहां तक मठाधीशी का सवाल है तो हर ब्लाग लेखक जैसे ही ब्लाग खोलता है यह पदवी उसके पास स्वयं ही आ जाती है। इंटरनेट पर लिखने वाले लेखकों यह बात समझ लेना चाहिये कि उनका अकेला होना ही उनको स्वतंत्र बनाता है। वह जिन संघर्षों से गुजर रहे हैं वह उनके लिये सोच को विकसित करने वाला है। उनको संगठित प्रचार माध्यमों में गढ़े गये विचारों से आगे जाना है। जैसे जैसे ब्लाग लेखकों की संख्या बढ़ेगी वैसे उनकी सोच का दायरा भी बड़ा होगा। संगठित प्रचार माध्यमों में नाम पाना किसे बुरा लगता है पर दूसरा सच यह है कि वहां नवीन और मौलिक विचार या विद्या को साथ लेकर स्थान पाना कठिन है। ऐसे में ब्लाग जगत पर आकर दायरा बढ़ जाता है। जब तब आम पाठक है स्थापित विद्वान ब्लाग लेखकों के विचारों को ग्रहण कर अपना जाहिर कर सकते हैं पर कालंातर में यह तो जाहिर होना ही है कि उनका जनक कौन है?
जब कोई स्थापित विद्वान यह मान रहा है कि सीमित विचाराधाराओं के इर्दगिर्द प्रचार माध्यम घूमते रहे हैं वह अप्रत्यक्ष रूप से स्वयं को भी जिम्मेदार मान रहा है क्योंकि अभी तक तो वह भी यही करते रहे थे।
हिन्दी ब्लाग जगत पर कुछ गजब के लिखने वाले हैं। यह सही है कि उनमें कुछ लकीर के फकीर है तो कुछ नये ढंग से सोचने वाले भी है। इसमें दिलचस्प बात यह है कि नये ढंग से सोचने वाले अधिक भाषा सौंदर्य से नहीं लिख पाते पर उनकी बातें बहुत प्रभावी होती हैं और वह शायद स्वयं ही नहीं जानते कि ऐसी बात कह रहे हैं जिनको संगठित प्रचार माध्यम जगह नहीं देंगे अलबत्ता कुछ स्थापित विद्वान उनके विचारों को उठा भी सकते हैं। आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? इसका जवाब यह है कि हमारे आसपास घटता बहुत कुछ है पर शाब्दिक अभिव्यक्ति कैसे की जाये यह महत्वपूर्ण बात है। बड़े विद्वान अभिव्यक्ति तो कर सकते हैं पर नवीन विचार के जनक तो हिन्दी ब्लाग लेखक ही बनेंगे। यह बात हमने अपने अनुभव से कही है। ऐसे विचारों को लिखते हुए हम यह कहना नहीं भूलते कि यह जरूरी नहीं कि हम सही हों। हो सकता है हमारा यह अनुमान हो, पर विचारणीय तो है। इतना तय है कि इस ब्लाग जगत पर अनेक लोग तो ऐसे हैं जो पाठ लिखने के साथ ही जोरदार वैचारिक टिप्पणियां भी लिख जाते हैं और भविष्य में उनकी चर्चा भी प्रचार माध्यमों में होगी।
आखिरी बात हम यह भी कह सकते हैं कि अगर विद्वानों ने हिन्दी ब्लाग जगत से विचार नहीं भी लिये होंगे पर यह हो सकता है कि यहां की जानकारी उनको तो हो ही गयी है और इसलिये प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रहे हिन्दी ब्लाग लेखकों को ध्यान में रखते हुए नये ढंग से सोचना शुरू किया हो-मतलब प्रभाव तो है न!
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://dpkraj.blogspot.com
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2 comments:
एक सामयिक पोस्ट
बहुत गम्भीर चिन्तन। हिन्दी के लिये उत्साहवर्धक माहौल बन रहा है। जिस तरह अकेले सरकारी चैनेल के स्थान पर निजी चैनेलों को प्रसारित करने की छूट देने से मिडिया क्षेत्र में हिन्दी का वर्चस्व दिखने लगा; उससे बहुत अधिक सम्भावना हिन्दी चिट्ठाकारी में दबी पड़ी है। मेरा भी मानना है कि हिन्दी ब्लॉगजगत धीरे-धीरे रचनात्मक और मौलिक चिन्तन की तरबढ़ रहा है और यहाँ भी प्रतिभाशाली सोच के धनी लोगों का बसेरा होता जा रहा है।
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