देखते हैं घर की सजावट
दिल का प्यार नहीं देखते,
थाली में सजे व्यंजन पर है नज़र
सांसों की धड़कन में पल रहे
जज़्बात नहीं देखते।
इंसानी बुतों की दिल्लगी में
ढूंढ रहा है पूरा जमाना
कोई ख्वाबी जन्नत
हकीकत के इंसान नहीं देखते।
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अपने दिमाग पर उठाये बोझ
घूम रहे हैं लोग,
पल रहा है तनावों का रोग,
चल रही है दुनियां अपने आप
पर खुद पर टिके होने का अहसास सभी ने पाला।
सिकुड़ गये हैं लोगों के कदम
अपने मतलब की मंजिल तक
उससे आगे लगा है सोच पर ताला।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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