उस दिन एक निजी कार्यालय में जाने का अवसर मिला। वहां कुछ युवक कंप्यूटर पर कार्यरत थे। उनमें एक लड़का शायद अपने कंप्यूटर पर रामायण से संबंधित कोई प्रस्तुति देख रहा था। हमने यह अनुमान कंप्यूटर से आ रही आवाजों से किया। उसके पीछे एक दूसरा लड़का भी खड़ा था। अचानक थोड़ी दूर कुर्सी पर बैठे एक आदमी ने कंप्यूटर पर बैठे लड़के को आवाज दी पर अपनी व्यस्तता के कारण उसने सुना नहीं। तब उस आदमी ने पीछे लड़के से पूछा‘‘यह कंप्यूटर पर क्या देख रहा है?
दूसरे लड़के ने जवाब दिया-’‘रामायण देख रहा है।’’
उस आदमी ने कहा-‘‘अरे, भईया रामायण बाद में देख लेना पहले मेरे हाथ से यह कागज लेकर जाओ।’’
तब कंप्यूटर पर बैठा लड़का उठा और कागज हाथ में लेते हुए बोला-‘‘रामायण देखने में मजा बहुत आता है। चाहे दूसरे कार्यक्रम भले ही देख लो पर इतना मजा किसी में नहीं आता।’’
दूसरे लड़के ने कहा-‘‘हां, वाकई मजा आ रहा है।’’
ऐसी घटनायें कई होती हैं। हम जब रामायण, महाभारत या श्रीमद्भागवत में वर्णित कथाओं का चित्रण देखते हैं तो कहीं न कहीं उनके प्रति रुचिकर भाव अवश्य पैदा होता है। पहले लोक नाट्यों के माध्यम से जहां इनका प्रदर्शन होता था तब भी लोग इनको देखते थे और जब चलचित्र के माध्यम से जब इनकी प्रस्तुति सामने आती है तब भी बहुत प्रभावशाली लगती है। चाहे ग्रामीण हो या शहरी या फिर अनपढ़ हो या पढ़ा लिखा इस तरह की प्रस्तुति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। दरअसल इस तरह हमारे भारतीय दर्शन में ज्ञान का प्रचार इस तरह कथाओं की माध्यम से ही किया गया है। इनके रचनाकारों ने अपने ग्रंथों की सरंचना इस तरह की है कि उनके पात्र हर काल और सभ्यता में लोकप्रिय रहें। इनमें नाट्यविद्या का समावेश तो है पर अध्यात्मिक ज्ञान के मूल तत्वों को प्रतिबिंब भी इनमें किया गया है। यही कारण है कि भले ही रामायण, महाभारत तथा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथ भले ही भारत की वर्तमान शिक्षा पद्धति का भाग नहीं है पर उनके पात्र आज भी लोगों की जुबान पर हैं।
यह स्थिति जहां भारतीय अध्यात्मिक प्रेमियों को सुखद लगती है वहीं आधुनिक रचनाकारों के लिये अत्यंत कष्टकर होती है। वाह चाहें अपने पात्रों को कितना भी जीवंत बनाने का प्रयास करें पर अपनी रचना की वजह से वह बाल्मीकि, वेदव्यास और शुक्राचार्य की श्रेणी में अपना नाम नहीं लिखवा सकते। यही कारण है कि जिन आधुनिक पुरुषों को अपना नाम कालजयी बनाना होता है वह तमाम तरह की नौटंकियां करते हैं। अनेक लोग तो इन ग्रंथो और रचनाकारों के प्रति घृणा का प्रचार भी करते हैं। हालांकि आधुनिक काल में भी मीरा, कबीर, तुलसी, रहीम, तथा सुरदास ने प्रतिष्ठा अर्जित की पर वह प्राचीन परंपरा का विस्तृत रूप ही है। कुछ लोगों को इस भारतीय अध्यात्मिक धारा में बहना असुविधाजनक लगता है इसलिये वह पाश्चात्य धारा का अंधसमर्थन करने लगते हैं। इतना ही नहीं अब तो स्थिति यह है कि अनेक लोगों को पूरी तरह से हिन्दी नहीं आती पर वह हिन्दी भाषियों में लेखक कहलाना चाहते हैं तो वह अंग्रेजी के शब्द शामिल करते हैं। अपनी कमी को हिन्दी में नयी धारा बहाने का प्रयास बताकर छिपाते है।
भारतीय अध्यात्म की शक्ति का अभी तक यह प्रमाण माना जाता था कि यहां आत्महत्या की घटनायें कम ही होती रही थीं। जैसे जैसे पाश्चात्य भाव यहां बढ़ा है वैसे वैसे आत्महत्यायें की घटनायें भी बढ़ रही हैं। दरअसल हमारे यहां साकार तथा निराकार भक्ति को समान महत्व संभवत इसलिये ही दिया गया ताकि जिसको जैसी सुविधा वैसा वह करे। साकार भक्ति के अनेक लाभ हैं। हताशा अथवा तनाव की स्थिति में मूर्ति के सामने आने परं ध्यान बंटता है जिससे मनुष्य को राहत मिल जाती है। मूर्ति में भगवान नहीं होते पर उसमें होने की अनुभूति मनुष्य में आत्मविश्वास पैदा करती हैं यह ज्ञान साधक समझते है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग स्वयं निराकार भक्ति करते हैं पर साकार भक्त का उपहास नहीं उड़ाते। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय अध्यात्म के मूल ग्रंथों से हमारी पूरे विश्व में पहचान इसलिये ही बनी है क्योंकि वह हर तरह सांसरिक विषयों से संबंधित सामग्री अपने अंदर संजोये हुए हैं।
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कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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