Sunday, August 12, 2007

अँधेरे में तीर का तक चलेंगे

अंधेरे में चलाते हैं वह तीर

जहाँ दाल का पानी भी नहीं मिलता

कागजों में बाँट जाती है खीर

गरीबी का इलाज करते हैं

ऐसे शल्य-चिकित्सक

जो नहीं जानते इसकी पीर



आकर्षक योजनाओं का रथ

भ्रष्टाचार के पहियों पर

धीरे-धीरे रेंगता हुआ चलता है

जिसको अवसर मिलता है

वही फुर्ती से कमीशन

लूटकर चलता बनता है

बोरी में बंद गेहूं, दाल और चावल

बिचोलियों के भोजन में

बन जाता है मटन-पनीर

बेरोजगारी का इलाज

वह लोग करते हैं

जो ऊपरी कमाई के कहलाते हैं वीर



प्रतिवेदन में लिखे होते हैं दावे

हजारों बनाम पेट भर जाने के

जाने-पहचाने नाम वाले

मुख होते हैं मोहताज दाने-दाने के

पता नहीं कब तक चलेंगे

इस तरह अंधेरे में तीर

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नारे लगते-लगते विकास के

इस देश में आशाओं और आकांक्षाओं

के दीप जलने लगे हैं

फाइलों में ऊंची विकास दर के

आंकडे अब सितारों की तरह

चमकने लगे हैं

टीवी चैनलों और अखबारों में

विकास की बातें करने वालों के

चेहरे रोज चमकने लगे हैं

पर सड़कों पर पडे गड्ढे

चहुँ और फैले गंदगी के ढ़ेर

और रोजगार के लिए भटकते

हुए युवकों का हुजूम

जो एक कटु सत्य की तरह

सामने खडा है

उससे क्यों डरने लगे हैं

विकास के आंकडे और सच

अलग-अलग क्यों लगने लगे हैं

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