Sunday, March 25, 2018

जनधन लुटकर जमकर लंगर खाये-दीपकबापूवाणी (Jandhan lootakar langar khayen-DeepakBapuWani)

प्रदर्शन में शामिल भेड़ों से मांग पर बोलें, बंद कमरे में अपना मुंह दाम पर खोलें।
‘दीपकबापू’ लोकतंत्र में करें भले का सौदा, चरित्रवान जो छिपाये भ्रष्टाचार की पोलें।।
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जनधन लुटकर जमकर लंगर खाये, दरबार से निकले फिर भी जी ललचाये।
‘दीपकबापू’ फोकट खाने की आदत वाले, यहां से छूटे वहां खाकर गरियाये।।
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बेकार बहुत चाहे जहां भीड़ लगा लो, हमदर्दी बेचना है चाहे जहां पीर जगा दो।
‘दीपकबापू’ भूखा देव जैसे पूजें, दरबार में दूध गलियों में तेल की खीर लगा दो।।
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सामने खड़ी सूरतें भी अब अनजान हो गयीं, रोज दिखती मूरतों की भी शान खो गयीं।
‘दीपकबापू’ आंखों में न दिखा जवानी बुढ़ापा, नज़र और सोच जरूर बेजान हो गयीं।।
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तख्तनशीनो को सदा अपनों से रहे खतरे, बचे वही जिन्होंने साथियों के पर कतरे।
‘दीपकबापू’ चलते मर्जी से स्वतंत्र राह, वह राजयज्ञ में नहीं बनते किसी के बकरे।।
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महंगे मंच से बोले हर शब्द पर बजे ताली, चमके वक्ता चाहे वाक्य हो अर्थ से खाली।
‘दीपकबापू’ पुरानी किताबों का ज्ञान अपना जतायें, पौद्ये फूल जन्मते दावा करे माली।।
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भ्रष्टाचार के पीछे हर कोई लट्ठ लेकर पड़ा है, जोर से नारा लगाता वही जो भ्रष्ट बड़ा है।
‘दीपकबापू’ चाहकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते, उनके घरद्वार बंदूक का पहरा जो खड़ा है।।
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अपनी नाकामी के बहुत बनाते बहाने, कुंठित बुद्धि के स्वामी देते सभी को ताने।
‘दीपकबापू’ भलाई के ठेके लेते महंगे दामों में, सर्वशक्तिमान के नाम लेकर गाते गाने।।
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Sunday, March 11, 2018

पत्थरों के टूटने पर क्यों रोते हो-दीपकबापूवाणी-(Pattharon ki tootne par kyon rote ho-DeepakBapuWani)

लोभ लालच के मन में बोते बीज,
देह बना रहे राजरोग की मरीज।
कहें दीपकबापू सोच बना ली राख,
तब चिंता निवारण पर मत खीज।
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सोना चमके पर अनाज नहीं है।
सुर लगे बेसुर क्योंकि साज नहीं है।
कहें दीपकबापू महल तो रौशन
राजा भी दिखे पर राज नहीं है।
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खबर से पहले घटना तय होती,
विज्ञापन से बहस में लय होती।
कहें दीपकबापू फिक्स हर खेल
जज़्बात से सजी हर शय होती।
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पत्थरों के टूटने पर क्यों रोते हो,
 दृष्टिदोष मन में क्यो बोते हो।
कहें दीपकबापू नश्वर संसार में
विध्वंस पर आपा क्यों खोते हो।।
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बेरहमों ने बहुत कमा लिया,
बंदरों के हाथ उस्तरा थमा दिया।
कहें दीपकबापू मत बन हमदर्द
दर्द ने अपना बाजार ज़मा लिया।
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तन मन की हवस एक समान,
लालच के जाल में फंसा हर इंसान।
कहें दीपकबापू धर्म कर्म से जो रहित,
सौदागर देते सस्ते ग्राहक का मान।
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एक दूसरे में लोग ढूंढते कमी।
आपस में नही किसी की जमी।
कहें दीपकबापू दर्द बंटता है तभी
जब कहीं शादी हो या गमी।
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