आज पूरे देश में मातृदिवस मनाया गया।
पूंजीपतियों, प्रचारक प्रबंधकों और पश्चिमी पोथीपंथियों के
लिये विदेशी संस्कृति के परिचायक ऐसे दिवस उनकी सुविधा के अनुसार उपयोगी होते
हैं। भारतीय पर्वों के लिये एक पंरपरागत
समूह है जो बाज़ार, प्रचार और विचार विमर्श के लिये सदैव उपस्थित
रहता है अतः उसके लिये कोई विशेष प्रयास नहीं करने होते पर प्राचीनता से अघाये
लोगों को नवीनता देने तथा उसे अपने पास आमंत्रित करने के लिये बाज़ार, प्रचार तथा बौद्धिक प्रबंधकों को ऐसे पश्चिमी पर्व अत्यंत सुविधाजनक लगते
हैं। बाज़ार को ग्राहक, प्रचार को वाहक और बुद्धिमानों को सहायक मिलते
हैं जिससे उनको लाभ होंता है। यही कारण है कि मातृ, पितृ, मित्र और प्रेम दिवस मनाये जाते हैं।
आधुनिक बाज़ार की बात क्या करें, प्राचीन भारतीय धार्मिक पंरपरा के रक्षक संगठन भी इन्हें भारतीय संदर्भ
में मनाते हैं ताकि उनके शिष्य समुदाय आधुनिक समाज में भी बने रहें। मगर हम यहां इस पर चर्चा करने की बज़ाय ऐसा विषय
उठाने जा रहे हैं जिसे किसी ने नहीं उठाया है।
बात मातृदिवस से ही जुड़ी है और जो समाजसेवी महिला उद्धार के लिये जमीन
आसमान एक किये हुए हैं उन्हें परेशान करने वाली हो सकती है। यह अलग बात है कि मां का गुणगान करने में वह भी
पीछे नहीं है। वह महिलाओं को संविधान में विशेष अधिकार देने के लिये अभियान चलाये रहते
हैं पर कभी मां के अधिकारों को संवैधानिक दर्जा देने की मांग नहीं करते।
आगे की बात करने से पहले आज का एक किस्सा ही
बयान कर लें। एक युवक अपने गांव की ही एक युवती को लेकर शहर चला गया और उससे प्रेम
विवाह कर लिया। डेढ़ वर्ष बाद घर लौटा तो
लड़की के परिवार वालों ने उसे तथा दो भाईयों समेत कुल्हाड़ियों से मार दिया। इसमें
लड़की का भाई भी बुरी तरह घायल हुआ। इस तरह
दो मातायें अपने औलादों की वजह से उस संकट
में फंस गयी जिसमें उनकी कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई भूमिका नहीं थी। दरअसल
बालिगों को विवाह की कानूनी अनुमति है और कोई मां अपनी औलाद को रोक नहीं
सकती। वैसे तो हर मां अपनी औलाद का घर बसते
देखना चाहती है पर जब जाति, धर्म या अपने समूह से बाहर कोई प्रेमी जोड़ा
विवाह करता है तो पूरा समाज आंदोलित हो उठता है तब पुरुष प्रधान समाज होने के कारण दोष मां पर ही
डाला जाता है। उस समय नारी के लिये अपने
बचाव में कहने के लिये कुछ नहीं रह जाता। नारी स्वतंत्रता के समर्थक उसे एक इकाई
के रूप में मानते हुए उसके लिये संघर्षरत तो रहते हैं पर जहां, मां, बेटी, सास, ननद या किसी अन्य रिश्ते में उसके महत्व पर विचार नहीं करते। एक नारी जो
अपने बच्चे को जन्म देती है, उसे निष्काम भाव से पालती है वही उसके विवाह
का सपना भी बुनती है तब क्या उसे अपने बच्चे की विवाह में कानूनी अनुमति से वंचित
करना उचित है? खासतौर से जब हम देखते हैं कि विवादास्पद
विवाहों में सबसे अधिक प्रताड़ित मां ही होती है।
वैसे तो विवाह सामाजिक बंधन है और जिन्हें
असामाजिक बनना है उन्हें इस तरह की परंपरा अपनानी ही नहीं चाहिये पर कानूनी
सुरक्षा के लिये युगल प्रेमी विवाह कर ही लेते हैं। अंततः स्वयं को सामाजिक बनाये
रखने के लिये विवाह नाम की उस पंरपरा का सहारा लेना ही पड़ता है जो मनुष्य समाजों
ने ही बनायी है। अनेक मातायें अंतर्समाजीय विवाह को अनचाहे स्वीकार कर भी
लेती है पर कहीं न कहीं उनके मन में यह कुंठा होती है कि स्वयं की औलाद ने उनकी
अवहेलना की है। हमारा मानना है कि कानूनी
या धार्मिक संस्थाओं में मां की उपस्थिति अनिवार्य की जानी चाहिये। सामाजिक रूप से
आयोजित विवाह में मां तो वैसे ही उपस्थित रहती है पर जहां प्रेम विवाह को कानूनी
जामा पहनाना हो वहां गवाह के रूप में मां की उपस्थिति अनिवार्य की जानी
चाहिये। हमें आशा है कथित नारी उद्धारक इस पर विचार करेंगे
क्योंकि हमने यहां पिता के लिये कोई बात नहीं की। वैसे भी नारी उद्धारकों के लिये
हर पुरुष मूल रूप से दैत्य ही होता है जो
देवता बनने का अक्सर पाखंड करता है। यह अलग बात है कि ऐसी सोच नारी समर्थक
पुरुष भी रखते हैं। वैसे हमारा तो मानना है कि समाज का उद्धार उसे वर्ग में बांटने
से हो नहीं सकता पर नारीवादियों के लिये हमने मां को विशेषाधिकार मांगने का सुझाव
इसलिये दिया ताकि नारियां ही सुरक्षित रह सकें। हालांकि हमारा मानना है कि यह
सुझाव दूर तक नहीं जायेगा क्योंकि अपने पाठक इतने नहीं है और गाहे बगाहे पहुंच भी
गया तो नारीवादी नाकभौं सिकोड़ लेंगे।
लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
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