मधुरता से मिठास मिलना भी जरूरी है, रस भरी छाप में स्वादा भी जरूरी है।
‘दीपकबापू’ शब्दालंकार से सजाते रोज नये नारे, अर्थ से जिनकी बहुत दूरी है।।
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सब अपने दर्द पर भीड़ में रोते हैं, फैला रहे कू्रड़ा बाहर घर ही अपना धोते हैं।
‘दीपकबापू’ आमंत्रण भेजते रोगों को, किताबों में लिखी दवायें बेबसी में ढोते हैं।।
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प्रचार के दलाल गरीब नाम से पले, नारियों की बेबसी से महंगे विज्ञापन चले।
‘दीपकबापू’ थाली में खाकर ढेर छेद करें, अयोग्यता छिपाते बनते सबसे भले।।
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अपनी पुरानी सोच पर सब अड़े हैं, पुराने बुतों की यादें ल्रेकर खड़े हैं।
‘दीपकबापू’ अंग्रेजी पढ़े नये गंवार, पुरानी सभ्यता की नयी जंग लड़े हैं।।
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लोहे पर रंग चढ़ना ही विकास नाम, मनुष्य का अब भाव से नहीं रहा काम।
‘दीपकबापू’ शेर छवि पर चाल भेड़ जैसी, मकान खाली पड़े सड़क पर है जाम।।
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