गैर की तरक्की से जलते हैं
वही तबाही से हाथ मलते हैं।
‘दीपकबापू’ अपने चिराग जलायें
वरना घर में अंधेरे पलते हैं।
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जोगी भी राजपद पर चढ़ गये,
जोगसिद्धि के मद में गड़़ गये।
‘दीपकबापू’ जंगल के आजाद शेर
चिड़ियाघर के पिंजरे में मढ़ गये।।
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ऋषि ज्ञान रंग से कांति लाते,
राजा बड़ी जंग से शांति लाते।
‘दीपकबापू’ ज्ञान के नाम पाखंडी
बाज़ार में नारे सपने की भांति सजाते।।
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किस्सों में नमक मिर्ची लगा देते,
इंसानी दिल में आग जगा देते।
‘दीपकबापू’ जज़्बातों के सौदागर
लालच के पीछे ज़माना भगा देते।
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मर्म में विचार मंद बहे जाते हैं,
अर्थ बड़े पर शब्द चंद कहे जाते हैं।
‘दीपकबापू’ संवादहीन हुआ ज़माना
लोग दिल में दर्द बंद सहे जाते हैं।
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