Friday, September 28, 2012

देश की खुशहाली के लिए वेदों के मन्त्रों का जाप करें-हिंदी चिंत्तन (desh ki khushahli ke liye vedmantron kaa jaap karen-hindi chittan)

       आज भारत में चल हिन्दी टीवी चैनलों पर चल रहे कार्यक्रमों को देखा जाये तो लगेगा कि हमारे देश में केवल युवाओं की  इश्क बाज़ी, क्रिकेट, फिल्म और तथा प्रशासनिक घोटालों के अलावा अन्य कोई विषय नहीं है। सबसे बड़ी बात तो यह मान ली गई लगती है कि आम आदमी की कोई स्वयं  की  सोच नहीं है। उसकी कोई  आवाज़ नहीं है। प्रचार और समाज सेवा से जुड़े लोग चाहे जैसे अपने हिसाब से आम आदमी की अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते दिखते हैं।  देश एक तरह से दो भागों में बाँट गया है। एक तरफ है इंडिया तो दूसरी तरफ हैं भारत।
    इंडिया का मुख बाहर की तरफ है तो भारत का रूप विश्व परिदृश्य से अज्ञात दिखता है। इस इंडिया में  देश के आठ दस बड़े शहर हैं जो विश्व बिरादरी से जुड़े हैं और यहीं के सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक तथा धार्मिक शिखर पर विराजमान लोग और उनके  पालित विद्वान बुद्धिजीवी जैसा देश का रूप दिखा रहे हैं वैसा ही सभी देख रहे हैं।  इतना ही नहीं देश के अंदर भी यही लोग भाग्य विधाता बना गए हैं।  यह सब बुरा नहीं होता अगर स्वार्थवाश कार्य करने वाले इन लोगों  की बुद्धि संकुचित और शारीरिक क्षमता सीमित नहीं होती।  एक बात निश्चित है कि स्वार्थ मनुष्य को संकीर्ण और सीमित क्षमता वाला बना देता हैं इसलिए  इन शिखर  पुरुषों से यह अपेक्षा तो करनी ही नहीं चाहिए कि वह अपने दृष्टिकोण  यह u को कभी व्यापक रखकर काम करें क्योंकि उन्होंने हमेशा ही दायरों में रहकर जीवन बिताया है।  यह इनके  लिए संभव ही नहीं है।  कहा जाता है जो  देह के पास हैं वही दिल के पास है।  बड़े शहरों में यही शिखर पुरुष और इनके पालित बुद्धिमान रहते हैं।  इनके पास सारी सुविधाएँ हैं जो इन्होने सारे देश से कमाई हैं मगर अपने पास स्थापित वैभव के इनको कुछ नहीं दिखता।  यह सब भी स्वीकार्य होता  अगर पूरे देश को प्रभैत करने का माद्दा इनके पास नहीं होता।
        इन्हीं शिखर पुरुषों के पास देश का  भविष्य और व्यवस्था को प्रभावित करने वाली शक्ति  है जिसका उपयोग  यह अपने पालित बुद्धिजीवियों कि राय से तय करते हैं।  यह दोनों मिलकर एक दुसरे के हितों की चिंता के अलावा कुछ नहीं करते।  इनका  दावा यह कि यह आम आदमी को जानते हैं। दूर की बात क्या  बड़ी इमारतों में रहने वाले इन लोगों को अपने ही बड़े शहरों के छोटे लोगों का ज्ञान नहीं है।  समाज, कला, अर्थ, धर्म   और प्रबंध के क्षेत्र में कार्यरत लोग आमजन निराश है। देश में जो निराशा और हताशा का वातावरण हैं उसके लिए जिम्मेदार कौन है? इस पर कोई विचार कोई नहीं करता ।
        सच बात तो यह कि इसके लिए हमारे देश  के वही आमजन जिम्मेदार  हैं जो हमेशा  ही इन शक्तिशाली, वैभवशाली और ऊंची जगहों पर बैठे लोगों की तरफ मूंह किए बैठे रहते हैं, जिससे इनको अपनी विशिष्टता का बोध होता है जिससे  यह उदार होने की बजाय आत्ममुग्ध हो जाते हैं।  आमजन उनमें अपने वैभव का अहंकार भरते हैं। यही कारण  है की   दौलत, शौहरत  और ताकत में मदांध यह लोग अपने कार्यों सामान्य  कार्यों में भी विशिष्टता की अनुभूति  कराना  नहीं भूलते।  सच बात तो यह है देश भगवान भरोसे चल रहा है। अगर इसी तरह चलता रहा तो आगे हालात  और कठिन होने वाले हैं।  फिर भी हम मानते हैं हमारी  भूमि देव भूमि है और वही इसकी रक्षा करते हैं।  उनमें वह शक्ति  है जो इस अपनी भूमि की रक्षा के लिए अदृश्य रहकर भी काम करते  हैं और समय आने पर किसी की बुद्धि और ताकत कम या ज्यादा  आकर अंतत: हमारी रक्षा करेंगे।  वेदों में इस तरह की ऐसी अनेक प्रार्थनाएँ हैं उनमें से रोज एक जपना चाहिए।  हमारा मानना है उससे लाभ अपने को तो होगा ही पूरे समाज को भी होगा। अब यह नहीं सोचना चाहिए कि इससे  तो उन लोगों को भी लाभ होगा जो प्रार्थना नहीं करते।  हम जब शिखर पुरुषों और उनके पालित बुद्धिजीवियों पर संकीर्ण होने का संदेह करते हैं तब अपने व्यापक दृष्टिकोण अपनाकर उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। जय श्री राम, जय श्री कृष्ण, जय श्री शिव शंकर,हरिओम।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
witer ane poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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Saturday, September 15, 2012

एक फिल्म किसी विचाराधारा को नष्ट नहीं कर सकती-हिन्दी लेख (on film not distroyed ane religion thought)


           एक सामान्य योग साधक तथा गीता पाठक होने के नाते इस लेखक का मानना है कि हर मनुष्य के लिये धर्म एक निजी विषय है।  यह धर्म उच्च आचरण का प्रतीक होने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान से जुड़ा होना चाहिए।  इतना ही नहीं एक  अध्यात्मिक ज्ञानी कभी अपने ज्ञान या इष्ट को लेकर सार्वजनिक चर्चा नहीं करेगा यह भी इस लेखक का मानना है।  ऐसे में जब कुछ अल्पज्ञानी या अज्ञानी जब अपने धार्मिक विषय को सार्वजनिक बनाते हैं तो यह उनके अहंकार का ही प्रमाण होता है।  सार्वजनिक रूप से अपनी बात कहने पर उसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया सहने की क्षमता उनमें नहीं होती।  अज्ञानी तथा अल्पज्ञानी स्वयं को श्रेष्ठ  धार्मिक व्यक्त्तिव का स्वामी  बताने के चक्कर में एक दूसरे पर पर आक्षेप करते हैं।  अगर सामने वाला भी उस जैसा हुआ तो फिर झगड़ा बढ़ता है।  श्रीमद्भागवत गीता साधक के लिये दोनों ही एक जैसे होते है-अहंकारी, अज्ञानी और अन्मयस्क।
       आधुनिक विश्व में कभी  अनेक ऐसे प्रसंग आते हैं जब कार्टून, लेखक, और भाषणों को लेकर अनेक धर्मभीरु लोग इसलिये उत्तेजित होते हैं क्योंकि उसमें उनके इष्ट और विचारधारा पर कटाक्ष किये होते हैं।  उस समय समर्थन और विरोध के शोर के बीच ज्ञानियों के सच पर कोई विचार नहीं करता। अपनी जीत और श्रेष्ठता प्रमाणित करने का यह दंभपूर्ण प्रयास विश्व समाज में तात्कालिक  रूप से अस्थिरता पैदा करता है।  अभी हाल ही में एक फिल्म को लेकर अमेरिका के विरुद्ध पूरे विश्व में वातावरण बन रहा है।  यह फिल्म एक धार्मिक विचाराधारा पर प्रहार करती है। तय बात है कि फिल्म निर्माण से जुड़े लोग कोई तत्वज्ञानी नहीं है इसलिये ही तो उन्होंने दूसरे की धार्मिक विचाराधारा पर प्रहार कर अपनी आसुरी प्रवृत्ति का परिचय दिया है।  अब इस विवाद में बौद्धिक समुदाय दो भागों में बंट गया हैं। एक तो लोगों की आस्थाओं को ठेस पहुंचाने पर आर्तनाद कर हिंसा कर रहा है तो दूसरा अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई दे रहा है। 
     हमारा मानना है कि ऐसी फिल्म नहीं बनना चाहिये थी यह बात ठीक है पर जिस तरह इसका विरोध हो रहा है वह भी संशय से भरा है।  अगर इस फिल्म का विरोध नहीं होता तो दुनियां के कई देशों में अनेक लोग  उसका नाम तक नहीं जान पाते।  भारतीय अध्यात्म दर्शन ऐसे विषयों में उपेक्षासन की बात कहता है।  अगर कथित धर्मभीरु लोग ज्ञान की शरण लें तो उन पर ऐसी फिल्मों या कार्टूनों का कोई प्रभाव नहीं होता। वैसे हमारा मानना है कि पूरे विश्व में अर्थव्यवस्था जिस जटिल दौर से गुजर रही है सभी विचाराधारा के लोगों के लिये रोजी रोटी कमाना ही कठिन हो गया है।  उनके लिये इस बात के लिये यह जानने का समय नहीं है कि कौन उनकी धार्मिक विचाराधारा पर क्या कह रहा है? मगर धर्म के ठेकेदारों को अपने समूहों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिये ऐसे ही विवादास्पद विषय चाहिए।  फिल्म वालों को प्रचार चाहिए ताकि अधिक से अधिक दर्शक मिलें।  इसके लिये अनेक फिल्म वाले धन भी खर्च करते हैं।  संभव है कि कुछ धार्मिक ठेकेदारों ने  उनसे विरोध फिक्स किया हो।  खालीपीली प्रदर्शन से काम न चले इसलिये हिंसा भी कराई गयी हो।  इसका संदेह इसलिये उठेगा क्योंकि एक फिल्म या कार्टून से किसी पुरानी विचाराधारा का कुछ बिगड़ सकता है यह बात यकीन लायक नहीं है।  आस्था पर चोट का सवाल उठाता है तो फिर ज्ञान और अज्ञान की बात भी सामने आयेगी।  किसी भी समुदाय में सभी ज्ञानी हैं यह सोचना गलत है तो सभी अज्ञानी है यह मानना भी महान मूर्खता है। हम यह नहीं कहते कि यह सब प्रायोजित है पर जिस तरह मानव समुदायों को विभिन्न भागों के बांटकर उन पर पेशेवराना अंदाज में नियंत्रण करने की प्रवृत्ति आधुनिक समय में देखी जाती है  उसके चलते कुछ भी अनुमान किया जा सकता है।
            दूसरा भी एक पक्ष है। अगर हम अज्ञानता वश अपने मुख से अपने धर्म या इष्ट का बखान सार्वजनिक रूप से करते हैं तो संभव है कि ज्ञानी कुछ न कहें पर अपने जैसा अज्ञानी सामने आयेगा तो वह दस बातें कहेगा।  सार्वजनिक रूप से अपने इष्ट या विचारधारा की प्रशंसा करने पर उसकी निंदा सुनने को भी तैयार रहना चाहिए।  ऐसे में वाद विवाद से तनाव बढ़ता है।  ऐसे में एक ज्ञानी का मौन रहना बेहतर है।  ज्ञानी लोग अगर कोई जिज्ञासु मनुष्य उनके ज्ञान के बारे में जानना चाहे तो उसे अपने ज्ञान और अभ्यास के बारे में बतायें।  इतना ही नहीं अगर वह कोई प्रश्न पूछता है तो उसका जवाब दे।  जिज्ञासु से अपनी विचारा कहे पर दूसरे के ज्ञान या विचारधारा पर आक्षेप न करे।  दूसरे की निंदा या उस आक्षेप करने वाले कभी समाज में लोकप्रिय नहीं होते।  फिल्म  बनाकर या कार्टून बनाकर क्षणिक प्रतिष्ठा भले ही मिल जाये पर कालांतर में वह कष्टदायक होता है।  वैसे देखा जाये तो ज्ञानी हर समाज में हैं।  अगर ऐसा नहीं होता यह संसार अनेक बार अपनी ही आग से नष्ट हो चुका होता।  इसका मतलब यह है कि हर समुदाय का आम आदमी अपना निजी जीवन शांति से जीना चाहता है।  यही कारण है कि चंद स्थानों पर कुछ दिन ऐसे विषयों पर प्रायोजित हाहाकार बचने के बाद स्थिति सामान्य हो जाती है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
witer ane poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior, madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Saturday, September 1, 2012

हिंदी दिवस पर लेख-यथार्थवाद के बाज़ार को फैसबुक से चुनौती (hindi diwas par lekh-yatharthawad ke bazar ko facebbok ki chunauti-article on hindi divas )

       हमारे देश में यथार्थवादी लेखकों तथा बुद्धिजीवियों को अनेक राजकीय सम्मान मिले हैं।  यह लेखक और बुद्धिजीवी स्वयं को समाज का बहुत बड़ा झंडाबरदार समझते रहे हैं।  स्थिति यह रही है कि इनके समर्थक इन्हें समाज का सच सामने लाने वाला ऐसा महान आदमी मानते हैं जो अगर पैदा नहीं होता तो शायद लोग अंधेरे में जीते। इन यथार्थवादियों को हिन्दी के प्रकाशन तथा प्रचार संगठनों का बहुत समर्थन मिला है। स्थिति यह रही है कि इनके यथार्थवाद ने समाज में कोई सुधार तो नहीं ला सका अलबत्ता इनकी सामग्री का प्रचार प्रसार होने पर अंतर्राष्ट्रीय पटल पर  देश की छवि हमेशा खराब ही रही।  इनको सांगठनिक प्रकाशन तथा प्रचार मिलने  से   समाज में अध्यात्म तथा साहित्यक क्षेत्र में निष्पक्ष लेखकों को कभी आगे बढ़ने का अवसर नहीं मिला।
   इस यथार्थवाद में जिस कचड़े को प्रस्तुत किया जाता है दरअसल वह हमारे समाज में पहले से दिखता है।  समाज के कुछ सदस्य इसे भोगते हैं तो कुछ उनके हमदर्द बनकर सहारा भी देते हैं।  इन दोनों के लिये यथार्थवादी एक कल्पित क्रांतिकारी होता है।  एक अभिनेता ने अभी हाल में टीवी चैनल पर समाज के अनेक यथार्थों को प्रस्तुत किया तो वह लोकप्रिय हो गया।  सच बात तो यह है कि उसकी प्रस्तुति को आमजन में अधिक महत्व नहीं दिया क्योंकि समाज में वह सब पहले से ही देख रहा है।  समाज की अनेक दुखांत घटनाओं के समाचार भी हम देख रहे हैं।  यह अलग बात है कि हमारे प्रचार और प्रकाशन प्रबंधक मानते हैं कि भारतीय समाज सोया हुआ है और यथार्थ का चित्रण एक महत्वपूर्ण प्रयास है।

           चाहे छोटे पर्दे का हो या बड़े पर्दे का अभिनेता  वह बाज़ार और प्रचार समूहों का एक ऐसा बुत होता है जो आमजन को मनोरंजन में इस तरह व्यस्त  रखने में सहायक होता है जिसका  उसका दिमाग कहीं गरीब और अमीर के बीच बढ़ते तनाव के विचलित न हो और देश बदलाव से दूर रहे।  इस यथार्थ में भले ही दोष आर्थिक, धाार्मिक, सामाजिक तथा राजनीति क्षेत्र के शिखर पुरुषों का हो पर उसके लिये समाज को दायी माना जाये। यह काम पहले लेखक करते थे अब अभिनेता भी करने लगे।  छोटे और बड़े पर्दे पर अभिनेता तथा अभिनेत्रियों का राज है और बाज़ार तथा प्रकाशन से जुड़े व्यवसायी उनका चेहरे के साथ नाम अपनी सामग्री बेचने के लिये उसी तरह कर रहे हैं जैसे कि पहले बुद्धिजीवियों के लिये सेमीनारों का आयोजन तथा लेखकों की किताबें प्रकाशित करते थे।
बहरहाल इन्हीं यथार्थवादियों के लिये अब फेसबुक एक चुनौती पेश कर रहा है। यहां अनेक लोग समाज का चित्र अपने कैमरे से कैद कर इस मंच पर प्रस्तुत कर रहे हैं। वह चित्र डराते हैं, हंसाते हैं और दिल को गुदगुदाते हैं।  उस दिन एक चित्र देखा उसमें एक गिलहरी प्लास्टिक की डंडी के सहारे ठंडेपेय की एक खाली बोतल में बची सामग्री अपने मुंह में खींचने की कोशिश कर रही थी। वैसे भी गिलहरियों की अदायें अनेक बार रोचक होती हैं। प्राकृतिक प्रेमियों के लिये उसकी चाल भी बड़ी रुचिकर होती है। 
      एक चित्र में दो बच्चों का चित्रण देखा जिसमें बड़ा बच्चा कचड़े से खाना उठाकर अपनी गोदी में बैठे बच्चे को खिला रहा था। हृदय को चुभोने वाला दृश्य यथार्थवादियों के ढेर सारे शब्दों या फिल्मों से अधिक प्रभावी था।   ऐसे बहुत चित्र देखने को मिलते हैं जिनकी प्रस्तृति लंबी खींचने या उन पर शब्दों का अपव्यय करना बेकार लगता है।  वह चित्र बहुत बड़ी कहानी कह देता है। हम जैसे आम लेखकों के लिये ब्लॉग और फेसबुक पर अधिक समर्थन नहीं होता न ही समाज में प्रचार मिलता है। इसका कारण यह है कि बाज़ार, प्रचार तथा प्रकाशन समूहों के शिखर पुरुष और उनके प्रबंधक अंतर्जाल  पर केवल प्रचारित लोगों की उपस्थिति ही दिखाते हैं।  
         आम लेखक का प्रचार करना इन  समाज पर कब्जा जमाये अपने संगठनों से प्रतिबद्ध लेखकों तथा बुद्धिजीवियों के लिये चुनौती पेश करने में उनको डर लगता है।  इसके बावजूद यह सच है कि फेसबुक ने इन सभी को चुनौती दी है।  इनके पेशेवर बुद्धिजीवियों और लेखकों से आज की पीढ़ी कट गयी है।
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लेखक एंव कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर, मध्यप्रदेश
Writer and poet-Deepak raj kureja "Bharatdeep"
Gwalior' Madhya Pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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