Wednesday, October 3, 2007

संत कबीर वाणी: साधू वह जो समदर्शी हो

जौन चाल संसार के जौ साधू को नाहिं
डिंभ चाल करनी करे, साधू कहो मत ताहिं
संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि जो आचरण संसार का वह साधू का हो नहीं सकता। जो अपने आचरण और करनी का दंभ रखता है उसको साधू मत कहो।
सोई आवै भाव ले, कोइ अभाव लै आव
साधू दौऊँ को पोषते, भाव न गिनै अभाव
कोई भाव लेकर आता है और कोई अभाव लेकर आता है। साधू दोनों का पोषण करते हैं, वह न किसी के प्रेम पर आसक्त होते हैं और न किसी के अभाव देखकर उससे विरक्ति दिखाते हैं।

चाणक्य नीति:ज्ञानी को लोभी और राजा को सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए

  1. साहसी मनुष्य को अपने पराक्रम का पुरस्कार अवश्य मिलता है। सिंह की गुफा में जाने वाले को संभव है काले रंग का मोती गजमुक्ता मिल जाये परंतु जो मनुष्य गीदड़ की मांद में जायेगा तो उसे गाय की पुँछ और गधे के चमडे के अलावा और क्या मिल सकता है।
  2. धन का लोभ करने वाला ज्ञानी असंतुष्ट रहते हुए अपने धर्म का पालन नहीं कर पाता, इसलिए उसका गौरव शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। उसी तरह राजा भी सन्तुष्ट होते ही नष्ट हो जाता है क्योंकि वह अपने राज्य के प्रति सन्तुष्ट होने के कारण महत्त्वान्काक्षा से रहित सुस्त हो जाता और शत्रु उसे घेर लेता है।
  3. उनका जीवन व्यर्थ है जिन्होंने कभी अपने हाथों से दान नहीं किया, कभी अपने कानों से वैद नहीं सुना, अपने आँखों से सज्जन पुरुषों(साधू-संतों) के दर्शन नहीं किये, जिन्होंने कभी तीर्थयात्रा नहीं की जो अन्याय से प्राप्त किये धन से अपना भरण-भोषण करते हैं, घमंड से जिनका सिर हमेशा ऊंचा रहा।

Tuesday, October 2, 2007

रहीम के दोहे:मागने से पद छोटा हो जाता है

धनि रहीम जल पंक को लघु जिय पिअत अघाय
उदधि बढ़ाई कौन है जगत पिआसो
जाय संत रहीम जल के महत्व का बखान करते हुए कहते हैं कि कीचड का जल भी धन्य है जहाँ छोटे प्राणी उसे पीकर तृप्त हो जाते हैं परंतु सागर की बढ़ाई कोई नहीं करता क्योंकि उसके तट पर जाकर संपूर्ण संसार प्यासा लौटकर आता है।

मांगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बढ़ि काम
तीन पैग बसुधा करो, तऊ बावनै नाम

यहाँ आशय यह है कि याचना कराने से पद कम हो जाता है चाहे कितना ही बड़ा कार्य करें। राजा बलि से तीन पग में संपूर्ण पृथ्वी मांगने के कारण भगवान् को बावन अंगुल का रूप धारण करना पडा।

कबीर वाणी:उसी धन का संचय करो जो आगे काम आये


'कबीर' मन फूल्या फिरै,करता हूँ मैं प्रेम
कोटि क्रम सिरि ते चल्या, चेत न देखै भ्रम
संत शिरोमणि कबीर कहते हैं कि आदमी का मन फूला नहीं समाता यह सोचकर कि'मैं धर्म करता हूँ , धर्म चलता हूँ' पर उसे चेतना नहीं है कि अपने इस भ्रम को देख ले कि धर्म कहाँ है जबकि कर्मों का बोझ उठाएँ चला जा रहा है।
'कबीर' सो धन संचिये, जो आगै कू होइ
सीस चढाये पोटली, ले जात न देख्या कोइ
उसी धन का संचय करो, जो आगे काम आए, तुम्हारे इस धन में क्या रखा है। गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आज तक ले जाते नहीं देखा।

चाणक्य नीति:क्रोध उतना ही करें जितना निभा सकें

  1. जिसके प्रति लगाव(सच्चा प्यार) वह दूर होते हुए भी पास रहता है। इसके विपरीत जिसके प्रति लगाव नहीं है वह प्राणी समीप होते हुए भी दूर रहता है। मन का लगाव न होने पर आत्मीयता बन ही नहीं पाती और किसी प्रकार का संबंध बन ही नहीं पाता।
  2. जिस किसी प्राणी से मनुष्य को किसी भी प्रकार के लाभ मिलने की आशा है उससे सदैव और प्रिय व्यवहार करना चाहिए। मृग का शिकार करने की इच्छा रखने वाला चालाक शिकारी उसे मोहित करने के लिए उसके पास रहकर मधुर स्वर में गीत गाता रहता है।
  3. विद्वान व्यक्ति वही है जो अपने व्यक्तित्व के अनुकूल ऎसी बात करता हो जो प्रसंग के भी अनुकूल हो। अच्छी से अच्छी बात अप्रान्सगिक होकर प्रभावहीन हो जाती है। यदि वह बात अप्रिय हो और उसमें क्रोध की अभिव्यक्ति आवश्यक हो तो वह भी उतना ही प्रदर्शित करना चाहिए जितना निभा सकें।

Saturday, September 29, 2007

गरीबों के नाम बहुत दर्शन थोड़े-हास्य व्यंग्य

एक टीवी चैनल पार प्याज के बढती कीमतों पर लोगों के इन्टरव्यू आ रहे थे, और चूंकि उसमें सारा फोकस मुंबई और दिल्ली पर था इसलिये वहाँ के उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों से बातचीत की जा रही थी। प्याज की बढती कीमतें देश के लोगों के लिए और खास तौर से अति गरीब वर्ग के लिए चिंता और परेशानी का विषय है इसमें कोई संदेह नहीं है पर जिस तरह उसका रोना उसके ऊंचे वर्ग के लोग रोते हैं वह थोडा अव्यवाहारिक और कृत्रिम लगता है। उच्च और मध्यम वर्ग के लोग यही कह रहे थे कि'प्याज जो पहले आठ से दस रूपये किलो मिल रहा था वह अब पच्चीस रूपये होगा। इसे देश का गरीब आदमी जिसका रोटी का जुगाड़ तो बड़ी मुशिकल से होता है और वह बिचारा प्याज से रोटी खाकर गुजारा करता है, उसका काम कैसे चलेगा'?

अब सवाल है कि क्या वह लोग प्याज की कीमतों के बढने से इसलिये परेशान है कि इससे गरीब सहन नहीं कर पा रहे या उन्हें खुद भी परेशानी है? या उन्हें अपने पहनावे से यह लग रहा था कि प्याज की कीमतों के बढने पर उनकी परेशानी पर लोग यकीन नहीं करेंगे इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपने साक्षात्कार को प्रभावी बना रहे थे। हो सकता है कि टीवी पत्रकार ने अपना कार्यक्रम में संवेदना भरने के लिए उनसे ऐसा ही आग्रह किया हो और वह भी अपना चेहरा टीवी पर दिखाने के लिए ऐसा करने को तैयार हो गये हौं। यह मैं इसलिये कह रहा हूँ कि एक बार मैं हनुमान जी के मंदिर गया था और उस समय परीक्षा का समय था। उस समय कुछ भक्त विधार्थी मंदिर के पीछे अपने रोल नंबर की पर्ची या नाम लिखते है ताकि वह पास हो सकें। वहां ऐक टीवी पत्रकार एक छात्रा को समझा रहा था'आप बोलना कि हम यहाँ पर्ची इसलिये लगा रहे हैं कि हनुमान जीं हमारी पास होने में मदद करें।'
उसने और भी समझाया और लडकी ने वैसा ही कैमरे की सामने आकर कहा। वैसे उस छात्र के मन में भी वही बातें होंगी इसमें कोई शक नहीं था पर उसने वही शब्द हूबहू बोले जैसे उससे कहा गया था।

प्याज पर हुए इस कार्यक्रम में जैसे गरीब का नम लिया जा रहा था उससे तो यही लगता था कि यह बस खानापूरी है। मेरे सामने कुछ सवाल खडे हुए थे-
  1. क्या इसके लिए कोई ऐसा गरीब टीवी वालों को नहीं मिलता जो अपनी बात कह सके। केवल उन्हें शहरों में उच्च और मध्यम वर्ग के लोग ही दिखते हैं, और अगर गरीब नहीं दिखते तो यह कैसे पता लगे कि गरीब है भी कि नहीं।
  2. जो केवल प्याज से रोटी खाता है उसका पहनावा क्या होगा यह हम समझ सकते हैं तो यह टीवी पत्रकार जो अपने परदे पर आकर्षक वस्त्र पहने लोगों को दिखाने के आदी हो चुके हैं क्या उससे सीधे बात कराने में कतराते हैं जो वाकई गरीब है। उन्हें लगता है कि गरीब के नाम में ही इतनी ही संवेदना है कि लोग भावुक हो जायेंगे तो फिर फटीचर गरीब को कैमरे पर लाने की क्या जरूरत है।
  3. जो गरीब है उसे बोलने देना का हक ही क्या है उसके लिए तो बोलने वाले तो बहुत हैं-क्या यही भाव इन लोगों का रह गया है।

आजादी के बाद से गरीब का नाम इतना आकर्षक है कि हर कोई उसकी भलाई के नाम पर राजनीति और समाज सेवा के मैदान में आता है पर किसी वास्तविक गरीब के पास न उन्हें जाते न उसे पास आते देखा जाता है। जब कभी पैट्रोल और डीजल की दाम बढ़ाये जाते है तो मिटटी के तेल भाव इसलिये नही बढाए जाते क्योंकि गरीब उससे स्टोव पर खाना पकाते हैं। जब कि यह वास्तविकता है कि गरीबों को तो मिटटी का तेल मिलना ही मुश्किल हो जाता है। देश में ढ़ेर सारी योजनाएं गरीबों के नाम पर चलाई जाती हैं पर गरीबों का कितना भला होता है यह अलग चर्चा का विषय है पर जब आप अपने विषय का सरोकार उससे रख रहे हैं तो फिर उसे सामने भी लाईये।

प्याज की कीमतों से कोई मध्यम वर्ग कम परेशान नहीं है और अब तो मेरा मानना है कि मध्यम वर्ग के पास गरीबों से ज्यादा साधन है पर उसका संघर्ष कोई गरीब से कम नहीं है क्योंकि उसको उन साधनों के रखरखाव पर भी उसे व्यय करने में कोई कम परेशानी नहीं होती क्योंकि वह उनके बिना अब रह नहीं सकता और अगर गरीब के पास नहीं है तो उसे उसके बिना जीने की आदत भी है। पर अपने को अमीरों के सामने नीचा न देखना पडे यह वर्ग अपनी तक्लीफे छिपाता है और शायद यही वजह है कि ऐक मध्यम वर्ग के व्यक्ति को दूसरे से सहानुभूति नहीं होती और इसलिये गरीब का नाम लेकर वह अपनी समस्या भी कह जाते है और अपनी असलियत भी छिपा जाते हैं। यही वजह है कि टीवी पर गरीबों की समस्या कहने वाले बहुत होते हैं खुद गरीब कम ही दिख पाते हैं।

Friday, September 28, 2007

सुनो सबकी करो मन की-हिन्दी हास्य कविता

जिनके पास नही कोई ज्ञान
वही पा रहे ज्ञानी का सम्मान
वैद, पुराण और शास्त्र जिन्होंने कभी
समझना तो दूर पढे भी न होंगे
लोगों में करते उनका बखान

कभी सुनकर हैरानी होती है कि
क्या वह सब लिखा है ग्रंथों में
जो सुनते उनका ज्ञान
या कुछ हमसे ही पढने में छूट गया
या चूक गया हमारा ध्यान
कभी कभी तो शक होता है कि
हम कोई और ग्रंथ पढे थे
या तथाकथित ज्ञानियों ने
तथ्य पाने मन से गढे थे
कहीं हम तो नहीं भूल जाते
अपने ही दर्शन का ज्ञान

कहैं दीपक बापू
अपने ही हाथ हैं जिस तरह जगन्नाथ
वैसे ही हमारी बुद्धि है हमारे साथ
किसी के सुने पर इतनी आसान से
यकीन नहीं करते
जब तक जब तक उसकी पुष्टि ना कर लें
खुद ही पढ़कर ग्रंथ करते हैं
प्राप्त करते हैं ज्ञान
कह गए बडे-बुजुर्ग सुनो सबकी
करो वही जो मन रहा है मान
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माया और सत्य-हिन्दी हास्य कविता

इधर जाएँ कि उधर
यह कभी तय नहीं कर पाए
जिस माना को पाने की चाहत है
उसके आदि और अंत को समझ नहीं पाए
चारों और फैली दिखती है रोशनी
पर कभी हाथ से पकड़ नहीं पाए
कहीं इस घर मे मिलेगी
कहीं उस दर पर सजेगी
और कहीं किसी शहर में दिखेगी
उसके पीछे दौडे जाते लोग
जितना उसके पास जाओ
वह उतनी दूर नजर आये
सौ से हजार
हजार से लाख
लाख से करोड़
गिनते-गिनते मन की भूख बढती जाये

कहै दीपक बापू
माया की जगह जेब में ही है
उसे सिर मत चढ़ाओ
इधर-उधर देख क्यों चकराये
पीछे जाओगे तो आगी भागेगी
बेपरवाह होकर अपनी रह चलोगे
तो पीछे-पीछे आयेगी
जितना खेलोगे उससे
उतना ही इतरायेगी
मुहँ फेरोगे तो खुद चली आयेगी
आदमी की पास उसका है धर्म
करते रहो समर्पण भाव से अपना कर्म
सत्य का यही है मर्म
जीवन के खेल में वही विजेता होते
जो सत्य के साथ ही चल पाए
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Thursday, September 27, 2007

एक ही कंपनी-हिन्दी हास्य कविता

हीरो ने कहा निर्देशक और निर्माता से
'आज शूटिंग नहीं करूंगा
पैकअप करा दो
मेरा मूड है खराब'
निर्माता ने अपना मोबाइल
उसकी तरफ बढ़ाया और कहा
'मैंने नंबर लगा दिया है
पहले इस पर बात कर लो
फिर देना जनाब'

हीरो ने नंबर देखा और घबडाया
अपने सेक्रेटरी को बुलाया
उसने जब मामला समझा
तब उसने भी अपना मोबाइल
निर्माता की तरफ बढाया
और कहा
'
उस बिचारे को क्या धमकाते हो
मुझ से बात करो
आप इस नंबर पर बात करो पहले जनाब '

निर्माता का सेक्रेटरी भी वहीं खड़ा
उसने भी नंबर देखा और खुश होकर बोला
'अरे काहेका झगडा आप और हम एक ही
कंपनी का मोबाइल इस्तेमाल करते हैं
फिर क्यों झगडा करते हैं साहब'

हीरो ने कुछ सुना कुछ समझा
और बोला
'बात एक कंपनी ही की है
यह सुनकर मैं खुश हुआ
अब तो शूटिंग शुरू करो जनाब'
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समस्याओं के जंगल में आन्दोलन-हिन्दी हास्य कविता

लोग भीड़ में जाकर
जुलूस सजाते हैं
चीख-चिल्लाकर नारे लगाते हैं
और फिर आश्वासन और वादों का
पुलिंदा लेकर वापस आते हैं
कई बरस से चल रहा है
आंदोलनों का सिलसिला
पर फिर भी किसी को कुछ नहीं मिला
समस्याओं के रोग नित बढते जाते हैं

अभी तक इतने आश्वासनों, वादों और
घोषणाओं के पुलिंदे बंट चुके हैं कि
उनेमें कोई तोहफे होते तो
सब जगह इन्द्रपुरी जिसे दृश्य होते
पर फिर जुलूस के लिए
कहाँ से लोग जुटाए जाते
कमरे के बाहर की राजनीति तो
दिखाई देती है
पर अन्दर के सौदे कौन देखे
इसलिये लोग जहाँ से चलते हैं
फिर लॉट कर वहीं अपने को पाते हैं
समस्याओं के इस जंगल में
आंदोलन रेंगने वाले कीड़े की
तरह शोभा पाते हैं
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सफलता का ठेका-हिन्दी हास्य कविता

किसी के पास ज्ञान का
किसी के पास विज्ञान का
किसी की पास शिक्षा का है ठेका
किसी ने लिया है
इंडियन आइडियल बनाने का
किसी के पास है विश्व चैंपियन
बनाने का ठेका
पालक अपने बालकों को
उनसे पास भेजकर सोचते हैं
सब काम अपने आप हो जायेंगे
अब वह सिरमौर ही बनकर घर आएंगे
जो सफल हो जाते हैं वह
गाते हैं ठेकेदारों की महिमा
जो असफल हौं वह अपनी
किस्मत को दोष देकर रह जाते हैं
हर तरह की गारंटी वाला
सब जगह चल रहा है ठेका

Wednesday, September 26, 2007

स्कूल ने बोर्ड बदला-हास्य हिन्दी कविता

विद्यालय के प्रबंधन ने
छात्रो की भर्ती बढाने के लिए
अपने प्रचार के पर्चों में
शिक्षा के अलावा अन्य गतिविधियों में
संगीत, गायन, नृत्य और अभिनय में
इस तरह प्रशिक्षण देने का
दावा किया गया था कि
बच्चा इंडियन आइडियल प्रतियोगिता में
नंबर वन पर आ जाये
ट्वंटी ओवर में विश्व कप मे देश जीता
मिटा कर लिखा गया अन्य गतिविधियों में
यहाँ ट्वंटी ओवर क्रिकेट सिखाने की
विशेष सुविधा उपलब्ध है
जिसमे सिक्स लगाए का
जमकर अभ्यास कराया जाता है
जिससे खिलाड़ी सिक्स सिक्सर
लगाने वाला बन जाये
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बाजार और प्रचार-हिन्दी हास्य कविता

उपभोक्ता और निर्माता की
मर्जी पर नहीं चलता बाजार
करता है काम एक तंत्र
जिसे कहते हैं प्रचार
सामान खरीदने वाले
कही रेडियो पर सुना हो
कही टीवी पर देखा को
कही पत्र-पत्रिका में पढा हो तब
बनाते अपने विचार का आधार
कभी कौन बनेगा करोड़पति
कभी इंडियन आइडियल
तो कभी चाहिए क्रिकेट का हीरो
उत्पाद बेचने के लिए
आजकल जरूरी है यह सब
नहीं तो सिमट जाता है जीरो
पर पूरा व्यापार

कहै दीपक बापू
आदमी की देह से ज्यादा
उसकी अक्ल पर काबू पाने के लिए
चल रही है विज्ञापन की जंग
जिसमें पैसे के अलावा कोई
किसी का साथी नही
कोई किसी के संग
साथ अपने अक्ल लेकर जाओ बाजार
ठगी से बच नही सकते
सस्ती चीज कही से ले नहीं सकते
किसी चीज की गारंटी भी नहीं उपचार
किसी चीज को खरीद कर ठग जाओ
तो भूल जाओ
मत करो पछतावे का विचार
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इंडियन आइडियल-हास्य कविता

लड़के ने दिया लडकी को
'आई लव यू' का प्रपोजल
लडकी ने 'सोचूँगी पर मेरी पसंद है
कि इंडियन आइडियल जैसा कोई'
कहकर लगा दिया डिस्पोजल
वह खुश हो गया
और हर रोज उसकी राह में खडा होकर
नित नए रचता स्वांग
जब वह निकलती वहाँ से
फिल्मी गाने ऐसे गाता
जैसे पी रखी हो भांग
वह उसे मुस्कराकर देखती और निकल जाती
वह खुश होता हर पल
कई दिन तक चला यह नाटक
पर अभी तक मंजूर
नहीं हुआ था उसका प्रपोजल

उस दिन लडकी उसके पास से गुजरी
और जोर से बोली
'बंद करो यह फिल्मी गाने
अब नहीं रह गए मेरे लिए इसके मायने
अब मेरी पसंद है
ट्वंटी ओवर में सिक्स सिक्सर
लगाने वाले जैसा आइडियल'
लड़का हक्का बक्का खडा रहा
ओपनिंग होने से पहले ही
उसके प्यार का डि स्पोजल
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Tuesday, September 25, 2007

चौकों-छक्कों से देश का नाम रोशन करेंगे-हास्य हिन्दी कविता

पचास ओवरों तक खेलने का
धीरज नहीं था
इसलिये बालक
इंडियन आइडियल बनने के लिए
नृत्य और संगीत के अभ्यास में जुटे थे
तिस पर चक दे इन्डिया के वजह से
खेलों में देश का नाम रोशन करने का काम
फिल्मी हीरो के जिम्मे छोडे थे
'दोस्त दोस्त ना रहा
प्यार प्यार ना रहा' की तर्ज पर
अलग-अलग होकर
ख़्वाबों में भूलें थे
बीस ओवर में देखा जो धोनी एंड कंपनी का
जोहानसबर्ग में धमाका
भूल गए सब
और अब दोस्त ही दोस्त की
तलाश में जुटे थे
सब चिल्ला रहे थे
'आओ चलो फिर शुरू करें क्रिकेट
कोई जरूरत नही हैं पचास ओवर की
सारा कमाल बीस ओवर में ही करेंगे
कोइ जरूरत नहीं लोगों के एस एम एस की
हम तो चौकों और छक्कों से ही
अपनी देश का नाम रोशन करेंगे
जहाँ अपने हाथ ही होंगे जगन्नाथ
क्या करेंगे लेकर फिल्मी गीतों का साथ
हम तो अपनी सफलता के गीत खुद लिखेंगे
और वह सब अगले
विश्व कप की तैयारी में जुटे थे
और इस तरह

असली इंडियन आइडियल बनूंगा-हिन्दी हास्य कविता

इंडियन आइडियल का नशा
एक दिन ही चढ़ा
दूसरे दिन उतरा
बालक को करा रहे थे
माता-पिता म्यूजिक की प्रेक्टिस
उसके लिए जुटाए थे तमाम सामान
और फिल्मी गानों के केसिट्स
और कह रहे
'लगा रह मुन्ना भाईस की तरह
हम तेरे लिए जुटाएँगे
चारों तरफ से एस एम एस'
बीस ओवरीय विश्व कप में
भारत की जीत पर
बालक जोर से बिफरा
उठा लाया घर से कबाड़ से पुराना बल्ला
और बोला
'मैं नकली नहीं
असली इंडियन आइडियल बनूंगा
दूसरों की धून पर नृत्य नही करूंगा
अब तो बीस ओवर की राह पर चलूँगा
लोगों के एस एम एस की राह नही तकूंगा
उनको ताली बजाने के लिए मजबूर करूंगा'
और वह बरसात में खेलने चल पडा

Monday, September 24, 2007

श्रीगीता का ज्ञान

बचपन से ही पढते आ रहे
भक्ति भाव से श्रीगीता
फिर भी नही लगता आया हमें ज्ञान
पता नहीं लोग पढते हैं या नहीं
समझ से परे लगता उनका बखान

श्रीगीता का यही संदेश समझ में आता है
'कर्म जैसा ही फल होगा
निष्काम भक्ति से परमात्मा प्रसन्न होंगे
करेंगे जीवात्मा का कल्याण'
ईश निंदा हेतु किसी के शीश पर प्रहार
करने का हमने नहीं देखा उसमें ज्ञान
परमात्मा द्वारा स्वत: ही
निंदकों के लिए किया गया है
कीट योनि में भेजने का विधान
कैसे ले सकता है यह जिम्मा कोई इन्सान

कहैं दीपक बापू
हो सकता है हमसे श्रीगीता का श्लोक
आख़िर हम हैं इन्सान और यह है भूलोक
न देवता हैं, न निवास है स्वर्ग लोक
गलतियों के पुतले हैं, देह का नहीं अभिमान
हम तो इतना जानते
युद्ध से विरक्त हो रहे अर्जुन को
वीरता दिखाने के लिए प्रेरित करते हुए भी
दिया था श्री कृष्ण जी ने अहिंसा का संदेश
सबके कर्मों का फल देने का
अपने पास ही रखा विधान
फिर भी महाज्ञानी होने का दवा नहीं करते
हम संशय से जूझ रहे हैं
ढूंढते हैं कोई ज्ञानी-ध्यानी
जो इस विषय पर हमें दे ज्ञान
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Saturday, September 22, 2007

उसे पुकारों दिल से

वह भूत-भूत कर चिल्लाते हैं
तंत्र-मन्त्र कर भगाने का
नाटक करते नजर आते हैं
बीमारी चिंताओं से बढ़े
वह हवाओं की बताते हैं
हरकते करे दीवानों जैसी
असर शैतानों का बताते हैं

विश्वास की कमी अविश्वास करती पैदा
फसल काटने के लिए सभी जगह
सर्वशक्तिमान की कृपा का दावा
कराने वाले दलालों के ठिकाने मिल जाते हैं
अशिक्षितों का क्या
शिक्षित भी उनके यहाँ हाजरी लगाते हैं
मरीज कहाँ जाएँ बिचारे
डाक्टर तक वहाँ लाईन लगाते हैं

कहैं दीपक बापू
वह बैठा अन्दर मुस्कराता है
जिसे इधर-उधर ढूँढने जाते हैं
उसकी कृपा वह क्या दिलाएंगे
जो उसके नाम पर रोटियाँ सेंके जाते हैं
एक हाथ उठाएं दुआ के लिए
दूसरे से पैसा लिए जाते हैं
बहुत सारे मन्त्र हैं
खुद ही जप कर
अपनी दवा खुद ही कर लो
भला जादू के मन्त्र से कभी
विश्वास और प्यार जीते जाते हैं
नाम कोई भी हो उसे पुकारो दिल से
तभी उसके अपने पास होने के
सहज अनुभूति पाते हैं
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बहस और तर्क तो विद्वानों को करना चाहिए

बहस और तर्क विद्वानों के बीच होना चाहिए। विद्वान का मतलब यह कि जिस विषय पर बहस हो उसमें उसने कहीं न कहीं शिक्षा और उपाधि प्राप्त की हो या उसने उस विषय को इस तरह पढा हो कि उसे उसके संबंध में हर तथ्य और तत्व का ज्ञान हो गया हो। हमारे देश में हर समय किसी न किसी विषय पर बहस चलती रहती है और उसमें भाग लेने वाले हर विषय पर अपने विचार देते हैं जैसे कि उस विषय का उनको बहुत ज्ञान हो और प्रचार माध्यमों में उनका नाम गूंजता रहता है। उनकी राय का मतलब यह नहीं है कि वह उस विषय में पारंगत हैं। उनको प्रचार माध्यमों में स्थान मिलने का कारण यह होता है कि वह अपने किसी अन्य कारण से चर्चित होते हैं, न कि उस विषय के विद्वान होने के की वजह से ।

स्वतंत्रता के बाद इस देश में सभी संगठनों, संस्थाओं और व्यक्तियों की कार्यशैली का एक तयशुदा खाका बन गया है जिससे बाहर आकर कोई न तो सोचना चाहता है और न उसके पास ऐसे अवसर हैं। धर्म, विज्ञान, अर्थशास्त्र, साहित्य, राजनीति, फिल्म और अन्य क्षेत्रों में बहुत लोग सक्रिय हैं पर प्रचार माध्यमों में स्थान मिलता है जिसके पास या तो कोई पद है या वह उन्हें विज्ञापन देने वाला धनपति है या लोगों की दृष्टि में चढ़ा कोई खिलाडी या अभिनेता है-यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि उसे उस विषय का ज्ञान हो जिस पर वह बोल रहा हो। इसी कारण सभी प्रकार की बहस बिना किसी परिणाम पर समाप्त हो जाती हैं या वर्षों तक चलती रहती हैं। जैसे-जैसे इलेक्ट्रोनिक प्रचार माध्यमों का विस्तार हुआ है और बहस भी बढने लगी है और कभी-कभी तो लगता है कि प्रचार माध्यमों को लोगों की दृष्टि में अपना प्रदर्शन में निरंतरता बनाए रखने के लिए विषयों की जरूरत है तो उनमें अपना नाम छपाने के लिए उन्हें यह अवसर सहजता से प्रदान करते हैं।

अन्य विषयों पर बहस होती है तो आम आदमी कम ही ध्यान देता है पर अगर धर्म पर बहस चल रही है तो वह खिंचा चला आता है। धर्म में भी अगर भगवान् राम श्री और श्री कृष्ण का नाम आ रहा तो बस चलता-फिरता आदमी रूक कर उसे सुनने, देखने और पढने के लिए तैयार हो जाता है। मैं कुछ लोगों की इस बात से सहमत हूँ कि भगवान श्री राम और श्री कृष्ण इस देश में सभी लोगों के श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक हैं। लोग उनके प्रति इतने संवेदनशील होते हैं कि उनकी निन्दा या आलोचना से उन्हें ठेस पहुँचती हैं। इसके बावजूद कुछ लोग प्रचार की खातिर ऐसा करते हैं और उसमें सफल भी रहते हैं।

धर्म के संबंध में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे प्राचीन ग्रंथों को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं किया गया पर इसके बावजूद इन्हें श्रद्धा भाव से पढने वालों की कमीं नहीं है। यह अलग बात है कि कोई कम तो कोई ज्यादा पढता है। फिर कुछ पढने वाले हैं तो ऐसे हैं जो इसमें ऐसी पंक्तियों को ढूंढते हैं जिसे उनकी आलोचना करने का अवसर मिले। वह पंक्तिया किस काल और संदर्भ में कही गयी हैं और इस समय क्या भारतीय समाज उसे आधिकारिक रुप से मानता है या नहीं, इस बात में उन्स्की रूचि नहीं होती। मुझे तो आश्चर्य तो तब होता है कि ऐसे लोग अच्छी बातों की चर्चा क्यों नहीं करते-जाहिर है कि उनका उद्देश्य ही वही होता है किसी तरह नकारात्मक विचारधारा का प्रतिपादन करें। मजे की बात तो यह है कि जो उनका प्रतिवाद करने के लिए मैदान में आते हैं वह भी कोई बडे ज्ञानी या ध्यानी नहीं होते हैं केवल भावनाओं पर ठेस की आड़ लेकर वह भी अपने ही लोगों में छबि बनाते हैं-मन में तो यह बात होती है कि सामने वाला और वाद करे तो प्रतिवाद कर अपनी इमेज बनाऊं।

मतलब यह कि धर्म मे विषय में ज्ञान का किसी से कोई वास्ता नहीं दिखता। एक मजेदार बात और है कि अगर किसी ने कोई संवेदनशील बयान दिया है प्रचार माध्यम भी उसके समकक्ष व्यक्ति से प्रतिक्रिया लेने जाते हैं बिना यह जाने कि उसे उस विषय का कितना ज्ञान है। भारत के प्राचीन ग्रंथों के कई प्रसिद्ध विद्वान है जो इस विषय के जानकार हैं पर उनसे प्रतिक्रिया नहीं लेने जाता जबकि उनके जवाब ज्यादा सटीक होते, पर उससे समाचारों का वजन नही बढ़ता यह भी तय है क्योंकि लोगों के दिमाग में भी यही बात होती है कि प्रतिक्रिया देने का हक केवल पद, पैसा और प्रतिष्ठा से संपन्न लोगों को ही है पंडितों (यहाँ मेरा आशय उस विषय से संबधित ज्ञानियों और विद्वानों से है जो हर वर्ग और जाति में होते हैं) को नहीं। वाद, प्रतिवाद और प्रचार के यह धुरी समाज कोई नयी चेतना जगाने की बजाय लोगों की भावनाओं का दोहन या व्यापार करने के उद्देश्य पर ही केंद्रित है।

इसलिये जब ऐसे मामले उठते हैं तब समझदार लोग इसमें रूचि कम लेते हैं और असली भक्त तो बिल्कुल नहीं। इसे उनकी उदासीनता कहा जाता है पर मैं नहीं मानता क्योंकि प्रचार की आधुनिक तकनीकी ने अगर उसके व्यवसाय से लगे लोगों को तमाम तरह की सुविधाएँ प्रदान की हैं तो लोगों में भी चेतना आ गयी है और वह जान गए हैं कि इस तरह के वाद,प्रतिवाद और प्रचार में कोई दम नहीं है।

Friday, September 21, 2007

बंधुआ बुद्धिमान-व्यंग्य शायरी

जिस तरह बुद्धिमान लोग
करे रहे हैं अगडम-बगडम बातें
उससे तो लगता है कि
बंधुआ मजदूरों का युग गया
तो बंधुआ बुद्धिमान का युग आ गया है
मुश्किल यह है कि
बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के लिए तो
इनका इस्तेमाल किया जा सकता है
पर इनके लिए कोई लडेगा
इसमें शक लगता है

बडे-बडे आदर्शों की बातें
तरह-तरह की विचारधारा की
गरीबों में बांटे सौगातें
'वाद' और नारों से भरे बस्ते
आंदोलन के जरिये पूरी दुनिया में
इन्कलाब लाने का ख्याली पुलाव दिखाते
पुराने देवी-देवताओं के नाम पर
नाक-भौं सिकोड़ जाते
लक्ष्यहीन चले जा रहे हैं
मार्ग का नाम नहीं बताते
एक शब्द से अधिक कुछ जानते हैं
इसमें शक लगता है

पुराने संस्कार में ढूंढते दोष
जिसके पाले में घुस जाएँ
उसी की बजाते
एक दिन किसी बात को अच्छा
दूसरे दिन ही उसमें खोट दिखाते
कहीँ दीपक बापू
इस रंग बदलती दुनिया में
कैसे-कैसे नजारे आते हैं
बंधुआ बुद्धिमानों की मुक्ति का
मार्ग ढूँढना तो दूर सोचना भी मुशिकल
जिसकी सेवा में हौं उसके दास बन जाते हैं
इनकी मुक्ति का प्रयास जो करते हैं
उनके लिए मुश्किल पैदा कर जाते हैं
लार्ड मैकाले ने जो बीज बोए
उसकी शिक्षित गुलामों की
फसल सब जगह लगी पाते हैं
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