'कबीर' मन फूल्या फिरै,करता हूँ मैं प्रेम
कोटि क्रम सिरि ते चल्या, चेत न देखै भ्रम
संत शिरोमणि कबीर कहते हैं कि आदमी का मन फूला नहीं समाता यह सोचकर कि'मैं धर्म करता हूँ , धर्म चलता हूँ' पर उसे चेतना नहीं है कि अपने इस भ्रम को देख ले कि धर्म कहाँ है जबकि कर्मों का बोझ उठाएँ चला जा रहा है।
'कबीर' सो धन संचिये, जो आगै कू होइ
सीस चढाये पोटली, ले जात न देख्या कोइ
सीस चढाये पोटली, ले जात न देख्या कोइ
उसी धन का संचय करो, जो आगे काम आए, तुम्हारे इस धन में क्या रखा है। गठरी सिर पर रखकर किसी को भी आज तक ले जाते नहीं देखा।
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