सभी चेहरों पर
लगा रंगबिरंगा नकाब है।
नहीं होता अनुमान
कौन अच्छा देखने में
कौन खराब है।
कहें दीपक बापू पीने का मजा
ले रहे लोग हाथ में
लेकर ग्लास
नहीं होता अनुमान
शर्बत पीकर नाच रहे
या बहका रही शराब है।
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हमारे जिस्मे से
निकल गया पसीना
मगर अमीरों को मजा नहीं आया।
घी पीने में लग रहे वह
हमारी सूखी रोटी खाना भी
उनको रास न आया।
कहें दीपक बापू मजे में
हम जीते रहे
अपनी टुकड़ों टुकड़ों में बंटी जिंदगी
छिपाये अपने गम
मगर हमारी खुशी ने भी
उनकी आंखों को बहुत सताया।
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लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’
लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियरhindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com
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