Wednesday, August 14, 2013

१५ अगस्त स्वतंत्रता दिवस पर विशेष हिंदी लेख-राजसी प्रकृति के लोगों को दृढतापूर्वक राजसी कर्म करना चाहिए (special hindi article on 15 august independay day of india-rajsi prakriti ke logon ko hee drudhtapurvak rajsi karma karna chahiye)



        भारत 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों की राजनीतिक दासता से मुक्त हुआ था। जब हम राजनीतिक विषय की बात बरते हैं तो उसका संबंध सीधे मनुष्य की राजस प्रकृति और कर्म से होता है।  जैसा कि हम जानते हैं कि मनुष्य की तीन प्रवृत्तियां होती हैं। सात्विक, राजस और तामस, इसी क्रम में उसके कर्म भी होते हैं।  मनुष्य समाज में राजस भाव के लोगों की प्रधानता होती है और सच बात यह है कि संसार के समुचित संचालन में उनका ही योगदान होता है पर यह यहां स्पष्ट कर दें कि सब कुछ वही नहीं होते। तामसी प्रवृत्ति वाले लोगों का संसार संचालन में अपनी उपस्थिति के अलावा
अन्य कोई योगदान नहीं होता। सात्विक प्रकृत्ति के लोग येनकेन प्रकरेण राजसी प्रकृत्ति के लोगों के प्रति सद्भाव तो रखते हैं पर उनकी प्रकृति और कर्म का अनुकरण नहीं करते।  अगर मदद मांगी जाये तो वह राजसी प्रकृति के मनुष्य की सहायता करने को तैयार भी हो जाते हैं पर उनका अपने लाभ को लेकर कोई लोभ नहीं होता। राजसी प्रकृत्ति वाले कभी कोई काम बिना लाभ के नहीं करते। अपने पद, पैसे और प्रतिष्ठा का उनमें अहंकार भी रहता है। तामस प्रकृत्ति के लोगों का वह सहजता से उपयेाग करते हैं पर अर्थ सिद्ध न करें तो सात्विक मनुष्य की तरफ उदासीनता का भााव दिखाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि राजसी प्रकृति का जैसा स्वभाव है वैसा ही उसे धारण करने वाले का कर्म भी होता है। राजसी व्यक्ति कभी निष्कर्म भाव से सक्रिय नहीं रहता।
            अगर हम इस संसार में संचालन की तरफ देखें तो उसका भौतिक संचालन राजस भाव से ही संभव है। यहां तक कि सात्विक भाव वाले भी कभी न कभी राजस भाव धारण कर कार्य करते हैं।  इन तीनों से परे कर्मयोगी होते हैं जो कर्म की प्रकृति देखकर उसे करने के लिये वैसा ही भाव अपनाते हैं।  वह चाहे जो भी काम करें निष्कर्म भाव से करते हैं।  तय बात है कि ऐसे लोग  विरले ही होते हैं।  हां, यह जरूर है कि कुछ सात्विक प्रकृत्ति के लोग कभी कभी राजस कर्म की ओर अग्रसर हो जाते हैं। इनमें एक नाम आता है महात्मा गांधी।  देखा जाये तो महात्मा गांधी सात्विक प्रकृत्ति के थे।  दक्षिण अफ्रीका में जब उनको भारतीय होने के कारण रेल के उस डिब्बे से निकाला गया जो केवल गोरे लागों के लिये सुरक्षित था तब उनके मन में आक्रोश का भाव पैदा हुआ। वहीं से उनकी अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोला तो उसकी चरम परिणति  15 अगस्त 1947  को भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के रूप में हुई।  सात्विक प्रकृत्ति के महात्मा गांधी ने राजसी भाव से जिस तरह अपना लक्ष्य प्राप्त किया वह पूरी दुनियां के लिये अनुकरणीय है।
        इसके बावजूद कुछ ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर सहजता से नहीं मिल पाता। पहला प्रश्न तो यह कि गांधीजी ने स्वतंत्रता तो दिलाई पर सत्ता से दूर रहे।  कुछ लोग इसे उनका त्याग मानते हैं पर ज्ञान साधक उनके इस भाव को स्वीकार नहीं करते। जब अंग्रेज भारत छोड़ रहे तो महात्मा गांधी यहां की व्यवस्था से प्रथक क्यों हुए? क्या सत्ता केवल भोग  के लिये है जिससे दूर रहना एक पुण्यकर्म है? यदि हम यह माने कि यह त्याग है तो इसका मतलब हम मानते हैं कि राज्य की व्यवस्था तो भगवान के भरोसे ही चलती है और राजा या राज्य प्रमुख तो केवल सुख भोगी होता है।  उस पर प्रजा की भलाई के लिये कोई जिम्मा नहीं होता और उसके लिये चतुराई के साथ उदारता की आवश्यकता भी नहीं होती।  सच तो यह है कि सात्विक प्रकृत्ति के महात्मा गांधी राजसी भाव में एक सीमा तक ही लिप्त हो सकते थे।  कहीं न कहीं अंग्रजों के प्रति उनके मन में नाराजगी का भाव था जो कि विशुद्ध रूप से राजसी भाव का प्रतीक था। जिनकी सात्विक प्रकृति होती है वह राजसी कर्म में निरंतर लिप्त नहीं रह पाते। किसी भी आंदोलन में व्यक्ति की सक्रियता नियमित नहीं होती है इसलिये उसका ठीक से आंकलन नहीं होता। दूसरी बात यह कि आंदोलन चाहे हिंसक हो या अहिंसक कही  न कहीं किसी विषय, वस्तु या व्यक्ति के विध्वंस का भाव लिये होते हैं।  महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को भारत से बाहर किया पर जब उसके बाद नये भारत क निर्माण का प्रश्न आया तो वह त्यागी हो गये।  अब सवाल आता है कि निर्माण तो किसी भी व्यक्ति की रचनात्मकता की प्रकृति से ही संभव है।  महात्मा गांधी ने सरकार में कोई पद नहीं लिया इसे क्या समझा जाना चाहिये?  हमारा मानना है कि किसी समूह को आंदोलन सफल होने के बाद अभियान चलाना भी आना चाहिये।  आंदोलन से विध्वंस के बाद रचना का अभियान न चलाया जाये तो यह मानना चाहिये कि नेतृत्व में क्षमता का अभाव है।
      महात्मा गांधी के इस कथित त्याग ने देश में तत्कालीन ही नहीं वरन् भविष्य की राजनीतिक पीढ़ी को भी गलत संदेश दिया। आज भी राजनीति में सक्रिय लोगों से जब प्रधानमंत्री या  मुख्यमंत्री पर पर बैठने की इच्छा के बारे में तो वह हृदय में लालसा होते हुए भी मना करने का स्वांग रचते हैं। क्या वह यह साबित नहीं करते कि उच्च पद जिम्मेदारी की बजाय भोग के लिये होता है? दूसरी बात यह कि राजनीति को समाज सेवा के लिये अपनाने का ढोंग कई तरह के विरोधाभासों को उत्पन्न करता है। राज्य प्रमुख  को दृढ केवल न होना चाहिये वरन् दिखना भी चाहिये।  इससे प्रजा तथा शत्रु राष्ट्र डरे रहते हैं।  अगर उच्च पदों पर मन में कुछ और जुबान पर कुछ होने वाले बैठेंगे तो यकीनन राज्य में प्रजा की प्रसन्नता की आशा नहीं करना चाहिये।  सच तो यह है कि राजनीति समाज सेवा का नहीं वरन् राज्य को साधने के लिये करना चाहिये।  सभी को साथ लेकर चलने का स्वांग करने की बजाय सभी को साधने का निश्चय उच्च पद पर बैठे व्यक्ति को धारण करना चाहिये।  गांधी जी ने अंग्रेजों के राज्य का विध्वंस करने वाले आंदोलन के प्रेरक तो बने पर देश की व्यवस्था को नया रूप देने के लिये किसी अभियान को कैसे चलायें, यह संदेश नहीं दे पाये।  कोई पद लेकर वह शासन चलाने की तरीका सिखाते तो यकीनन उनका दर्जा महात्मा  की बजाय देवता का होता।  यही कारण है कि उनके अनेक अनुयायी यदकदा उनके नाम का जाप करते हुए दूसरी आजादी का आंदोलन करते हैं। कोई कहता है कि हमें अधूरी आजादी मिली।  हम देख रहे हैं कि भारत अभी भी राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से अस्थिर मनस्थिति में फंसा है।  गांधी के ढेर सारे कथन हैं पर उनसे आंदोलन ही चल सकता है।  उनका संदेश या दर्शन किसी अभियान में सहायक हो सकता है, इसके लिये गांधी जी ने कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया।
      बहरहाल 15 अगस्त 1947 को भारत ने राजनीतिक आजादी पायी। इससे अधिक इसका कोई महत्व नहीं है। इससे पूर्व जो भारत था उसके अब तक तीन भाग हो चुके  हैं। एक पाकिस्तान तथा बंग्लादेश तो तीसरा भारत।  दोनों ही देश दुश्मन बने हुए हैं।  मतलब यह कि इस दिन हमने एक दुश्मन पाया जिसके हमने ही दो टुकड़े किये पर दोनों का रवैया एक जैसा है।  पहले अंग्रेजों से लड़ते थे आज इन दोनों टुकड़ों से लड़ना पड़ रहा है।  जहां देश की व्यवस्था का प्रश्न है तो वह अंग्रेजों ने जो बनायी वही चल रही है। इतना ही नहीं हम दावा करते हैं कि अब हमारे अपने कानून हैं पर ताज्जुब हैं उनमें से अधिकतर अंग्रेजों के बने हुए है।  इनमें से कई कानून ऐसे हैं जो अनेक उन कामों को गलत मानते हैं जिनको अंग्रेजी समाज आज भी नहीं मानता।  यही कारण है कि अनेक वि़द्वान अभी भी पूर्ण आजादी के लिये वैचारिक युद्ध मे व्यस्त रहते हुए बहसें करते हैं।  जिनके पास शिखर पर पद हैं पता नहीं वह उनका कितना आनंद उठाते हैं, पर एक बात तय है कि अंग्रेजों की व्यवस्था चल रही है सो चल रही है। वैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडमस्मिथ कहते हैं कि ‘‘लोकतंत्र में लिपिक शासन चलाते हैं।’’
       एडमस्मिथ ने कभी भारत का दौरा किया यह तो पता नहीं पर उसने यह उस पश्चिमी व्यवस्था को देखकर ही कहा होगा जिसका अनुकरण हम कर रहे हैं।  हमारे देश में जो व्यवस्था है उसे कौन चला रहा है यह पता नहीं चलता।  खासतौर से उच्च पदों पर विराजमान शिखर पुरुष भी कभी कभी अपने अधीनस्थ अधिकारियों की-लगता है एडमस्मिथ उनको ही क्लर्क मानते होंगे-शिकायत करते हैं कि वह उनकी सुनते ही नहीं है तब यह कहना ही  पड़ता है कि यह देश भगवान भरोसे ही चल रहा है। इस स्वतत्रता दिवस पर हम इतना ही कह सकते हैं कि अभी देश के राजसी प्रवृत्ति के लोगों को सीखने की आवश्यकता है इसके लिये उन्हें कम से कम सात्विक होने का पाखंड छोड़कर राजसी कर्म के प्रति राजसी भाव से दृढ़ता पूर्वक लिप्त होना चाहिये। 
       सभी ब्लॉग लेखक मित्रों और पाठकों इस स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर हार्दिक बधाई।




  लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा भारतदीप

लश्कर, ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,ग्वालियर
hindi poet,writter and editor-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blgospot.com

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